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Wednesday, 26 November 2008

मार्क्सवाद तथा मुस्लिम

लेखक- डा. सतीश चन्द्र मित्तल

मार्क्सवाद तथा इस्लाम कभी एक-दूसरे के सहचर नहीं हो सकते।
सोवियत रूस की भांति मार्क्सवादी चीन ने भी नरसंहार में कोई कमी न रखी। एक करोड़ से भी अधिक मुसलमानों पर कहर ढहाना प्रारम्भ किया। चीन में यह ज्वलंत प्रश्न सदैव बना रहा है कि आखिर चीन में मुसलमान कहां गायब हो गए? एक प्रसिध्द लेखक असा बाफीगीह ने जकार्ता से प्रकाशित 'ग्रीन फ्लैग' (अप्रैल, 1956) में लिखा, 'चीन में रहने वाले लाखों मुसलमानों का क्या हुआ? क्या ये फारमोसा भाग गए या अब कम्युनिस्ट बन गए? वह केवल दो संभावनाएं मानता है-या तो उन्हें मार दिया गया या वे भूमिगत हो गए। रफीक खां ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक 'इस्लाम इन चायना' में इसका विस्तृत वर्णन किया है। मुसलमानों के साथ अमानुषिक अत्याचार किए गए। सम्पूर्ण उत्तर पश्चिम प्रांतों में सैनिकों को भेजकर उनका नरसंहार हुआ। उन्हें श्रमिक शिविरों में भेजा गया। उनके वक्फ बोर्ड खत्म कर दिए। अरबी लिपि बन्द कर दी गई। मुस्लिम लड़कियों की शादी हान-चीनियों से, जिनसे मुसलमान पहले ही घृणा करते थे, की गई। कई हजार मुस्लिम कश्मीर भाग गए। चीन में 16,600 मस्जिदों में से अधिकतर नष्ट कर दी गईं।
साम्यवादी देश मार्क्स को मानते हैं, न कि मस्जिदों या मीनारों को। इस्लाम सोवियत संघ तथा चीन में लम्बे समय तक झगड़े की जड़ रहा है।

कुरान, हदीस, शरीयत आदि जिहाद की भावना को ही पुष्ट करते हैं। वे सामान्य मुस्लिम भाईचारे में विश्वास करते हैं, न कि मानवीय भ्रातृत्व में।

इसके विपरीत मार्क्स तथा एंजिल ने अपने विविध ग्रंथों तथा लेखों में धर्म को 'एक भद्दा प्रत्यक्षीकरण' 'अफीम की पुड़िया' तथा 'मायावी सुख' बताया है। वे धार्मिक चमत्कारों से युक्त सामग्री तथा धार्मिक पूजा के आवश्यक तत्वों को नष्ट करना अनिवार्य मानते हैं। वे ईसाइयत के कार्य को धोखाधड़ी से जोड़ते हैं। लेनिन ने धर्म को 'आध्यात्मिक शोषण' का हथियार माना है। उसने उद्धोष किया-धर्म का अन्त करो, नास्तिकता अमर रहे।

धर्म के सन्दर्भ में कार्ल मार्क्स तथा लेनिन के विचारों को साम्यवादी रूस तथा चीन ने व्यावहारिक स्वरूप देने का प्रयत्न किया।

स्टालिन के नेतृत्व में पड़ोसी मुस्लिम राज्यों को हड़प लिया गया तथा सोवियत साम्राज्यवाद का अंग बना लिया। उन्हें 'जनता का दुश्मन', उनके कार्यों को 'सोवियत विरोधी' कहा गया। उद्धोष किया 'मीनारें या मस्जिदें नहीं मार्क्स चाहिए।' पोकरोवस्काई ने इस्लाम को 'अरब सौदागरों' द्वारा पूंजीवाद की कृति बताया। रोशीकोव ने इसे सामान्तवाद की सफलता बताया। कीलाविच ने इसे एक विज्ञान विरोधी प्रतिक्रियावादी विश्व का विचार बताया। इन विचारकों ने मक्का की यात्रा की और अरब सौदागरों तथा सामन्तों की आय का साधन बताया।

इसका परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम समुदाय पर मुसीबतों का पहाड़ टूट गया। हजारों मस्जिदें ढहा दी गईं। एक प्रसिध्द मुस्लिम मुफ्ती जियाउद्दीन-इब्न-इसान के अनुसार मध्य एशिया क्षेत्र में जहां पहले 25,000 मस्जिदें थीं, केवल एक हजार रह गईं। अनेक मुस्लिम मजहबी स्थलों में ताले डाल दिए गए। उन्हें शीघ्र ही स्नानघरों, जेलखानों, होटलों तथा नास्तिकों के संग्रहालयों में परिवर्तित कर दिया गया। अनेक मजहबी त्योहार बन्द कर दिए गए। इदुलजुहा, रमजान, मुहर्रम तथा खतने की प्रथा बन्द कर दी गई। मुसलमानों को उनके कानूनों, मदरसों तथा शरियत की अदालतों से वंचित कर दिया गया। उन्हें परम्परागत लोकगीत के स्थान पर रूसी तराने गाने को मजबूर किया। परम्परागत चायघर (चयानास) बन्द कर रूसी शराब 'बोदका' पीने तथा बेचने को मजबूर किया। सचाई यह है कि लाखों मुसलमानों ने रातोंरात परिवर्तित हो 'प्रगतिशील कम्युनिस्ट' कहकर जान बचाई।

सोवियत रूस की भांति मार्क्सवादी चीन ने भी नरसंहार में कोई कमी न रखी। एक करोड़ से भी अधिक मुसलमानों पर कहर ढहाना प्रारम्भ किया। चीन में यह ज्वलंत प्रश्न सदैव बना रहा है कि आखिर चीन में मुसलमान कहां गायब हो गए? एक प्रसिध्द लेखक असा बाफीगीह ने जकार्ता से प्रकाशित 'ग्रीन फ्लैग' (अप्रैल, 1956) में लिखा, 'चीन में रहने वाले लाखों मुसलमानों का क्या हुआ? क्या ये फारमोसा भाग गए या अब कम्युनिस्ट बन गए? वह केवल दो संभावनाएं मानता है-या तो उन्हें मार दिया गया या वे भूमिगत हो गए। रफीक खां ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक 'इस्लाम इन चायना' में इसका विस्तृत वर्णन किया है। मुसलमानों के साथ अमानुषिक अत्याचार किए गए। सम्पूर्ण उत्तर पश्चिम प्रांतों में सैनिकों को भेजकर उनका नरसंहार हुआ। उन्हें श्रमिक शिविरों में भेजा गया। उनके वक्फ बोर्ड खत्म कर दिए। अरबी लिपि बन्द कर दी गई। मुस्लिम लड़कियों की शादी हान-चीनियों से, जिनसे मुसलमान पहले ही घृणा करते थे, की गई। कई हजार मुस्लिम कश्मीर भाग गए। चीन में 16,600 मस्जिदों में से अधिकतर नष्ट कर दी गईं। मार्क्स के लिए भारत में ब्रिटिश शासन होने के कारण रूस तथा चीन की भांति कोई आधार न था। मार्क्सवाद भारत में एक विदेशी जंगली पौधे के रूप में रोपा गया। यहां इसका आधार कुछ मुजाहिद तथा खलीफा आन्दोलन से प्रभावित कुछ मुसलमान बने। ताशकन्द से भारतीय साम्यवादी पार्टी का जन्म हुआ। मुहम्मद शफीक इसके पहले सचिव बने।

भारत में साम्यवादी नेतृत्व प्रारम्भ से ही हिन्दू चिंतन के विरोध से अलग न रह सका। उनकी धार्मिक नीति नास्तिकता की ओर बढ़ने की बजाय सामान्यत: मुस्लिम तुष्टीकरण तथा हिन्दू-मुस्लिम विरोध पैदा करने की रही। इसीलिए वे व्यावहारिक राजनीति में कभी कांग्रेस का विरोध, कभी कांग्रेस में योजनापूर्वक घुसपैठ की कोशिशें करते रहे। अनेक बार उनका मुस्लिम तुष्टीकरण कांग्रेस की सीमाएं भी पार कर गया। सामान्यत: राष्ट्रीय आन्दोलनों में उनकी भूमिका नकरात्मक रही।

यह सर्वविदित है कि पाकिस्तान के निर्माण में भारतीय मार्क्सवादियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग की घोषणा के बाद सितम्बर, 1942 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने एक प्रस्ताव पारित किया कि भारत विविधताओं से भरा एक देश है। यहां प्रत्येक को आत्मनिर्णय का अधिकार है। उन्होंने भारत को एक राष्ट्र नहीं माना बल्कि पाकिस्तान का खुला समर्थन किया। कश्मीर के बारे में उनकी नीति मुस्लिम समर्थक रही। भारत पर पाकिस्तानी या चीनी आक्रमण के बारे में उनकी प्रतिक्रिया जग जाहिर है।

भारतीय मार्क्सवादियों का मुस्लिम प्रेम बड़ी बेशर्मी से स्पष्ट दिखाई देता है। केरल में मुस्लिम लीग से समझौता, मल्लापुरम जिले का निर्माण उसके उदाहरण हैं। नम्बूदिरीपाद का कथन है कि अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता से कम खतरनाक है। इसीलिए बंगाल की पाठय पुस्तकों में रटाया जा रहा है कि हिन्दू सबसे घटिया है। मुसलमान प्रगतिशील तथा रूस की 1917 की क्रांति सर्वश्रेष्ठ है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है जहां मार्क्सवादी चिंतन रूस तथा चीन में मुसलमानों का कटु विरोधी रहा, वहां भारत में यह कभी भी हिन्दू हितैषी नहीं रहा। हिन्दू-मुस्लिम विभेद कर इसने भारत में अलगाव को बढ़ावा दिया।

1 comment:

Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak " said...

मुसलमान-कम्युनिष्ट हैं, लंकापति-घटकर्ण.
दोनो दुश्मन राम के,करते सुख का हरण.
करते सुख का हरण,एक हिंसक एक झूठा.
धोखा देने में माहिर, दिख्लायें अंगूठा.
कह साधक है इन्डिया, इन दोनों का ईष्ट.
कुम्भकर्ण और रावण हैं, मुसलमान-कम्युनिष्ट.