भारतीय जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष पं. दीनदयाल उपाध्याय मूलत: एक चिंतक, सृजनशील विचारक, प्रभावी लेखक और कुशल संगठनकर्ता थे। वे भारतीय राजनीतिक चिंतन में एक नए विकल्प 'एकात्म मानववाद' के मंत्रद्रष्टा थे। प्रस्तुत है उनकी बहुचर्चित पुस्तक राष्ट्रजीवन की दिशा से उद्धत विचार-
राष्ट्र कार्य - धर्म कार्य
राष्ट्र के लिए काम करना धर्म है। राष्ट्र-कार्य को साधने के लिए जो कुछ आ पड़े करना ही उचित है। सच, झूठ सबकी कसौटी समष्टि का हित है। प्रश्न है कि राष्ट्र का, समष्टि का विचार कर कार्य किया गया है या नहीं? जैसे किसी की हत्या करना पाप है किन्तु युध्द में लड़ने वाले सैनिक को कोई हत्यारा नहीं कहता। शत्रु पर वार करना सैनिक का धर्म है। युध्द में सैनिक रोज हिंसा करता है, उसे परमवीर चक्र देकर हम सम्मानित करते हैं। क्योंकि इस कार्य में वह व्यक्तिवादी ढंग से नहीं सोच रहा। राष्ट्र का विचार कर उसने आचरण किया है। यही आचरण यदि व्यक्ति जीवन में कोई करे तो उसे फांसी की सजा होगी किन्तु युध्द में शत्रु का विनाश करना राष्ट्र-रक्षा का पुनीत कर्तव्य बन जाता है। (राष्ट्र जीवन की दिशा -दीनदयाल उपाध्याय, पृष्ठ - 29)
देशभक्त की भावना
'प्रत्येक देशभक्त व्यक्ति की ऐसी इच्छा होना स्वाभाविक ही है कि अपना देश वैभवशाली बने। राष्ट्र सुखी, सम्पन्न हो। राष्ट्रीय उत्पादन बढ़े। बेकारी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशांति का अन्त हो। न्याय सुलभ हो। आपसी झगड़े समाप्त हों, साम्प्रदायिक, क्षेत्रीय, भाषायी संकुचितताओं से ऊपर उठकर लोगों के सोचने, विचारने का तरीका हो। दलीय अभिनिवेशों से नेतागण मुक्त हों। भारत अपने राष्ट्रीय स्वरूप में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, शैक्षणिक सभी प्रकार के क्षेत्रों में लोक कल्याणकारी सिध्द हो। जिसमें ऐसी इच्छा निर्माण नहीं होती हो उसे भारतीय तो क्या मानव कहना भी कठिन है। स्व. मैथिलीशरण जी गुप्त के शब्दों में कहना हो तो 'जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है, वह नर नहीं, नरपशु निरा है और मृतक समान है।' अपने देश को गौरवशाली देखने की इच्छा प्रत्येक जीवन्त भारतीय के हृदय में उठना स्वाभाविक है। (राष्ट्र जीवन की दिशा-पं. दीनदयाल उपाध्याय, पृष्ठ-23)
राष्ट्र के लिए काम करना धर्म है। राष्ट्र-कार्य को साधने के लिए जो कुछ आ पड़े करना ही उचित है। सच, झूठ सबकी कसौटी समष्टि का हित है। प्रश्न है कि राष्ट्र का, समष्टि का विचार कर कार्य किया गया है या नहीं? जैसे किसी की हत्या करना पाप है किन्तु युध्द में लड़ने वाले सैनिक को कोई हत्यारा नहीं कहता। शत्रु पर वार करना सैनिक का धर्म है। युध्द में सैनिक रोज हिंसा करता है, उसे परमवीर चक्र देकर हम सम्मानित करते हैं। क्योंकि इस कार्य में वह व्यक्तिवादी ढंग से नहीं सोच रहा। राष्ट्र का विचार कर उसने आचरण किया है। यही आचरण यदि व्यक्ति जीवन में कोई करे तो उसे फांसी की सजा होगी किन्तु युध्द में शत्रु का विनाश करना राष्ट्र-रक्षा का पुनीत कर्तव्य बन जाता है। (राष्ट्र जीवन की दिशा -दीनदयाल उपाध्याय, पृष्ठ - 29)
देशभक्त की भावना
'प्रत्येक देशभक्त व्यक्ति की ऐसी इच्छा होना स्वाभाविक ही है कि अपना देश वैभवशाली बने। राष्ट्र सुखी, सम्पन्न हो। राष्ट्रीय उत्पादन बढ़े। बेकारी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशांति का अन्त हो। न्याय सुलभ हो। आपसी झगड़े समाप्त हों, साम्प्रदायिक, क्षेत्रीय, भाषायी संकुचितताओं से ऊपर उठकर लोगों के सोचने, विचारने का तरीका हो। दलीय अभिनिवेशों से नेतागण मुक्त हों। भारत अपने राष्ट्रीय स्वरूप में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, शैक्षणिक सभी प्रकार के क्षेत्रों में लोक कल्याणकारी सिध्द हो। जिसमें ऐसी इच्छा निर्माण नहीं होती हो उसे भारतीय तो क्या मानव कहना भी कठिन है। स्व. मैथिलीशरण जी गुप्त के शब्दों में कहना हो तो 'जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है, वह नर नहीं, नरपशु निरा है और मृतक समान है।' अपने देश को गौरवशाली देखने की इच्छा प्रत्येक जीवन्त भारतीय के हृदय में उठना स्वाभाविक है। (राष्ट्र जीवन की दिशा-पं. दीनदयाल उपाध्याय, पृष्ठ-23)
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