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Thursday, 4 October 2007

राम के नाम पर

लेखक-हरिकृष्ण निगम

13 सितंबर 2007 की सुबह और बाद तक देश में सर्वाधिक बिक्री का दावा करने वाले कुछ अंग्रेजी समाचार पत्रों के मुखपृष्ठ पर यही शीर्षक था- रामायण का कोई आधार नहीं। न राम थे। न रामायण, न ही रामसेतु मानव निर्मित था। तुगलकी सत्तारूढ़ सरकार का फरमान जारी हो गया। फिर एक फतवा जारी हुआ- सर्वोच्च न्यायालय में रामसेतु प्रकरण की याचिका में से वे सभी अंश निकाले जाएंगे जो राम और रामायण के दूसरे आराध्य चरित्रों को नकारते हैं। यह सोनिया गांधी द्वारा सरकार को निर्देश था।

हिंदुओं की भावनाओं को आह्त करने का पुराना खेल जब अनियंत्रित हो जाए तो खेल के नियमों में परिवर्तन अपेक्षित है। देश में उठने वाले तूफान से बचने का यही रास्ता था। कांग्रेस द्वारा मारी गई पलटी ने उसकी रणनीति की पोल खोल दी।

आज हमारे देश का भ्रष्ट और विकृत राजनीतिक माहौल विश्व की अनोखी चीज़ बन रहा है। प्रजातांत्रिक ढांचे और अभिव्यक्ति की एकपक्षीय स्वतंत्रता के नाम पर हर खेमे का छोटा-बड़ा राजनीतिबाज कभी इतिहासकार की भूमिका अदा करता है, कभी पुरातत्वविद बन जाता है, कभी भाषा शास्त्री, कभी मानचित्रों का विश्लेषक और कभी वैज्ञानिक दृष्टि मुक्त अन्वेषक भी। चाहे वे पूरी तरह शिक्षित न भी हों पर उनका मुँह खुलते ही ज्ञान के मोती झरते हैं जो हिन्दू विरोधी मीडिया के लिए वरदान बन जाते हैं।

क्या यह तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि दूसरे धर्मों के विश्वासों, उनके धर्मग्रंथों की दंतकथाओं, आख्यानों, विश्वासों पर भी लागू होती है या उसी तरह ली जाती है जैसे वे हमारी आस्था की शव परीक्षा करने को लालायित रहते हैं? सारी शरारत, दुराग्रहों, पूर्वग्रहों, नादानी, लापरवाही या विषबमन की जड़ में यही मूल बात है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल किए गए शपथ पत्र में यही प्रश्न बार-बार उठाया गया है कि कोई ऐतिहासिक व वैज्ञानिक साक्ष्य नही है जो राम का अस्तित्व सिध्द करें। यदि इस तरह की शब्दावली किसी दूसरे धर्म के विरूध्द विश्व के किसी भी कोने में प्रयुक्त की गई होती या किसी के द्वारा उद्धृत भी की गई होती तो इसके ज्वलनशील व विस्फोटक परिणामों का, अनुभव के आधार पर, अंदाज लगना मुश्किल नहीं है।

क्या 1947 और 1956 के बीच इज़रायल नियंत्रित वेस्ट बैंक में डेड सी के उत्तरी-पश्चिम तट में स्थित कुमरान क्षेत्र में अत्यंत प्राचीन 'डेड सी स्क्रौल' की खोज और विश्वविख्यात पुरातत्वविदों द्वारा उनके समय को सत्यापित किए जाने के बाद ईसामसीह के अस्तित्व व कालक्रम पर ही प्रश्न चिन्ह नहीं लगे थे? क्या टीवी परिचर्चाओं में वैज्ञानिक दृष्टि की दुहाई देकर उनमें से एक भी इसे कहने का साहस कर सकता है? फिलिस्तीन के रेगिस्तान में अत्यंत प्राचीन यहूदी संप्रदाय के अवशेषों में ईसामसीह के जन्म के बहुत पहले बाईबिल वर्णित संदर्भों व शिक्षाओं में साम्यता मिली हैं। यह स्थल ईसा पूर्व 150 वर्ष का वैज्ञानिकों द्वारा सिध्द किया गया है।

कुमरान की गुफाओं में मिट्टी के पात्रों में 600 से अधिक पाण्डुलिपियों के अवशेष पाए गए हैं पर इसके द्वारा जो निष्कर्ष निकले हैं। वे वेटिकन के गले कभी नहीं उतरे। एक या दो सहस्राब्दी के पूर्व के इतर धर्मों के प्रतीक रूप से पुण्य व सम्मानित चिन्हों को जो चाहें अस्थि अवशेष हों, दांत हों या बाल अथवा मृत सुरक्षित शरीर क्या किसी का साहस है कि वह किसी वैज्ञानिक द्वारा सत्यापित कराने की मांग करे। करोड़ों लोगों की आस्था पर आघात करना हमारी परंपरा नहीं रही है पर हिन्दू धर्मानुयाइयों को आह्त करना एक पुरानी प्रथा है। हमारा सेकुलरवादी राजनीतिक ढांचा हमारे विश्वासों पर संशय प्रकट कर, समरसता खण्डित करने वाली आपराधिक प्रकृति की घृणा फैलाने को जुर्म नहीं मानता है- कम से कम आज की सत्तारूढ़ सरकार मात्र हिन्दू आस्था पर जहर बुझी टिप्पणियाँ स्वीकार हैं।

संशयपूर्ण, झूठे सच्चे और अवैज्ञानिक चमत्कारों के आधार पर यदि यश के इंद्रधनुषी रंगों के पीछे पुरातनपंथी, कट्टर कैथोलिक मदर टेरेसा को वेटिकन द्वारा जल्दबाजी में संत घोषित करने की ललक है अथवा 'बीटिफिकेशन'- पुण्यात्मवाचन की घोषणा कर उन्हें संतत्व प्रदान करना है तो इस देश के दिग्गज बुध्दिजीवियों को तथ्यों के वैज्ञानिक सत्यापन की जरूरत महसूस नहीं होती। चाहे आज कितना भी कहा जाए कि दानोग्राम (पश्चिमी बंगाल) की कोलकाता से 500 किलोमीटर दूर के कैंसर की रोगी महिला मानिका बेसरा को वह रोग कभी था ही नहीं पर उसी के चमत्कार से रोग मुक्त होने के प्रचार पर वेटिकन ने 'संत' की पदवी की प्रक्रिया तेज की थी जिसमें कभी-कभी कई दशक या शताब्दियों तक लग चुकी हैं। हमारे बुध्दिजीवी इस पर प्रश्न लिखने या टिप्पणी करने का साहस भी आज नहीं जुटा पा रहे हैं। रोमन कैथोलिक विश्वासों में धर्मांतरण की जिद गर्भपात के विरूध्द विषवमन करने का साहस नहीं जुटा पाए। श्वेत चमड़ी के आगे वे भयाक्रांत होकर आज भी नतमस्तक होने के आदि है । उनकी सक्रियता जब राम या रामायण का प्रश्न उठता है तब देखने को मिलती है। रामसेतु के तथ्य परक, सूचनापरक और दूसरे पक्षों से आज का मीडिया भरा है पर हमारे ढोंग और ढकोसलों की विषाक्त राजनति में कुछ प्रख्यात बुध्दिजीवियों, राजनीतिज्ञों व पत्रकारों के मुखौटों को उघाड़ना भी आज समय की मांग है।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

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