मार्क्सवाद का सामाजिक समानता से भी कोई लेना-देना नहीं है बल्कि सत्ता प्राप्ति ही इसका अंतिम ध्येय है। इसके लिए यह दर्शन रोटी, कपड़े, और मकान की आड़ में सामाजिक समानता की बात करता हुआ व्यक्ति के सामने आता है। इस रूप में आकर यह आर्थिक रूप से जूझते व्यक्ति को तत्काल ही आकर्षित करता है। जिन दिनों रूस और चीन में मार्क्सवाद जड़ें जमा रहा था उन दिनों भी सामाजिक समानता कहीं नहीं थी। समाज निरकुंश शासक और शोषित प्रजा के बीच बंटा हुआ था।
मार्क्सवाद एक निरकुंश अवधारणा है जिसमें व्यक्ति को रोटी, कपड़ा और मकान के बीच ही उलझा कर रखा जाता है। मार्क्सवादी दर्शन ने पृथ्वी के विशाल भू-भाग को अपने दर्शन से प्रभावित किया। मार्क्सवाद के सफल होने के कारणों की खोजबीन होनी चाहिए।मार्क्सवाद एक भौतिक अवधारणा है। यह केवल दैहिक-आवश्यकताओं को ही परम लक्ष्य मानकर चलने वाला दर्शन है। मार्क्सवाद शरीर को मात्र एक पदार्थ मानता है। शरीर के भीतर आत्म-तत्व की उपस्थिति को वह नकारता है। जब शरीर एक पदार्थ भर है और आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है तो व्यक्ति केवल अपनी भौतिक आवश्यकताओं के लिए जीने वाला एक प्राणी भर रह जाता है। जीवन में रोटी, कपड़ा और मकान ही उसकी परम आवश्यकताएं रह जाती हैं। इन्हीं के लिए जीना, इन्हीं के लिए मरना।
जिस समय मार्क्सवाद दुनिया में जड़ें जमा रहा था उस समय दुनिया के लगभग सभी देशों में आर्थिक शोषण जारी था। साम्राज्यवादी ताकतें दूसरे देशों के आर्थिक संसाधनों को बलपूर्वक हथिया रही थीं। कमजोर देशों में गरीबी व भुखमरी का आलम था। लोग दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज हो गए थे। साम्राज्यवादी शोषण का शिकार आम आदमी हो रहा था। आम आदमी को तो यह पता ही नहीं था कि वह किस साम्राज्यावादी कुचक्र का शिकार हो गया है, क्यों उससे उसकी रोटी का अधिकार छीन लिया गया है। धर्म के नाम पर जिन देवी-देवताओं को वह पूजता आया था, संकट की इस घड़ी में वह उसके काम नहीं आए। धर्म पर से विश्वास टूटने लगा क्योंकि भूखा पेट, आम आदमी और धर्म एक साथ नहीं चल सकते। ऐसे में यदि कोई विचार या दर्शन लोगों को साहस दे सकता था तो वह मार्क्सवादी दर्शन ही था। कोई विचार या दर्शन जो उन्हें अपनी रोटी छीनकर वापस लेने की प्रेरणा दे सकता था तो वह मार्क्सवाद ही था। जब शरीर की जरूरतें बड़ी हो जाती हैं तब धर्म, आध्यात्मिकता मात्र शब्द भर रह जाते हैं। व्यक्ति का इन पर से विश्वास उठ जाता है। यही उस समय भी हुआ।
भारत में भी यही स्थिति थी। भारत में चारों ओर गरीबी, भुखमरी, अकाल व भयानक शोषण व्याप्त था। ऐसी स्थिति में लोगों का मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित होना बहुत हद तक जायज था। किन्तु भारत एक आध्यात्मिक देश है। भारत शब्द का तो अर्थ ही है अध्यात्म में लीन रहनेवाला। शरीर की जरूरतें कुछ समय तक के लिए तो बड़ी लग सकती हैं किन्तु हमेशा ही बड़ी रहेंगी यह भारत में संभव नहीं है। ब्रिटिश शासन का दौर गुजरा और हम स्वतंत्र हुए। किन्तु उस दौर के मार्क्सवादी झंडाबरदारों का वर्ग संघर्ष आज तक समाप्त नहीं हुआ। आज भी मार्क्सवादी अवशेष बात-बात में अपनी प्रासंगिकता जाहिर करने की कोशिश करते हैं। सामाजिक समानता की आड़ में सत्ता तक पहुँचने के प्रयास में लगे हैं।
दरअसल मार्क्सवाद का सामाजिक समानता से भी कोई लेना-देना नहीं है बल्कि सत्ता प्राप्ति ही इसका अंतिम ध्येय है। इसके लिए यह दर्शन रोटी, कपड़े, और मकान की आड़ में सामाजिक समानता की बात करता हुआ व्यक्ति के सामने आता है। इस रूप में आकर यह आर्थिक रूप से जूझते व्यक्ति को तत्काल ही आकर्षित करता है। जिन दिनों रूस और चीन में मार्क्सवाद जड़ें जमा रहा था उन दिनों भी सामाजिक समानता कहीं नहीं थी। समाज निरकुंश शासक और शोषित प्रजा के बीच बंटा हुआ था।
स्वयं जिन देशों में मार्क्सवाद आया मसलन रूस और चीन उन देशों में भी यह विचारधारा अब शेष नहीं बची है। सामाजिक समानता की आड़ में मार्क्सवाद इन देशों में व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता को निगल गया। रूस में बर्बर स्टालिन के शासनकाल में हजारों-लाखों लोग मौत के घाट उतार दिये गए। चीन में माओ-त्से तुंग के समय बेगुनाह लोग गाजर-मूली की तरह बेहिचक काट दिये गये। क्यों? दो कारणों से। पहला, क्योंकि शरीर पदार्थ भर है, आत्मा नाम का कोई तत्व उसमें नहीं होता। जब शरीर केवल पदार्थ है तो उसे मारने-काटने में कोई हिचक कैसी। स्टालिन और माओ केवल इसी कारण इतने बड़े पैमाने पर निर्दयतापूर्वक मार-काट कर सके। हजारों-लाखों की हत्या के बाद भी उन्हें किसी प्रकार की कोई ग्लानि नहीं हुई।
दूसरा, रूस और चीन में जनता के बहुत बड़े वर्ग ने स्टालिन और माओ के अनुसार जीने से मना कर दिया। व्यक्ति की स्वतंत्रता का मार्क्सवाद में कोई स्थान नहीं है। शासन अपने आप को समाज उद्वारक मशीनरी के रूप में प्रोजक्ट करता है। समाज उद्वार की इस प्रक्रिया में जो भी बाधा बनता है, उसे शासन केवल और केवल मौत के घाट उतार देता है। शासन के विपरीत विचार रखना भर ही मार्क्सवाद में गुनाह है।
वर्तमान में भी मार्क्सवाद निरंकुश सत्ता के अपने एजेंडे पर कायम है। भारत में ही, केरल और पश्चिम बंगाल जहां मार्क्सवादी सरकारें है, इनकी निरंकुश कार्यप्रणाली को देखा जा सकता है। केरल के कन्नूर इलाके में कम्यूनिस्टों द्वारा बड़ी निर्दयता से संघ के कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतार दिया गया। पश्चिम बंगाल में नन्दीग्राम का सरकारी नरसंहार तो गुजरात के दंगों को भी बौना सिद्व कर गया। गुजरात के दंगों पर माडिया कम से कम आज तक किसी की आलोचना तो कर रहा है। गुजरात के मामले में कम से कम जांच कमीशन तो बिठाए गए। लेकिन नन्दीग्राम के मुद्दे पर क्या मजाल माडिया की कि कोई स्टिंग ऑपरेशन हो जाए। क्या मजाल किसी की कि कोई जांच कमीशन बैठाए। केन्द्र सरकार तो उस समय टिकी ही माक्र्सवादियों के दम पर थी। क्या मजाल थी नन्दीग्राम के लोगों की कि वह सरकार की इच्छा का विरोध करें। शासन की इच्छा के विपरीत जाने की मार्क्सवाद में इजाज़त नहीं है। जनता की कोई स्वतंत्रता नहीं है। जनता को केवल रोटी, कपड़ा और मकान देकर, लेकर और फिर देकर के खेल में उलझाए रखो। सामाजिक समानता और वर्ग संघर्ष का खेल खेलकर जनता को मूर्ख बनाए जाओ और सत्ता की जोड़-तोड़ में लगे रहो।
भारत एक लोकतांत्रिक राज्य है। यहां सभी प्रकार के विचारों को पनपने की छूट है। केवल इसीलिए भारत के दो राज्यों में मार्क्सवादी सरकारें हैं। किसी मार्क्सवादी राज्य में आपको लोकतांत्रिक सरकारें नहीं मिलेंगी। लोकतंत्र में मार्क्सवाद पनप सकता है किन्तु मार्क्सवाद में लोकतंत्र नहीं।
यहां विषय मार्क्सवाद की केवल राजनीति आलोचना तक ही सीमित हो गया है, थोड़ा आगे बढ़ते हैं। क्या आपने अपने आसपास कभी किसी मार्क्सवादी को विकसित होते देखा है। जरा विश्वविद्यालय कैंपस के किसी मार्क्सवादी का हुलिया याद कीजिए। फटे जूते, हजारों सलवटें पड़ा कुर्ता, लंबे बाल, लंबी दाढ़ी, मुँह में सिगरेट, हाथ में चाय। यह विकृत स्थिति इसलिए क्योंकि शरीर को केवल एक पदार्थ भर मान रखा है। किन्तु शरीर केवल पदार्थ नहीं है। मस्तिष्क की प्राकृतिक अवस्था और उसमें ज़बर्दस्ती अप्राकृतिक रूप से ठुँसाए गए मार्क्सवादी विचारों के संघर्ष का परिणाम ही यह विकृत स्थिति है। अब यह नही कहा जा सकता कि व्यक्ति की गरीबी इस विकृत अवस्था की जिम्मेदार है। विश्वविद्यालय कैंपस में अच्छे-भले घरों से आने वाले भी इसी हालत में देखे जा सकते हैं। जब दर्शन ही विकृत है तो उसकी भौतिक उपस्थिति भी विकृत ही होगी। इसी संबंध में एक बात और। जब शरीर एक पदार्थ भर है तो पूरा ध्यान उसकी दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर ही होना चाहिए। अत: मार्क्सवादियों में यौन शुचिता बेहद दुर्लभ है।
मार्क्सवादी दर्शन सूक्ष्म तत्व को देखने और पकड़ने में असफल रहा है। किसी मस्तिष्क को यदि काट दिया जाए तो वहां विचार नाम की कोई वस्तु नहीं दिखेगी। किसी हृदय को यदि चीर दिया जाए तो वहां प्रेम नाम की कोई वस्तु नहीं मिलेगी। किन्तु इस कारण यह नहीं माना जा सकता कि विचार या प्रेम होते ही नहीं है। दरअसल मार्क्सवाद व्यक्ति को भौतिक आवश्यकताओं तक ही सीमित कर देता है। व्यक्ति केवल रोटी, कपड़ा और मकान के लिए ही जीने वाला पशु भर रह जाता है। इस अर्थ में मार्क्सवाद एक दरिद्र व्यक्ति का दर्शन तो हो सकता किन्तु आध्यात्मिक उन्नति में प्रयासरत या दूसरे अर्थों में एक भारतीय का दर्शन कभी नहीं हो सकता। भारतीय दर्शन शरीर के आगे आत्मा और आत्मा के बाद मोक्ष तक जाने वाला दर्शन है। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)
5 comments:
तुम्हारे जैसे नेकरिया राष्ट्रवादियों की जब बूढ़े संघी फाड़ते है किशोरावस्था में, तो इसी तरह बुलबुलाते हो.
केवल भारतीय दर्शन के विरूध ही नहीं, यह पूरी तरह से बुद्धि-विरुद्ध प्रोपेगैण्डा है। इसमें तार्किक त्रुटियों की भरमार है। इसीलिये यह बुल्बुले की तरह पचास-साठ वर्ष के अन्दर ही फूट गया।
इस anonymous पोस्ट देने वाले की अपनी इतनी फटी पड़ी है कि अपना नाम तक बताने की हिम्मत नही कर पा रहा........ क्यो बे बाप का नाम नही मालूम क्या ??
कमीनीस्टों की यही पहचान है जब मजबूत होंगे मार-काट मचायेंगे जब कमजोर होंगे गाली-गलौज करेंगे। सकारात्मक बहस से दूर भागेंगे। खासकर, इन दिनों तो वो पगला गये हैं। देश भर में भाजपा के पक्ष में लहर जो चल रहा हैं। जब बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ तो बहुत से कम्युनिस्टों ने आत्महत्या कर लिया। अब चारों में भाजपा की वापसी सुनिश्चित हैं यह देखकर तो कमीनीस्टों के होश उडने स्वाभाविक ही हैं।
आपने बहुत सार्थक विश्लषण किया है.
आज कल का साम्यवाद ईश्वर विरोधी है. गीतोक्त साम्यवाद सर्वत्र ईश्वर को देखता है.
और भी गहरे अन्तर हैं दोनों में:
आज कल का साम्यवाद - धर्म का नाशक है, हिंसामय है, स्वार्थमूलक है, इस में अपने दल का अभिमान है और दूसरों का अनादर है, इस में परधन और परमत से असहिस्णुता है. इस में बाहरी व्यवहार की प्रधानता है, यह खान-पान-स्पर्शादि में एकता रख कर आंतरिक भेद-भावः रखता है, इसमें भौतिक सुख मुख्य है, इसमें राग-द्वेष है, इस का लक्ष्य केवल धनोपासना है.
गीतोक्त साम्यवाद पद-पद पर धर्म की पुष्टि करता है, अहिंसा का प्रतिपादक है, यह स्वार्थ को समीप भी नहीं आने देता, यह खान-पान-स्पर्शादि में शास्त्र मर्यादानुसार यथायोग्य भेद रख कर भी आंतरिक भेद नहीं रखता और सब में आत्मा को अभिन्न देखने की शिक्षा देता है, इसका लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति है, इस में सर्वदा अभिमान्शून्यता है और सारे जगत में परमात्मा को देख कर सब का सम्मान करना है, इसमें अंतःकरण के भाव की प्रधानता है, इसमें आध्यात्मिक सुख मुख्य है, इसमें सब का सम्मान आदर है, इसमें राग-द्वेषरहित व्यवहार है.
इन सब पर विचार करके बुद्धिमान व्यक्तियों को गीतोक्त साम्यवाद का ही आदर और व्यवहार करना चाहिए.
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