हितचिन्‍तक- लोकतंत्र एवं राष्‍ट्रवाद की रक्षा में। आपका हार्दिक अभिनन्‍दन है। राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता - आए जिस-जिस में हिम्मत हो

Wednesday 24 October, 2007

जब कम्युनिस्ट फासिस्ट होते है तो पुराने जमाने के फासिस्ट भी लजा जाते हैं:महाश्वेता देवी

सिंगुर की ही जमीन चाहिए, ऐसी कोई बात रतन टाटा ने नहीं कही थी। टाटा भारत के अन्यतम बड़े उद्योगपति हैं। उनके लिए छोटी कार के कारखाने के लिए सिंगूर की बहुफसली जमीन की मांग ही गलत होती। इसलिए उन्होंने वह जमीन नहीं चाही। चाही थी मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य ने। मुख्यमंत्री के मन में क्या था, कहना कठिन है। तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने अनशन किया, आंदोलन पर आंदोलन किए जा रही है, मेधा पाटेकर विरोध किए जा रही हैं उधर बुध्ददेव की पुलिस असामान्य आचरण कर रही है। आंदोलनकारियों पर ही नहीं, पत्रकारों-छायाकारों की भी बेधड़क पिटाई हो रही है। माकपा के राज्य में सब कुछ किया जा सकता है। मैं चाहती हूं, देश के सामने माकपा का मुखौटा खुल जाए। आम जनता, छात्र, महिला संगठन, दलित-आप सब बुध्ददेव और विमान बसु का मुखौटा नहीं मुख देखिए। वे कितना सफेद धोती ऑर पंजाबी कुर्ता पहने हुए हैं पर असली मुंह कितना भयानक है। सिर्फ मेधा पाटेकर और ममता के विरूध्द ही नहीं, मेरे विरूध्द माकपा सरकार क्या कहेगी? इस सरकार ने मेरे आदिवासियों को क्या दिया है? विमान बसु आखिर अपनी शिक्षा परियोजना लेकर पुरुलिया क्यों गए? पुरुलिया और बांकुड़ा में वामराज के 30 वर्षों के शासन के बाद भी सड़कें क्यों नहीं है? बिजली वहां क्यों नहीं पहुंची? पीने और सिचाई के पानी का प्रबंध क्यों नहीं हुआ? गरीबों के लिए भोजन व आवास का प्रबंध क्यों नहीं हुआ? लोधा और खेड़िया शबरों की हत्या क्यों नहीं बंद हो रही है?

माकपा के नेता, पार्टी कैडर, घृणित चमचे यह जानकर दुखी होंगे कि मैं और अन्य कई लोग आज भी बाहर रह गए हैं। सोचकर भी कष्ट होगा। शांति निकेतन में जब जन सुनवाई चल रही थी तो माकपा के ही मानस पुत्र चिल्ला कर कह रहे थे-'महाश्वेता देवी का तो शांति निकेतन में बड़ा महल है, उनकी बात हम नहीं सुन रहे हैं, नहीं सुनेंगे।'

हमारा वहां कोई महल नहीं। मुख्यमंत्री को पता होना चाहिए कि मैं मनीष घटक की बेटी हूं, विजन भट्टाचार्य की पूर्व पत्नी, ऋत्विक घटक की भतीजी-हमारा परिवार खरीद-फरोख्त से बाहर रह गया है। क्या सौभाग्य है कि इतिहास ने हमें और हमारे परिवार को सही राह पर चलना ही सिखाया था।

सटीक राह बंधुत्व की होती है, पांव रक्तरंजित होता है। क्या माकपा नेता इसे कभी जानते थे? अब भूल गए हैं। यदि नहीं भूले होते तो सिंगूर के लोगों के चेहरे का सटीक तथ्य पढ़ लिए होते। सिंगूर की जमीन जबरन अधिग्रहीत करने के विरोध में उस इलाके में जो लोग आंदोलनरत थे, उनमें एक प्रमुख नाम तापसी मालिक का भी था। उसने अनशन भी किया था। दिन भर भूखे रहने के बाद रात को खाना खाया और सो गई, किन्तु सूर्योदय नहीं देख पाई। वह जब तड़के नित्य कर्म करने मैदान गई, तो उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और उसके बाद उसके शरीर पर कैरोसिन तेल छिड़ककर उसे जला कर मार डाला गया। ध्यान देने योग्य है कि सिंगुर के जिस बाजमेलिया गांव में यह हादसा हुआ, वहां पुलिस तैनात है। पुलिस के अलावा रात्रि प्रहरी भी थे। चूंकि शुरू से ही तापसी अधिग्रहण के विरोध में आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी, इसलिए माकपा के स्थानीय कैडरों के वह निशाने पर थी।

लगातार 30 वर्षों तक शासन में रहने के बाद वाममोर्चा के अधोपतन का ये हाल है। राज्य सरकार का यह कौन-सा मूल्यबोध है। मरी है तापसी मालिक, वह हेतेल पारेख तो नहीं है। तापसी के बलात्कारियों-हत्यारों को फांसी चाहिए, किसी ने नहीं कहा। क्या वाम नेताओं के घर लड़कियां नहीं है? अपनी बेटियों में उन्हें तापसी का चेहरा देखने का विवेक नहीं है? वामदलों के महिला संगठनों भी सामने नहीं आए। जो मीरा भट्टाचार्य (मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य की पत्नी) हेतेल पारेख के बलात्कारी व हत्यारे धनंजय चटर्जी को फांसी देने की मांग चीख-चीख कर करती थीं, उन्होंने भी तापसी के मामले में कुछ नहीं कहा। क्या सिल्क की दामी साड़ी पहनकर संसद या विधानसभा या जनसभा या सेमिनार में चेहरा दिखाने भर से कर्तव्य पूरा हो जाता है?

सोचना चाहती हूं कि रतन टाटा ने सिंगूर की जमीन चाही थी। पर सिंगूर उन्होंने नहीं चाही थी। सिंगूर चाही थी माकपा ने। उन्होंने ही कहा था-सिंगूर ही चाहिए। किन्तु मुझे विश्वास है कि रतन टाटा ने वह जमीन नहीं चाही थी। टाटा समूह को यह नहीं पता था कि उस जमीन पर कई हजार किसान, बर्गादार, खेत मजदूर निर्भरशील हैं फिर उनके पेट पर उन्होंने क्यों लात मारी। सिंगूर को लकड़ी की हांडी पर क्यों चढ़ाया गया? क्या इसलिए कि उस इलाके से माकपा नहीं जीतती? इसलिए कि वहां के विधायक और पंचायत प्रधान सभी तृणमूल कांग्रेस के है?

रतन टाटा को गुजरात सरकार का एक प्रसंग बताना चाहती हूं। गुजरात सरकार के पास 60 हेक्टेयर जमीन थी। वहां के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा कर रखी थी कि वह जमीन वे उद्यांगपतियों को देंगे किन्तु राज्य के तमाम गैर-सरकारी जनसंगठनों ने उसका तीव्र प्रतिवाद किया तो मोदी पीछे हट गए। वह जमीन भूमिहीनों को दी जा रही है। सुना कि उसका मूल्य दे कर ले रहे है। इस राज्य में यह सब खबर अखबारों में क्यों नहीं छपती?

प्रधानमंत्री भी बंगाल आकर मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य की औद्योगिक लाइन को हरी झंडी दिखाकर चले गए। क्या करेंगे, दिल्ली में उनकी सरकार वामपंथियों के समर्थन पर ही टिकी है। प्रधानमंत्री द्वारा पीठ ठोंके जाने के बाद मुख्यमंत्री अपनी लाइन चलाते जाएंगे। रुपए के साथ इस खेल का ही नाम वैश्वीकरण है और यह खेल कम्युनिस्ट कर रहे हैं। कहना न होना कि ये कम्युनिस्ट फासिस्ट हो गए हैं। जब कम्युनिस्ट फासिस्ट होते है, तो उनका फासिज्म देखकर पुराने जमाने के फासिस्ट भी लजा जाते हैं। (साभार-वर्तिका त्रैमासिक पत्रिका, हिन्दी रूपान्तर : रंजू सिंह)

No comments: