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Saturday, 15 November 2008

मध्य प्रदेश में भी एक बंगरप्पा?

लेखक- अम्बा चरण वशिष्ठ
सशक्त
भारतीय जनतंत्र की एक कमजोरी देश में बढ़ रही राजनीतिक दलों की संख्या पर नियंत्रण कर पाने में विफलता है। जिस प्रकार हमारी प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या का कारण अनियंत्रित यौन संबंध है उसी प्रकार लगभग प्रतिदिन पैदा होने वाले नये राजनीतिक दलों का कारण हमारे नेताओं के मन में पनपता अनियंत्रित अहम और महत्वाकांक्षा है।
सुश्री भारती के अपने भाई उनका साथ छोड़ गए हैं। उनके अपने ही दल में काफी उठाहपोह है। ऐसी स्थिति में उन जैसा व्यक्तित्व सत्ता में आने का दिवास्वप्न देखता है तो यह समझ के बाहर की बात है। चुनाव परिणाम कुछ भी निकलें, पर आज इतना तो आसानी से कहा ही जा सकता है कि कर्नाटक में श्री एस. बंगरप्पा की तरह मध्यप्रदेश में उमा भारती भी अंतत: घाटे में ही रहेंगी।
एक कारण यह भी है कि पिछले 61 वर्षों में भारत में ऐसा कोई भी दल नहीं हुआ जो डाले गये मतों का 50 प्रतिशत से अधिक प्राप्त कर सत्ता में आया हो। भारत में अब तक चुनाव में कभी भी 70 प्रतिशत से अधिक मत नहीं पड़े। इसका यही अर्थ निकलता है कि भारत पर जिस भी राजनीतिक दल/गठबंधन ने शासन किया उसे मत संख्या का एक-तिहाई से अधिक कभी भी वोट नहीं मिला।


हमारे नेता जन्म तो किसी दल विशेष में लेते हैं और उसी में पालन-पोषण के बाद बड़े होते हैं। पर ज्यों ही वह पार्टी उनकी सनक के अनुसार काम नहीं कर पाती तो उनके दम्भ और अहंकार की आग भड़क उठती है जिसे उनके चमचे हवा देते हैं और इस अहम् और महत्वाकांक्षा के सम्भोग से जन्म लेता है एक नया राजनीतिक दल। सच तो यह भी है कि हमारे राजनीतिक दलों में व्यक्तियों से सदैव न्याय नहीं होता और न ही योग्यता को सम्मान ही मिलता है। पर यह भी तो सच है कि यदि हम पार्टी के अंदरूनी गणतंत्र में विश्वास रखते हैं तो हमें अपने गिले-शिकवे पार्टी के अंदर रह कर ही दूर करने चाहिए और भीतर से ही न्याय की लड़ाई लड़नी चाहिए। पर ऐसा नहीं होता। अहम् में आगबबूला हमारे नेता पार्टी और इसके नेतृत्व को अपने साथ हुयें अन्याय के लिए सबक सिखाने का प्रण ले बैठते हैं। कई तो यहां तक समझ बैठते हैं कि यदि वह है तो पार्टी है और यदि वह नहीं तो कुछ भी नहीं।


तुलना प्रिय तो नहीं होती पर इससे बचना भी मुश्किल है। कर्नाटक के श्री एस. बंगरप्पा और मध्यप्रदेश की सुश्री उमा भारती के उदाहरण काफी कुछ एक समान हैं। दोनों ही अपने-अपने प्रदेशों के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। दोनों ही, ठीक या गलत, अपने-अपने पार्टी के नेतृत्व से संतप्त हैं और वे समझते हैं कि पार्टी ने उनके साथ न्याय नहीं किया।


जब श्री बंगरप्पा कर्नाटक में कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे तो हाईकमान ने उन्हें त्यागपत्र के लिए बाध्य किया। 1989 के चुनाव के समय उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी, अलग कर्नाटक कांग्रेस पार्टी का गठन किया और 224 में से 218 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए। तब सत्तासीनं कांग्रेस सरकार सत्ता विरोधी लहर और बंगरप्पा के विरोध के नीचे ढह गयी और वह 178 विधायकों के स्थान पर केवल 34 सीट ही जीत सकी और मत प्रतिशत 43.76 से गिर कर 26.95 रह गया। जहां कांग्रेस का मत प्रतिशत 16.81 घटा, वहीं भाजपा ने अपना मत प्रतिशत 4.14 से बढ़ाकर 16.99 प्रतिशत कर लिया और उसके विधायकों की संख्या 4 से बढ़कर 40 हो गयी। जनता दल का मत प्रतिशत 27.08 (24 विधायक) से बढ़कर 33.54 (115 विधायक) हो गया और वह सत्ता में आ गयी। बंगरप्पा की कर्नाटक कांग्रेस ने सत्ताधारी कांग्रेस के 7.31 प्रतिशत (विधायक केवल 10) वोट काटे पर उसे सत्तााविहीन होना पड़ा।


राजनेता अपनी एक टांग कटवाने के लिए सदा तत्पर रहते हैं यदि इससे उनके विरोधी की दोनों टांगें कट जाएं। यही हुआ कर्नाटक में। बंगरप्पा तो पहले ही सत्ता खो बैठे थे और इसके आगे उनके पास खोने के लिए कुछ था नहीं। इसलिए उनका तो बड़ा सूक्ष्म संकीर्ण लक्ष्य था: ''अगर वह नहीं, तो कांग्रेस भी नहीं।'' जब कांग्रेस के हाथ से सत्तााछिन गयी तो बंगरप्पा के हाथ तो सत्ता नहीं आयी पर वह इस बात से ही खुश थे कि उन्होंने कांग्रेस को सत्ता में आने नहीं दिया।


राजनीति में या तो व्यक्ति को स्वयं जीत जाना चाहिए या फिर उसकी पार्टी जीत जानी चाहिए। उसके कारण यदि किसी तीसरे व्यक्ति या पक्ष को लाभ हो जाये, यह तो दिलेरी और बहादुरी की बात नहीं हुई। यदि ऐसा होता है तो यह तो बंदरबांट का ही उदाहरण बन जाता है जिसमें दो व्यक्तियों की लड़ाई में तीसरा लाभ उठा जाता है।


अंतत: हुआ क्या? राजनीति के अकेले राही श्री बंगरप्पा विभिन्न पार्टियों में मेढक की कूद लगा चुके थे। अंतत: उन्हें मिली स्वयं और अपने पुत्रों के लिए कर्नाटक विधानसभा में एक अशोभनीय हार। 2008 के कर्नाटक चुनाव तक श्री बंगरप्पा एक अविजित नायक थे जिसने कभी कोई चुनाव नहीं हारा था। पर महत्वाकांक्षा की भूख और बदले की भावना ने उन्हें कहीं का न छोड़ा। न सत्ता मिली और न ही सम्मान।


वर्तमान स्थिति में ऐसा लगता है कि मध्यप्रदेश में भी बंगरप्पा का इतिहास दोहराया जा सकता है। सुश्री उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी प्रदेश की सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है। अपने स्वार्थी उद्देश्य और मंन्सूबों की पूर्ति के लिए सुश्री भारती के अहम और दम्भ को हवा देने वालों की कमी नहीं है। विधानसभा चुनाव में उनकी उपस्थिति से किसी को लाभ होने वाला है तो किसी को हानि। पर वह तो अपनी पुरानी पार्टी को सबक सिखाने के लिए आतुर हैं: ''अगर मैं नहीं, तो वह भी नहीं''।


सुश्री भारती के अपने भाई उनका साथ छोड़ गए हैं। उनके अपने ही दल में काफी उठाहपोह है। ऐसी स्थिति में उन जैसा व्यक्तित्व सत्ता में आने का दिवास्वप्न देखता है तो यह समझ के बाहर की बात है। वह भाजपा को अवश्य सजा देना चाहती हैं। पर यह भी सच है कि सदा सभी की सब मुरादें पूरी नहीं होती। अभी यह भविष्यवाणी कर देना एक टेढ़ी खीर लगती है कि भाजपा अवश्य सत्ता में आ जाएगी या कांग्रेस जीत जाएगी। चुनाव विश्लेषण को एक विज्ञान तो अवश्य माना जा रहा है पर इसकी विश्वसनीयता पर अभी तक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। और चुनाव विशेषज्ञ भी अभी यह यह भविष्यवाणी करने की जोखिम नहीं उठा पा रहे कि सुश्री भारती भाजपा को हराकर सत्ताा के गलियारे पर काबिज हो जाएंगी या कांग्रेस सत्ता में आ जाएगी।


चुनाव परिणाम कुछ भी निकलें, पर आज इतना तो आसानी से कहा ही जा सकता है कि कर्नाटक में श्री एस. बंगरप्पा की तरह मध्यप्रदेश में उमा भारती भी अंतत: घाटे में ही रहेंगी। यदि भाजपा अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने में कामयाब हो जाती है तो राज्य के राजनीतिक परिदृश्य से उनका अस्त हो जाएगा। यदि कांग्रेस सत्ता में आ जाती है तो भी आगे सुश्री भारती का कोई रोल नहीं बचेगा क्योंकि जिस सुश्री भारती के कंधों की शक्ति पर कांग्रेस सत्ता में आएगी वह उनके कंधों की मालिश कर सशक्त नहीं बनाना चाहेगी। जब जनता दल कर्नाटक में श्री बंगरप्पा और कांग्रेस के वोट काटने के कारण सत्ता में आया था तो जनता दल श्री बंगरप्पा के प्रति कभी कृतज्ञ नहीं रहा।


आज श्री बंगरप्पा कहां हैं? वह राजनीतिक परिदृश्य से ओझल हैं। आज राजनीति में उनकी कोई गिनती नहीं है। तो क्या 8 दिसंबर को चुनाव परिणाम निकलने पर मध्यप्रदेश में भी एक और एस. बंगरप्पा उभरेगा?
(लेखक स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं)

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