हितचिन्‍तक- लोकतंत्र एवं राष्‍ट्रवाद की रक्षा में। आपका हार्दिक अभिनन्‍दन है। राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता - आए जिस-जिस में हिम्मत हो

Tuesday 30 October, 2007

श्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविता


पहचान

पेड़ के ऊपर चढ़ा आदमी
ऊंचा दिखाई देता है।
जड़ में खड़ा आदमी
नीचा दिखाई देता है।

आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है,
न बड़ा होता है, न छोटा होता है।
आदमी सिर्फ आदमी होता है।

पता नहीं, इस सीधे-सपाट सत्य को
दुनिया क्यों नहीं जानती है?
और अगर जानती है,
तो मन से क्यों नहीं मानती

इससे फर्क नहीं पड़ता
कि आदमी कहां खड़ा है?

पथ पर या रथ पर?
तीर पर या प्राचीर पर?

फर्क इससे पड़ता है कि जहां खड़ा है,
या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है,
वहां उसका धरातल क्या है?

हिमालय की चोटी पर पहुंच,
एवरेस्ट-विजय की पताका फहरा,
कोई विजेता यदि ईर्ष्या से दग्ध
अपने साथी से विश्वासघात करे,

तो उसका क्या अपराध
इसलिए क्षम्य हो जाएगा कि
वह एवरेस्ट की ऊंचाई पर हुआ था?

नहीं, अपराध अपराध ही रहेगा,
हिमालय की सारी धवलता
उस कालिमा को नहीं ढ़क सकती।

कपड़ों की दुधिया सफेदी जैसे
मन की मलिनता को नहीं छिपा सकती।

किसी संत कवि ने कहा है कि
मनुष्य के ऊपर कोई नहीं होता,
मुझे लगता है कि मनुष्य के ऊपर
उसका मन होता है।

छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता,
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।

इसीलिए तो भगवान कृष्ण को
शस्त्रों से सज्ज, रथ पर चढ़े,
कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़े,
अर्जुन को गीता सुनानी पड़ी थी।

मन हारकर, मैदान नहीं जीते जाते,
न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।

चोटी से गिरने से
अधिक चोट लगती है।
अस्थि जुड़ जाती,
पीड़ा मन में सुलगती है।

इसका अर्थ यह नहीं कि
चोटी पर चढ़ने की चुनौती ही न माने,
इसका अर्थ यह भी नहीं कि
परिस्थिति पर विजय पाने की न ठानें।

आदमी जहां है, वही खड़ा रहे?
दूसरों की दया के भरोसे पर पड़ा रहे?

जड़ता का नाम जीवन नहीं है,
पलायन पुरोगमन नहीं है।

आदमी को चाहिए कि वह जूझे
परिस्थितियों से लड़े,
एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।

किंतु कितना भी ऊंचा उठे,
मनुष्यता के स्तर से न गिरे,
अपने धरातल को न छोड़े,
अंतर्यामी से मुंह न मोड़े।

एक पांव धरती पर रखकर ही
वामन भगवान ने आकाश-पाताल को जीता था।

धरती ही धारण करती है,
कोई इस पर भार न बने,
मिथ्या अभियान से न तने।

आदमी की पहचान,
उसके धन या आसन से नहीं होती,
उसके मन से होती है।
मन की फकीरी पर
कुबेर की संपदा भी रोती है।

Monday 29 October, 2007

नन्दीग्राम में ममता बनर्जी के काफिले पर गोलियां बरसाईं


नन्दीग्राम में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी किसानों, मजदूरों और महिलाओं पर बर्बर जुल्म ढा रही हैं। किसानों का हक छीना जा रहा है। माकपा के अत्याचारों के खिलाफ महाश्वेता, मेधा और ममता बनर्जी संघर्ष कर रही हैं। अपने को सर्वहारा वर्ग की शुभचिंतक होने का ढोल पीटने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग पर गोलियाँ बरसा रही हैं। गत मार्च महीने से मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के गुंडे किसानों, मजदूरों और महिलाओं पर हिंसक हमले कर रहे हैं।

गत 28 अक्टूबर को खेजुरी और नंदीग्राम के बीच तेखाली पुल पर धरना देने जा रही ममता बनर्जी के काफिले पर अज्ञात लोगों ने 28 अक्टूबर को हमला कर दिया। हमले में वे बाल-बाल बच गईं। उनका काफिला सुरक्षा घेरे में नहीं चल रहा था। तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख सुश्री बनर्जी का काफिला तेखाली पुल की ओर जा रहा था तभी खेजुरी की ओर से उनकी कार के दाहिने हिस्से से उस पर गोलियाँ बरसाई गई। ममता ने गाड़ी के सामने गिरी कुछ गोलियाँ उठाकर घटनास्थल पर मौजूद मीडियाकर्मियों को दिखाईं। उन्होंने बताया कि वे 303 सीरीज की गोलियाँ थीं, जिनका इस्तेमाल पुलिस करती है।

इत्तेफाक से उनके काफिले के साथ पुलिस की कोई पायलट कार नहीं थी और न ही एक भी पुलिसकर्मी घटनास्थल पर मौजूद था। सुश्री बनर्जी के साथ उनके सिर्फ निजी सुरक्षाकर्मी ही थे। विधायक और तृणमूल कांग्रेस के नेता शुभेन्दु अधिकारी ने बताया कि उन्होंने पूर्वी मिदनापुर के पुलिस अधीक्षक को सुश्री बनर्जी के दौरे की जानकारी दे दी थी।

इस बीच सुश्री बनर्जी ने भूमि प्रतिरोध समिति के कार्यकर्ताओं पर हमले के लिए माकपा कार्यकताओं के खिलाफ कार्रवाई पर केंद्रीय गृह मंत्रालय से आश्वासन की माँग को लेकर गोकुलनगर के निकट धरना शुरू कर दिया है। तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी ने पूर्वी मिदनापुर जिले के नंदीग्राम में माकपा समर्थकों की गोलीबारी और बमबाजी की हरकतों पर लगाम लगाने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री शिवराज पाटिल से हस्तक्षेप करने की माँग की है।

गढ़चक्रबेरिया में एक जनसभा में ममता ने कहा कि उन्होंने प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को पत्र लिखे हैं तथा उनके जवाब की प्रतीक्षा कर रही हैं। ममता ने इन पत्रों में कहा है कि दोषियों को दंड दिया जाए। इस बीच ममता ने कहा कि नंदीग्राम की जनता को मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के गुंडों के खिलाफ संघर्ष जारी रखना चाहिए।

उन्होंने कहा कि माकपा कार्यकर्ता बंदूकों के जोर पर अपनी मनमानी नहीं कर सकते हैं। शांतिप्रिय जनता अंतत: स्थिति पर नियंत्रण कर लेगी और राज्य प्रायोजित आतंकवाद खत्म हो जाएगा। ममता नंदीग्राम के कई इलाकों के दौरे पर हैं और उन्होंने पहले ही घोषणा की है कि वह खेजुरी भी जायेंगीं जो माकपा का गढ़ माना जाता है।







Saturday 27 October, 2007

नक्सलियों ने मरांडी के बेटे सहित 17 को गोलियों से भून डाला



झारखंड के गिरिडीह जिले में कल देर रात हुए नक्सली हमले में राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी के बेटे अनूप मरांडी समेत 17 लोग मारे गए। नक्सलियों का यह हमला देर रात करीब साढे बारह बजे गिरिडीह जिले के चिलकारी गांव में एक समारोह के दौरान हुआ। गांव में पिछले तीन दिनों से एक जनजातीय फुटबाल प्रतियोगिता चल रही थी तभी नक्सलियों ने समापन सम्मान समारोह के दौरान इलाके को घेरकर ताबड़तोड़ गोलियां चलाई। गोलीबारी में बाबू लाल मरांडी के छोटे भाई नीमू मरांडी बच निकलने में सफल रहे। जबकि बाबू लाल मरांडी के बेटे अनूप मरांडी समेत 17 लोग मारे गए।

हमले में करीब 25 नक्सली शामिल थे। नक्सली आधुनिक हथियारों से लैस थे। कार्यक्रम में बाबू लाल मरांडी के बेटे समेत करीब 100 लोग शामिल थे। उसी वक्त करीब 25 नक्सलियों ने आधुनिक हथियारों से लैस होकर हमला कर दिया। अनेक लोग घायल हुए हैं। घायलों में महिलाएं भी शामिल हैं।











Thursday 25 October, 2007

कम्युनिस्टों का दोहरा चरित्र- प्रो.देवेन्द्र स्वरुप

केरल में कम्युनिस्ट नेतृत्व भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा है। उसके कई मंत्री भ्रष्टाचार या यौन-उत्पीड़न के आरोप में त्यागपत्र देने को मजबूर हुए हैं। केरल की 20 प्रतिशत ईसाई जनसंख्या कम्युनिस्टों के विरोध में गोलबंद हो रही है। एक माकपा नेता मथाई चाको की एक वर्ष पूर्व कैंसर से मृत्यु पर कैथोलिक चर्च और माकपा के बीच वाकयुध्द छिड़ गया है। एक प्रतिष्ठित कैथोलिक पादरी का कहना है कि मथाई चाको ने मृत्यु के समय अन्तिम ईसाई उपदेश सुना। माकपा के महामंत्री पिनरई विजयन, जिनके विरुध्द भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं, उन पादरी को 'महाझूठा' व 'दुष्ट पुरुष' कह डाला। पिनरई का दावा है कि मथाई चाको जैसा सच्चा कम्युनिस्ट कभी भी धार्मिक कर्मकांड नहीं अपना सकता। चर्च ने इसके उत्तर में चाको के विवाह का चर्च में रजिस्ट्रेशन का प्रमाण प्रस्तुत किया है। चर्च का आग्रह है कि पिनरई सार्वजनिक माफी मांगें। चर्च ने बुधवार (17 अक्तूबर) को सभी ईसाई संस्थान बंद करके विरोध प्रदर्शन किया। वैसे भी वामपंथी गठबंधन सरकार की शैक्षणिक नीतियों के विरुध्द भी चर्च आन्दोलन की तैयारी कर रहा है और 1957 की नम्बूदिरीपाद सरकार को गिराने वाले आंदोलन की पुनरावृत्ति करने की धमकी दे रहा है। धर्म से घृणा और नास्तिकता में आस्था के इस दावे को एम.वी. राघवन एवं सी.पी. जोश जैसे पुराने कम्युनिस्ट भी महज ढोंग बता रहे हैं। उन्होंनें ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद और पूर्व मुख्यमंत्री ई.के. नायनार की मृत्यु के पश्चात् धार्मिक कर्मकाण्ड होने का उदाहरण दिया। माकपा की केन्द्रीय समिति के सदस्य एवं गृहमंत्री कोडियारी बालकृष्णन् के लिए उत्तर केरल के मन्दिर में धार्मिक अनुष्ठान कराने का उल्लेख किया। पोलित ब्यूरो सदस्य एस.रामचन्द्रन की पत्नी की अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करने की अनुमति स्वयं पोलित ब्यूरो ने दी थी। अपने पुत्र के विवाह के समय ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद के सपरिवार मीनाक्षी मन्दिर मदुरै जाकर पूजा करने की घटना बहुचर्चित है।

भौतिकवाद और नास्तिकता में आस्था के ढोंग का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि अभी हाल ही में कोच्चि के रीजेंट होटल के हाल में माकपा की बैठक के बीच में मौलवी की अजान की आवाज कान में पड़ने ही बैठक स्थगित कर दी गई। मुस्लिम कार्यकर्ताओं को बैठक छोड़कर बाहर जाने की अनुमति दी गई। वहां उनके रोजा तोड़ने के लिए पार्टी की तरफ से नाश्ते की व्यवस्था की गई। यह है भारतीय कम्युनिस्टों के दोगले चरित्र का कच्चा चिट्ठा। केरल में कोयम्बतूर बम विस्फोट कांड के सूत्रधार नासिर मदनी की पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट, इंडियन नेशनल लीग व जमाते इस्लामी आदि मुस्लिम संस्थाओं को रिझाने के लिए कम्युनिस्ट कितने समझौते कर रहे हैं, इसकी पूरी कहानी प्रकाश में लाने की आवश्यकता है। कितना अच्छा हो कि संप्रग के सभी घटक दल मजहब के प्रति कट्टर मुस्लिम समाज के सामने कम्युनिस्टों की मजहब विरोधी नास्तिकता को नंगा करें। उन्हें बतलायें कि किस प्रकार रूस, चीन और पूर्वी यूरोप में इस्लाम और कम्युनिज्म में टकराव हमेशा से रहा है और आज भी है। भारतीय मुसलमानों को भी हिन्दू विरोधी मानसिकता से ऊपर उठकर नास्तिकता के विरुध्द मोर्चा खोलना चाहिए। इस्लाम के प्रति निष्ठा और नास्तिकता साथ-साथ नहीं चल सकते।

Wednesday 24 October, 2007

जब कम्युनिस्ट फासिस्ट होते है तो पुराने जमाने के फासिस्ट भी लजा जाते हैं:महाश्वेता देवी

सिंगुर की ही जमीन चाहिए, ऐसी कोई बात रतन टाटा ने नहीं कही थी। टाटा भारत के अन्यतम बड़े उद्योगपति हैं। उनके लिए छोटी कार के कारखाने के लिए सिंगूर की बहुफसली जमीन की मांग ही गलत होती। इसलिए उन्होंने वह जमीन नहीं चाही। चाही थी मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य ने। मुख्यमंत्री के मन में क्या था, कहना कठिन है। तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने अनशन किया, आंदोलन पर आंदोलन किए जा रही है, मेधा पाटेकर विरोध किए जा रही हैं उधर बुध्ददेव की पुलिस असामान्य आचरण कर रही है। आंदोलनकारियों पर ही नहीं, पत्रकारों-छायाकारों की भी बेधड़क पिटाई हो रही है। माकपा के राज्य में सब कुछ किया जा सकता है। मैं चाहती हूं, देश के सामने माकपा का मुखौटा खुल जाए। आम जनता, छात्र, महिला संगठन, दलित-आप सब बुध्ददेव और विमान बसु का मुखौटा नहीं मुख देखिए। वे कितना सफेद धोती ऑर पंजाबी कुर्ता पहने हुए हैं पर असली मुंह कितना भयानक है। सिर्फ मेधा पाटेकर और ममता के विरूध्द ही नहीं, मेरे विरूध्द माकपा सरकार क्या कहेगी? इस सरकार ने मेरे आदिवासियों को क्या दिया है? विमान बसु आखिर अपनी शिक्षा परियोजना लेकर पुरुलिया क्यों गए? पुरुलिया और बांकुड़ा में वामराज के 30 वर्षों के शासन के बाद भी सड़कें क्यों नहीं है? बिजली वहां क्यों नहीं पहुंची? पीने और सिचाई के पानी का प्रबंध क्यों नहीं हुआ? गरीबों के लिए भोजन व आवास का प्रबंध क्यों नहीं हुआ? लोधा और खेड़िया शबरों की हत्या क्यों नहीं बंद हो रही है?

माकपा के नेता, पार्टी कैडर, घृणित चमचे यह जानकर दुखी होंगे कि मैं और अन्य कई लोग आज भी बाहर रह गए हैं। सोचकर भी कष्ट होगा। शांति निकेतन में जब जन सुनवाई चल रही थी तो माकपा के ही मानस पुत्र चिल्ला कर कह रहे थे-'महाश्वेता देवी का तो शांति निकेतन में बड़ा महल है, उनकी बात हम नहीं सुन रहे हैं, नहीं सुनेंगे।'

हमारा वहां कोई महल नहीं। मुख्यमंत्री को पता होना चाहिए कि मैं मनीष घटक की बेटी हूं, विजन भट्टाचार्य की पूर्व पत्नी, ऋत्विक घटक की भतीजी-हमारा परिवार खरीद-फरोख्त से बाहर रह गया है। क्या सौभाग्य है कि इतिहास ने हमें और हमारे परिवार को सही राह पर चलना ही सिखाया था।

सटीक राह बंधुत्व की होती है, पांव रक्तरंजित होता है। क्या माकपा नेता इसे कभी जानते थे? अब भूल गए हैं। यदि नहीं भूले होते तो सिंगूर के लोगों के चेहरे का सटीक तथ्य पढ़ लिए होते। सिंगूर की जमीन जबरन अधिग्रहीत करने के विरोध में उस इलाके में जो लोग आंदोलनरत थे, उनमें एक प्रमुख नाम तापसी मालिक का भी था। उसने अनशन भी किया था। दिन भर भूखे रहने के बाद रात को खाना खाया और सो गई, किन्तु सूर्योदय नहीं देख पाई। वह जब तड़के नित्य कर्म करने मैदान गई, तो उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और उसके बाद उसके शरीर पर कैरोसिन तेल छिड़ककर उसे जला कर मार डाला गया। ध्यान देने योग्य है कि सिंगुर के जिस बाजमेलिया गांव में यह हादसा हुआ, वहां पुलिस तैनात है। पुलिस के अलावा रात्रि प्रहरी भी थे। चूंकि शुरू से ही तापसी अधिग्रहण के विरोध में आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी, इसलिए माकपा के स्थानीय कैडरों के वह निशाने पर थी।

लगातार 30 वर्षों तक शासन में रहने के बाद वाममोर्चा के अधोपतन का ये हाल है। राज्य सरकार का यह कौन-सा मूल्यबोध है। मरी है तापसी मालिक, वह हेतेल पारेख तो नहीं है। तापसी के बलात्कारियों-हत्यारों को फांसी चाहिए, किसी ने नहीं कहा। क्या वाम नेताओं के घर लड़कियां नहीं है? अपनी बेटियों में उन्हें तापसी का चेहरा देखने का विवेक नहीं है? वामदलों के महिला संगठनों भी सामने नहीं आए। जो मीरा भट्टाचार्य (मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य की पत्नी) हेतेल पारेख के बलात्कारी व हत्यारे धनंजय चटर्जी को फांसी देने की मांग चीख-चीख कर करती थीं, उन्होंने भी तापसी के मामले में कुछ नहीं कहा। क्या सिल्क की दामी साड़ी पहनकर संसद या विधानसभा या जनसभा या सेमिनार में चेहरा दिखाने भर से कर्तव्य पूरा हो जाता है?

सोचना चाहती हूं कि रतन टाटा ने सिंगूर की जमीन चाही थी। पर सिंगूर उन्होंने नहीं चाही थी। सिंगूर चाही थी माकपा ने। उन्होंने ही कहा था-सिंगूर ही चाहिए। किन्तु मुझे विश्वास है कि रतन टाटा ने वह जमीन नहीं चाही थी। टाटा समूह को यह नहीं पता था कि उस जमीन पर कई हजार किसान, बर्गादार, खेत मजदूर निर्भरशील हैं फिर उनके पेट पर उन्होंने क्यों लात मारी। सिंगूर को लकड़ी की हांडी पर क्यों चढ़ाया गया? क्या इसलिए कि उस इलाके से माकपा नहीं जीतती? इसलिए कि वहां के विधायक और पंचायत प्रधान सभी तृणमूल कांग्रेस के है?

रतन टाटा को गुजरात सरकार का एक प्रसंग बताना चाहती हूं। गुजरात सरकार के पास 60 हेक्टेयर जमीन थी। वहां के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा कर रखी थी कि वह जमीन वे उद्यांगपतियों को देंगे किन्तु राज्य के तमाम गैर-सरकारी जनसंगठनों ने उसका तीव्र प्रतिवाद किया तो मोदी पीछे हट गए। वह जमीन भूमिहीनों को दी जा रही है। सुना कि उसका मूल्य दे कर ले रहे है। इस राज्य में यह सब खबर अखबारों में क्यों नहीं छपती?

प्रधानमंत्री भी बंगाल आकर मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य की औद्योगिक लाइन को हरी झंडी दिखाकर चले गए। क्या करेंगे, दिल्ली में उनकी सरकार वामपंथियों के समर्थन पर ही टिकी है। प्रधानमंत्री द्वारा पीठ ठोंके जाने के बाद मुख्यमंत्री अपनी लाइन चलाते जाएंगे। रुपए के साथ इस खेल का ही नाम वैश्वीकरण है और यह खेल कम्युनिस्ट कर रहे हैं। कहना न होना कि ये कम्युनिस्ट फासिस्ट हो गए हैं। जब कम्युनिस्ट फासिस्ट होते है, तो उनका फासिज्म देखकर पुराने जमाने के फासिस्ट भी लजा जाते हैं। (साभार-वर्तिका त्रैमासिक पत्रिका, हिन्दी रूपान्तर : रंजू सिंह)

Tuesday 23 October, 2007

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का कोष 5 हजार करोड़ रुपए!

लेखक-प्रदीप कुमार

माकपा
चाहे सत्ता में हो या न हो, यह सीधे या उल्टे तरीकों से पैसा इकट्ठा करती रहती है। केरल में माकपा ने, कहा जाता है कि, 5 हजार करोड़ रुपए की सम्पदा इकट्ठी कर ली है। माकपा कट्टर साम्प्रदायिक मुस्लिम और ईसाई गुटों से अवसरवादी गठजोड़ करके पैसे की दृष्टि से सबसे अमीर पार्टी बन गई है। आज यह ऐसे कारपोरेट समूह की शक्ल में दिखती है जिसकी न जाने कितनी सम्पत्ति यहां-वहां बिखरी है।

कामरेड खुद को भले ही सर्वहारा वर्ग की पार्टी बताते हों मगर पिछले 5 दशकों में पार्टी की केरल इकाई 5 हजार करोड़ रुपए की स्वामी बन गई है।

खाड़ी के देशों में केरलवासियों के नौकरी करने के बाद से केरल में जमीन की कीमतें आसमान छूने लगी हैं और माकपा ने इसी मौके का फायदा उठाते हुए बड़ी मात्रा में जमीन, इमारतें तथा अन्य सम्पदा जुटा ली। माकपा और उसके सहयोगी संगठनों, जैसे सीटू, एस.एफ.आई., डी.वाई.एफ.आई., महिला संगठन, सरकारी कर्मचारी, शिक्षक, कालेज और अन्य व्यावसायिक संस्थान, चाहे किसी ताल्लुक में हों या जिले में, अपने-अपने प्रमुख स्थानों में बने भवनों में काम कर रहे हैं। माकपा मुख्यालय ए.के. गोपालन भवन तो माकपा की अकूत दौलत की एक झलक ही है। 15 सौ सीटों वाला एक एयर कण्डीशन्ड सभागार इसमें है। 60 एकड़ के मैदान में एक बड़ा नगर बसाया गया है जिसे ई.एम.एस. अकादमी कहते हैं और यहां माकपा कार्यकर्ताओं को 'प्रशिक्षण' दिया जाता है। केरल में ऐसे कापरेटिव बैंकों और अस्पतालों की कमी नहीं है जो माकपा के निर्देश पर चलते है। ईसाई मिशनरियों की तरह माकपा इन रास्तों से भी पैसे कमा रही है।

माकपा की फासीवादी सोच खतरनाक

लेखक-प्रदीप कुमार

आखिरकार माकपा का फासीवादी चेहरा उजागर हो ही गया। माकपा और उसके नेताओं की फासीवादी सोच ही ऐसी है कि वे किसी आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर सकते। जब संदिग्ध स्रोतों से पैसा जोड़ने की पार्टी की चाल को बेनकाब किया गया तो कोई और नहीं खुद पार्टी के राज्य सचिव पिनरई विजयन ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मलयालम दैनिक मातृभूमि के बारे में बोलते हुए अपनी असहिष्णुता जाहिर कर दी।

उल्लेखनीय है कि मातृभूमि ने माकपा मुखपत्र देशाभिमानी द्वारा एक फरार लाटरी माफिया सांतियागो मार्टिन से दो करोड़ रुपए लेने का खुलासा किया था। पार्टी में पिनरई के सहयोगी जयराजन ने भी इस मामले में राज्य विधानसभा और उसके बाहर अपनी दुर्भावना व्यक्त की थी। पिनरई गुट के वरिष्ठ नेता जयराजन देशाभिमानी के महाप्रबंधक हैं और राज्यसचिव पिनरई के पक्के अनुयायी हैं। कन्नूर में इन्हीं जयराजन ने अपने भाषण में साफ दर्शाया कि माकपा में फासीवादी रंग-ढंग अब स्थापित हो चुका है। जयराजन ने न्यायमूर्ति सुकुमारन के लिए जमकर अपमानजनक शब्द प्रयोग किए। न्यायमूर्ति सुकुमारन ने पार्टी सचिव पिनरई के संदिग्ध धनस्रोतों और संदिग्ध छवि वाले लोगों से कथित सम्बंधों पर पिनरई की आलोचना की थी। पिनरई विजयन ने कुछ दिन पहले दैनिक मातृभूमि के सम्पादक गोपालकृष्णन के लिए भी तीखे शब्द इस्तेमाल किए थे क्योंकि दैनिक मातृभूमि ने देशाभिमानी के संदिग्ध पैसे के लेन देन की रपट छापी थी, जिससे पार्टी को शर्मसार होना पड़ा था। कन्नूर में जयराजन ने एक कार्यक्रम में इससे भी एक कदम आगे जाते हुए न्यायमूर्ति सुकुमारन के लिए बहुत हल्के शब्द प्रयोग किए।

दैनिक मातृभूमि के कालीकट स्थित मुख्यालय में गत 8 जुलाई को सम्पन्न एक सम्मेलन में माकपा नेताओं के इस दुर्भावनापूर्ण फासीवादी व्यवहार के विरुध्द तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई। सम्मेलन में मौजूद प्रमुख पत्रकारों, शिक्षाविदों, साहित्यकारों, मीडियाकर्मियों और संस्कृतिकर्मियों ने अपने वक्तव्यों में लोगों से ऐसी फासीवादी सोच के प्रति सावधान रहने का आह्वान किया।

Monday 22 October, 2007

पश्चिम बंगाल के राशन दंगे क्या कह रहे हैं?

-दीनानाथ मिश्र

राशन के लिए दंगे-फसाद की खबरें 60 के दशक के बाद मैंने कभी नहीं सुनी। लेकिन आज पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा, वीरभूमि, चौबीस परगना, बर्धवान, मुर्शिदाबाद, हुगली और नादिया जिलों से राशन के लिए हो रहे दंगों की खबर आ रही हैं। पश्चिम बंगाल में अकाल के प्रकोप का एक लम्बा इतिहास रहा है। ब्रिटिश राज के दौरान 1943 में भयानक अकाल पड़ा था। ब्रिटिश राज में आम जनता की उपेक्षा, अनाज का मनमाना भण्डारण, और जमाखोरों के कारण ऐसा दुर्भिक्ष पड़ा था, जिसमें तीस लाख से ज्यादा लोग मारे गए थे। विश्व विख्यात फिल्म निर्माता सत्यजीत रे ने दुर्भिक्ष पर एक फिल्म बनाई थी। इसके कारण बंगाल के जनमानस ने उस अकाल की तस्वीर गहराई से बैठ गई है। उसके बाद साठ के दशक में राशन के संकट ने फिर एक बार दस्तक दी थी। और सच तो यह है कि उसी अभाव का राजनैतिक शोषण करके माक्र्सवादी पार्टी का मोर्चा सत्ता में आया। लेकिन पार्टी ने अगले कुछ दशकों में इस दिशा में हुई प्रगति का जबरदस्त ढोल देश भर में पीटा। राज्य में भूमि सुधार कानून को विशाल पैमाने पर लागू करने का दावा किया। ग्रामीण बंगाल की खुशहाली के बहुत से तराने गाए गए।

पार्टी का राज्य में तीस वर्षों से ज्यादा समय से अखण्ड राज चल रहा है। लेकिन इस दौरान औद्योगिक और कृषि क्षेत्र में प्रगति की बजाए अवनति हुई। मार्क्सवादी पार्टी का शासन कैसा है? आज 2007 में राशन के लिए हो रहे दंगे फसादों ने मार्क्सवादी पार्टी के शासन की पोल खोलकर रख दी है। गरीबी एवं भुखमरी के नाम पर सत्ता में आई मार्क्सवादी पार्टी के दीर्घकालीन शासन के बावजूद आज क्या हालत है? भूखे लोग राशन की दुकानों पर हमला कर रहे हैं। और विचित्र बात यह है कि पश्चिम बंगाल में कोई बीस हजार सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकाने हैं। उनमें से बहुत बड़ी संख्या माक्र्सवादी पार्टी के कार्डधारी सदस्यों को आवंटित है। सच तो यह है कि ये दुकाने उनको ही दी गई हैं जो या तो कार्डधारक हों, या पार्टी के सक्रिय समर्थक हों। गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को सस्ते अनाज देने के लिए जारी किए गए कार्ड के अलावा गरीबी रेखा के ऊपर के गरीब लोगों को भी दूसरे कार्ड दिए गए हैं।

कार्ड है लेकिन राशन की दुकान से राशन नहीं मिलता। केन्द्र की तरफ से मिलने वाला सस्ता अनाज खुले बाजार में दुगुने भाव में बिक जाता है। कार्डधारियों को परिवार के सदस्यों की संख्या के अनुसार गेहूं, चावल और चीनी के वितरण की व्यवस्था है। लेकिन यह व्यवस्था बहुत कम काम कर पा रही है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा है। गांव में राशन की दुकान वाले लोग समृध्द होते चले जा रहे हैं। वह बड़े-बड़े मकानों में रहते हैं। गांवों में एक नया धनाढय तबका तैयार हो गया। उनका धन बोलता है।

दक्षिण बंगाल राशन डीलर्स एसोसिएशन के निर्मल सरकार ने आरोप लगाया कि ''स्थानीय नेताओं, पंचायत अधिकारियों आदि को नियमित रूप से हफ्ता देना पड़ता है। हम लोगों के पास कोई रास्ता नहीं होता सिवाय इसके कि राशन के अनाज को खुले बाजार में बेच दें।'' दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई है। जिसमें पश्चिम बंगाल और कुछ अन्य राज्यों में गरीबों के नाम आने वाले 30 हजार करोड़ रुपए के गेहूं और चावल को खुले बाजार में दुगुने दाम पर बेच देने का अभियोग लगाया गया है।

अब तक राशन के दंगों में करीब आधा दर्जन लोगों की मौत हो चुकी है। कई हजार लोग घायल हो चुके हैं। पुलिस गोलाबारी से भी कुछ मौतें हुई हैं। राशन की दुकानों के संगठन के प्रवक्ता भी दबी जुबान से यह स्वीकार करते हैं कि उनके बीच कुछ काली भेंडें हैं जो सरकारी राशन का भण्डार खुले बाजार में बेच डालते हैं। स्थिति का अंदाज कुछ इस तरह लगाया जा सकता है कि अनेक स्थानों पर राशन दुकानों के मालिकों पर हमला किया जाता है। डीलरों के बुलावे पर कहीं पुलिस आती है कहीं पर नहीं आती है।

राशन दंगों की शुरूआत 16 सितम्बर से ही हो गई थी। भीड़ ने बांकुड़ा में माक्र्सवादी पार्टी की रैली पर हमला किया। कारण सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की बदहाली ही था। 17 सितम्बर को बांकुड़ा में भीड़ अचानक एकत्र हुई और राशन डीलर पर हमला किया। 22 सितम्बर को राशन दंगे बांकुड़ा से वीरभूमि पहुंचे। 25 सितम्बर को राज्य सरकार ने 38 डीलरों को निलंबित कर दिया। बाद में निलंबित डीलरों की संख्या 117 हो गई। बांकुड़ा में ही एक डीलर ने आत्महत्या कर ली। बर्धवान जिले में राशन दंगे फैलते गए। कई अन्य डीलरों ने आत्महत्या की। एक माक्र्सवादी विधायक को भीड़ ने पीट दिया। पुलिसवालों के मकानों में आग लगा दी गई। राशन दंगों का व्याप्त एक एक करके कई जिलों में फैल गया।

स्थिति की भयानकता देखते हुए राज्य सरकार ने केन्द्र के सिर पर ठीकरा फोड़ते हुए कहा कि केन्द्र सरकार ने राज्य सरकार को अनाज के कोटे में पिछले महीनों में दो बार कमी कर दी। इस दावे के विपरीत केन्द्रीय खाद्यमंत्री शरद पवार ने आंकड़ों के जरिए यह साबित करने की कोशिश की कि न तो खाद्यान्न की कमी है और न ही कोटे में कमी की गई है। बदइंतजामी और भ्रष्टाचार प्रदेश के वितरण तंत्र में भयानक रूप से पेवस्त हो चुका है। केन्द्र ने यह भी संकेत दिया है कि पश्चिम बंगाल से अनाज की तस्करी बांग्लादेश की तरफ हो रही है। इसके जवाब में राज्य सरकार ने कहा है कि सीमा पर बीएसएफ तैनात है और उन्होंने इस तस्करी की जानकारी राज्य सरकार को नहीं दी।

आरोप प्रत्यारोप का यह सिलसिला मार्क्सवादी पार्टी और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकारों के बीच चल रहा है। और उधर राशन दंगों का सिलसिला पिछले चार हफ्तों से लगातार चल रहा है। कभी एक जगह दंगा भड़क जाता है तो कभी दूसरी जगह। पूछा जा सकता है कि क्या मार्क्सवादी सरकार ने केन्द्रीय खाद्य मंत्रालय से पश्चिम बंगाल को कोटा बढ़ाने की मांग की? जवाब मिलेगा 'नहीं'। आबंटित गेहूं और चावल के बारे में प्राय: यह देखा गया है कि जितना आबंटन होता है राज्य सरकार उतना भी कोटा नहीं उठा पाती। ऐसी दिशा में कोटा बढ़ाने की मांग वह कर ही नहीं सकते थे। यह सही है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने कृषि और खाद्य व्यवस्था पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। खाद्य मंत्री शरद पवार अपने क्रिकेट प्रेम के लिए जाने जाते हैं। वह महाराष्ट्र की राजनीति को भी संचालित कर रहे हैं। ऐसे में मंत्रालय के काम को तरजीह न मिले तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

याद कीजिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के शासन को। खाद्यान्न के मामले में कभी कोताही नहीं हुई। अनाज के भण्डार हमेशा भरे पूरे रहे। समस्या अनाज की कमी की नहीं, अनाज की विपुलता की रही। यही कारण था कि अनाज का निर्यात कई वर्षों तक करना पड़ा। आज हर दो महीने पर एक खबर आ जाती है कि भारत ने इतने लाख टन गेहूं अमेरिका से खरीदा या कहीं और से खरीदा। मंहगे भाव से गेहूं खरीदने की शिकायतें भी हैं। भारत जब गेहूं खरीदता है तो गेहूं के दाम चढ़ ही जाते हें। क्योंकि भारत विपुल मात्रा में खरीदता है। राशन के गेहूं और चावल को केन्द्रीय सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए सहायता देकर कम दोमों में बेचती हैं। जैसे चावल 6 रूपए किलो। बाजार में इसी चावल को 13 रुपए किलो में ग्राहक खरीदते हैं। यह अंतर बहुत बड़ा है। आज राशन से सम्बंधित जो दंगे हो रहे हैं, उसमें एक कारण गरीबी और भुखमरी से जूझने वाली जनता का आक्रोश भी हैं। स्वाभाविक रूप से राज्य की माक्र्सवादी पार्टी और सरकार बहुत चिंतित है। इसलिए नहीं कि गरीबी और भुखमरी से जूझ रहे लोग हिंसक प्रदर्शन पर उतर आए हैं। बल्कि इसलिए कि पंचायत चुनाव होने वाले हैं। चिंता का विषय यह है कि राशन के इन दंगों का असर पार्टी के चुनावी विजय को दुष्प्रभावित कर सकता है। कभी पश्चिम बंगाल के माक्र्सवादी नेता राशन की दुकानों पर दंगों के लिए माओवादियों पर दोष मढ़ रहे हैं तो कभी जमात-ए-उल-हिंद पर और कभी ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस पर।

केन्द्र द्वारा जारी किया गया राशन का अनाज किस हद खुले बाजार में जाता है, इस सम्बंध में एक अध्ययन किया गया है। अध्ययन केन्द्रीय उपभोक्ता मंत्रालय ने कराया है। उसके मुताबिक सबसे अधिक दुरूपयोग उत्तर प्रदेश में और दूसरे नम्बर पर पश्चिम बंगाल में होता है। अध्ययन के मुताबिक जो अनाज गरीबों के लिए निर्धारित था वह खुले बाजार में चला गया। पिछले तीन वर्षों के आंकड़ों को मिलाकर अध्ययन का निष्कर्ष है कि राज्यों में 32,89,317 करोड़ रूपए का गेहूं और चावल खुले बाजार में बेच दिया गया। यह पिछले तीन वर्षों का समेकित आंकड़ा है। अध्ययन का एक निष्कर्ष यह है कि 53 प्रतिशत गेहूं और 39 प्रतिशत चावल राशन की दुकान की बजाए, बाजार का मुंह कर लेता है। उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की ख्याति सबसे अधिक बदइंतजाम राज्यों के रूप में हुई हैं। राशन की दुकानों की लूटपाट भी होनी चालू हो गई। अनेक डीलरों ने मजबूरन डीलरशिप लौटा दी है। कई सौ डीलर हिंसक उत्पात के आतंक में कहीं न कहीं छिपे हुए हैं। नंदीग्राम और सिंगूर में कुछ महीने पहले जो हिंसक आक्रोश फूटा था, उसे पुलिस दमन करके मामले को निपटाया गया। छिटपुट घटनाएं हाल तक होती रही है। लेकिन राशन के दंगे उससे कहीं व्यापक हैं।

इस सारे घटना-क्रम में अनाज की मंहगाई का बड़ा भारी योगदान है। जो लोग गरीबी रेखा के ऊपर हैं, वह राशन का गेहूं और चावल नहीं उठाते थे। लेकिन अनाज जैसे-जैसे मंहगे होते गए, वैसे-वैसे वह भी राशन की दुकान पर पहुंच कर अपने हिस्से का अनाज लेने लगे। अचानक त्योहारों का मौसम आया तो यह संख्या बढ़ गई। उधर डीलर आबंटित गेहूं और चीनी नहीं उठाते थे क्योंकि कार्ड धारकों की मांग नहीं थी। अब मंहगाई के कारण मांग बढ़ी तो तुरंत राशन में बढ़ोतरी नहीं की जा सकी। अभाव इस तरह पैदा हुआ। कुल मिलाकर राशन दंगों के पीछे माक्र्सवादी शासन की चहुंमुखी विफलता ही रेखांकित होती है। हफ्ता देने की मजबूरी, राशन के गेहूं और चावल को खुले बाजार में बेचने की मजबूरी, मंहगाई के कारण राशन दुकानों की तरफ देखने की फिर से आम लोगों की मजबूरी, पार्टी तंत्र को मजबूत करने के लिए पार्टी तंत्र को सार्वजनिक वितरण प्रणाली में लगाने के कारण तंत्र खोखला और कमजोर हो गया। इधर सीमा सुरक्षा बाल की तैनाती के बावजूद अनाज और जानवरों की तस्करी का सिलसिला लगातार चल रहा है। जहां राशन दंगा माक्र्सवादी शासन के विदू्रप को उजागर करता है वहीं ये दंगे केन्द्रीय सरकार की विफलता को भी खोलकर रख देते हैं।

गरीबी और भुखमरी में आज भी भारत, चीन और यहां तक कि पाकिस्तान से भी आगे है। अन्तर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान ने भूख सूचकांक बनाया है। उसमें भारत का स्थान 94वें नम्बर पर है। असल में कृषि उत्पादन में भारत पिछड़ रहा है। कृषि उत्पादन दर में दूसरे क्षेत्रों के मुकाबले बहुत कम वृध्दि हो रही है। वैसे कहने को कहा जाता है कि भारत विश्व की दो सबसे तेज अर्थव्यवस्थाओं में से है। अन्य क्षेत्रों में होगा, कृषि में नहीं। विशेष रूप से पश्चिम बंगाल और आधा दर्जन अन्य राज्यों के कारण यह स्थिति बनी।

Saturday 20 October, 2007

नरेन्द्र मोदी का विकास संबंधी प्रयोग

-बिनोद पांडेय

गुजरात विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गई है। चुनाव की तारीख घोषित हो चुकी है। दिसंबर के 11 और 16 तारीख को मतदान होगा वहीं फैसले की तारीख 23 दिसंबर को रखी गयी है। चुनावी आहट को सुन दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस ने इस साल के जनवरी महीने से ही अपनी तैयारी शुरू कर दी थी। सोनिया की सभा के आयोजन से जहां कांग्रेस ने साल के शुरूआत से ही चुनावी बिगुल बजा रखा था, वहीं मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इसी अवधि में महिला सम्मेलनों का ताबडतोड आयोजन कर चुनावी तैयारी के प्रति अपनी गंभीरता का अहसास लोगों को दिला दिया था। बहरहाल अब चुनावी समर में योध्दा आमने-सामने है। चुनावी मुद्दों की तलाश और उसमें कांट-छांट के बाद दोनों ही प्रमुख दलों ने अपने तरकश में नुकीले तीर भी कमोबेश सजा लिये हैं।

कांग्रेस की छटपटाहट इस बार के चुनाव में किसी भी हालत में सत्ता पाने की है। कांग्रेसी कार्यकर्ता सत्ता से बाहर अधिक दिनों तक नहीं रह सकते हैं। यूपी चुनाव में राहुल के प्रयोग के बाद गुजरात में भी युवा प्रयोग को ही महत्व दिया जाना तय है। स्वर्गीय राजेश पायलट के सुपुत्र सचिन पायलट एक बार पिछले माह गुजरात आकर अपनी भूमिका बता गये हैं, लिहाजा राहुल का आना अभी बाकी है। राहुल अब पार्टी में राष्ट्रीय महासचिव बनने के बाद बडी जिम्मेवारी से जुड गये हैं, सोनिया गांधी के बाद उनका कद अब दायित्व में भी बडा हो गया है। गुजरात में कांग्रेस ने अपनी टीम में नायक की घोषणा करने की बजाय संयुक्त टीम के साथ ही चुनाव लडना श्रेयस्कर समझा है। टीम में केंद्रीय मंत्रियों की लंबी फेहरिस्त है, वहीं राज्य में भी नेताओं की कमी नहीं। लिहाजा मतदान से पहले नेतृत्व की घोषणा कर कांग्रेस चुनाव में कोई खतरा लेना नहीं चाहती। और इसी वजह से गुजरात का चुनाव इस बार दिलचस्प हो गया हैं। यानी गुजरात में नरेन्द्र मोदी की अगुआई वाली भारतीय जनता पार्टी के सामने पूरी की पूरी कांग्रेस पार्टी मैदान में है।

एक राज्य के मुख्यमंत्री से मुकाबला करने के लिए सोनिया गांधी की पूरी सेना के अलावा केन्द्रीय मंत्रिमंडल में उनके सुर में सुर मिलाने वाले कई कथित सेक्युलरवादी नेताओं की टीम से लैस कांग्रेस इस बार गुजरात चुनाव में भाग्य आजमाएगी। गुजरात में सत्ता पाने से लंबे समय से दूर रहे प्रदेश कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की छटपटाहट तो समझ में आती है, लेकिन सोनिया गांधी का मामला दूसरा है। राज्य की सत्ता हासिल कर सिर्फ कांग्रेस शासित राज्यों की संख्या में इजाफा करने तक का ही सीमित उद्देश्य उनका नहीं है। नरेन्द्र मोदी यदि फिर से गुजरात में चुनाव जीत जाते हैं तो सर्वप्रथम देश भर में एक नई बहस के जन्म लेने की संभावना उनकी इस सबसे बडी चिंता का कारण है। मोदी के चुनाव जीतने पर एक नई बहस जमीन पर आ सकती है वह है-आजादी के बाद से लेकर अभी तक के विकास के कांग्रेसी फार्मूले की।

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी यदि आज अपने घर और बाहर दोनों ही जगह असंतुष्टों और विरोधियों से घिरे हुए हैं तो इसका कारण भी उनका विकास का यह नया फार्मूला ही माना जा सकता हैं। माना जाता है मोदी ने गुजरात में राजनीति नहीं की, विकास किया है। इनके विकास के फार्मूले में सर्वप्रथम सब्सिडी और राहत के नाम पर पैसों की बंदरबांट को ही समाप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण काम किया गया है। आज तक लोगों को जो सरकार के विभिन्न योजनाओं के जरिये मदद करने की कोशिश की जाती थी, उसका कागजी कार्रवाई कर अधिकांश राशि सरकारी अधिकारी या तंत्र में ताकतवर लोग निगल लेते थे। स्वर्गीय राजीव गांधी का यह बयान भी इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है कि विकास का पैसा गांव तक आते-आते 15 फीसदी तक सिमट कर रह जाता है। नरेन्द्र मोदी ने इस अवधारणा को तोड कर लोगों को या जरूरतमंदों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में प्रयास कर अनोखा कदम उठाया। इससे तंत्र की सालों से चली आ रही अवैध कमाई पर विराम लग गया।

बडी-बडी योजनाएं, जो कि सालों से अधर में लटकी हुई थी, उसे उन्होंने ताबडतोड निपटा कर उसका लाभ आम जनता को दिलाने में अपनी इच्छा शक्ति का परिचय दिया। विकास के नये आयाम में उन्होंने राज्य की कृषि और उद्योगों के विकास में अद्भुत तारतम्यता लाकर न, तो पश्चिम बंगाल जैसा सेज के नाम पर बवंडर खडा होने दिया और न ही अत्यधिक उद्योगिकरण से लोगों का जीना-मुहाल किया। बल्कि उद्योग और कृषि दोनों क्षेत्र को एक समान विकास के पायदान पर चढा राज्य को विश्व स्तर की प्रतियोगिता के लिए अनुकूल बना दिया।

दंगों के बाद अशांत वातारण में जब श्री मोदी ने सत्ता संभाली तब से लेकर एक साल से अधिक समय तक दंगे की कहानियों को उनके विरोधी ढोल-नगाडे लेकर पीटते रहे। इस कठिन समय से राज्य की जनता को उबारना आसान नहीं था। इसी समय उन्होंने वाइव्रेंट गुजरात का अभियान चला कर राज्य में पूंजी निवेश का दुष्कर अभियान चला दिया। अशांत और खून-खराबे के माहौल के तुरंत बाद इस तरह का खतरा लेकर उन्होंने राज्य की जनता को अपना इरादा जता दिया। फिर इसके बाद उन्होंने पीछे मुड कर नहीं देखा। कई बडे-बडे महोत्सवों के जरिये उन्होंने राज्य में विकास की नई इबारत लिखने की अपनी इच्छा शक्ति और संकल्प को बार-बार प्रमाणित कर दिखाया।

अब जबकि राज्य पांच साल बाद चुनावी दहलीज पर खडा है तो श्री मोदी का एक अहम चुनावी मुद्दा विकास से संबंधित होना अवश्यमभावी है। राज्य की जनता पांच साल तक चैन और सुकून के साथ जीवन यापन कर सकी इसका श्रेय भी राज्य के मुखिया होने के नाते नरेन्द्र मोदी को ही जायेगा। सो यह तय है कि कांग्रेस विकास संबंधी नरेन्द्र मोदी के फार्मूले को चुनावी बहस का मुद्दा बनाने की बजाय वह उन्हीं मुद्दों को उठाना चाहेगी, जिसमें जनता के सवालों से उसे जुझना नहीं पडे।

अफीम की मारी माकपा

-सतीश पेडणेकर

मार्क्स ने कहा था-धर्म जनता की अफीम है इसलिए कम्युनिस्टों ने सोवियत संघ और चीन में धर्म का सफाया करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन भारत लोकतांत्रिक और धार्मिक स्वतंत्रता देने वाला देश है और कम्युनिस्ट यहां सत्ता में भी नहीं है इसलिए वे लोगों को इस अफीम का सेवन करने से जबरन रोक नहीं सकते। पार्टी के कामरेडों पर नियंत्रण जरूर लगाते है। लेकिन जबसे धार्मिक कामरेडों की तादाद बढ़ रही है तब से मार्क्सवादी पार्टी के सामने समस्या है कि अपने कामरेडों को धर्म नामक अफीम का सेवन करने दे या नहीं। या फिर किस ब्रांड की अफीम का सेवन करने दे और किस ब्रांड की नहीं। कम से कम देवताओं की भूमि कहलाने वाले केरल में माकपा की दुविधा खुलकर सामने आ रही है।

इन दिनों केरल के एक स्वर्गीय कामरेड की आत्मा को लेकर मार्क्सवादी पार्टी और ईसाइयों में ठन गई है। माकपा के विधायक मथाई चाको की मृत्यु पिछले साल कैंसर से हुई। हाल ही में उनकी स्मृति में आयोजित एक सभा में केरल माकपा के सचिव पिनराई विजयन ने थामरासेरी के बिशप की कड़ी खिंचाई की क्योंकि उन्होंने बयान दिया था कि मथाई चाको ने कोच्चि में मृत्युशैया पर अंतिम प्रार्थना कराना स्वीकार किया था। ईसाइयों में मृत्युशैया पर अंतिम प्रार्थना कराने का चलन है।

एक दिन बाद केरल की कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ने विजयन के बयान की कड़ी निंदा की। इसके बाद दोनों पक्ष एक दूसरे से माफी मांगने की अपील कर रहे हैं। माकपा नेताओं का कहना है कि बिशप झूठ बोलने के लिए माफी मांगें क्योंकि मथाई चाको जैसा सच्चा कम्युनिस्ट अंतिम प्रार्थना स्वीकार कर ही नहीं सकता। बिशप प्रार्थना करने गए तब चाको बेहोश थे।

इसके साथ केरल में मार्क्सवादियों और ईसाइयों के बीच पिछले काफी समय से चल रहा संघर्ष और तेज हो गया है। पिछले कुछ समय से अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्गों को आरक्षण को लेकर दोनों में ठनी हुई है। ईसाई नेता तो कई बार यहां तक कह चुके है कि माकपा सरकार ने कदम वापस नहीं लिया तो वे 1956 की तरह कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाएंगे। तब आंदोलन के बाद देश की पहली कम्युनिस्ट सरकार को भंग कर दिया गया था। इस आंदोलन में ईसाई संगठनों ने बढ-चढकर हिस्सा लिया था।

ईसाई माकपा और उसकी सरकार से बुरी तरह नाराज हैं। इस नाराजगी के दूर होने के आसार नहीं हैं इसलिए माकपा मुसलिमों को अपनी तरफ आकर्षित करने की भरसक कोशिश कर रही है। इसलिए हाल ही में कोच्चि में माकपा की बैठक में अनोखा नजारा देखने को मिला। मौलवी ने नमाज की अजान दी तो धर्मविरोधी माकपा की बैठक में मध्यांतर की घोषणा कर दी गई। मुसलिम कार्यकर्ता बाहर निकले। उन्हें रोजा तोड़ने के लिए पार्टी की तरफ से नाश्ता परोसा गया। यह बैठक वहां के रिजेंट होटल हाल में हो रही थी।

इसे माकपा की मुसलिमों को रिझाने की कोशिशों का हिस्सा माना जा रहा है। केरल में मुसलिम लीग कांग्रेस वाले गठबंधन के साथ है। माकपा उसकी जड़े काटने की कोशिश कर रही है। एक तरफ वह मुसलिमों में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रही है वहीं पीपुल्स डैमोक्रेटिक फ्रंट, इंडियन नेशनल लीग, जमाते इस्लामी जैसे वाम मोर्चा समर्थक मुसलिम संगठनों के जरिए लीग को चुनौती दे रही है।

यूं तो माकपा का सदस्य होने के लिए नास्तिक होना जरूरी नहीं मगर पार्टी सदस्यों से नास्तिक होने की उम्मीद भी करती है इसलिए जब भी कभी किसी माकपा नेता के धार्मिक कृत्य की बात सामने आती है तो विवाद होता है। पश्चिम बंगाल में मंत्री सुभाष चक्रवर्ती एक बार काली मंदिर के दर्शन करने गए थे तो पार्टी ने उनकी खिंचाई की थी।

पिछले दिनों माकपा के दो विधायकों ने ईश्वर के नाम पर शपथ ली थी तब केरल इकाई के सचिव विजयन ने कार्यकर्ताओं को मार्क्सवादी लेनिनवादी सिध्दांतों से भटकने के खिलाफ चेतावनी दी थी और क्रांतिकारी राह छोड़कर धर्म की तरफ बढ़ने के खिलाफ आगाह किया था। राजनीतिक हलकों में यही माना जा रहा है कि माकपा अपने धार्मिक कामरेडों को लेकर दुविधा में है और कोई स्पष्ट नीति नहीं बना पा रही है। (साभार: जनसत्ता, 18 अक्टूबर,2007)

Friday 19 October, 2007

बाल विवाह ने छीना बचपन : फिरदौस खान

फिरदौस खान युवा पत्रकार है। आपने दैनिक भास्कर और हरिभूमि में वरिष्‍ठ उप संपादक के नाते कार्य किया है। आपके लेख देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों में छपते है। निर्भीकता, ग्रामोन्‍मुख पत्रकारिता और आंकडों के आधार पर विश्‍लेषण करना आपके लेखन की विशेषता है। फिलहाल आप अनवरत् स्‍वतंत्र लेखन कार्य में जुटी हुई है। निम्न लेख में उन्होंने भारत की एक प्रमुख कुप्रथा बाल विवाह पर विचार प्रस्‍तुत किए है-
तमाम कोशिशों के बावजूद भारत में बाल विवाह जैसी कुप्रथा बदस्तूर जारी है। देश में विवाह के लिए कानूनन न्यूनतम उम्र 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल निर्धारित है, लेकिन यहां अब भी बड़ी संख्या में नाबालिग लड़कियों का विवाह कराया जा रहा है। इस तरह के विवाह से जहां कानून द्वारा तय उम्र का उल्लंघन होता है, वहीं कम उम्र में मां बनने से लड़कियों की मौत तक हो जाती है। अफसोस और शर्मनाक बात यह भी है कि बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों का विरोध करने वालों को गंभीर नतीजे तक भुगतने पड़ते हैं। मई 2005 में मध्य प्रदेश के एक गांव में बाल विवाह रोकने के प्रयास में जुटी आंगनबाड़ी सुपरवाइजर शकुंतला वर्मा से नाराज एक युवक ने नृशंसता के साथ उसके दोनों हाथ काट डाले थे। इसी तरह के एक अन्य मामले में भंवरी बाई के साथ दुर्व्यवहार किया गया था।

यूनिसेफ द्वारा जारी रिपोर्ट-2007 में बताया गया है कि हालांकि पिछले 20 सालों में देश में विवाह की औसत उम्र धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन बाल विवाह की कुप्रथा अब भी बड़े पैमाने पर प्रचलित है। रिपोर्ट के मुताबिक देश में औसतन 46 फीसदी महिलाओं का विवाह 18 साल होने से पहले ही कर दिया जाता है, जबकि ग्रामीण इलाकों कमें यह औसत 55 फीसदी है। अंडमान व निकोबार में महिलाओं के विवाह की औसत उम्र 19.6 साल, आंध्र प्रदेश में 17.2 साल, चंडीगढ़ में 20 साल, छत्तीसगढ़ में 17.6 साल, दादर व नगर हवेली में 18.8 साल दमन व द्वीव में 19.4 साल, दिल्ली में 19.2 साल, गोवा में 22.2 साल, गुजरात में 19.2 साल, हरियाणा में 18 साल, हिमाचल प्रदेश में 19.1 साल, जम्मू-कश्मीर में 20.1 साल, झारखंड में 17.6 साल, कर्नाटक में 18.9 साल, केरल में 20.8 साल, लक्षद्वीप में 19.1 साल, मध्य प्रदेश में 17 साल, महाराष्ट्र में 18.8 साल, मणिपुर में 21.5, मेघालय में 20.5 साल, मिजोरम में 21.8 साल, नागालैंड में 21.6 साल, उड़ीसा में 18.9 साल, पांडिचेरी में 20 साल, पंजाब में 20.5 साल, राजस्थान में 16.6 साल, सिक्किम में 20.2 साल, तमिलनाडु में 19.9 साल, त्रिपुरा में 19.3 साल, उत्तरप्रदेश में 17.5 साल, उत्तरांचल में 18.5 साल और पश्चिम बंगाल में 18.4 साल है।

गौरतलब है कि वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक देश में 18 साल से कम उम्र के 64 लाख लड़के-लड़कियां विवाहित हैं कुल मिलाकर विवाह योग्य कानूनी उम्र से कम से एक कराड़ 18 लाख (49 लाख लड़कियां और 69 लड़के) लोग विवाहित हैं। इनमें से 18 साल से कम उम्र की एक लाख 30 हजार लड़कियां विधवा हो चुकी हैं और 24 हजार लड़कियां तलाकशुदा या पतियों द्वारा छोड़ी गई हैं। यही नहीं 21 साल से कम उम्र के करीब 90 हजार लड़के विधुर हो चुके हैं और 75 हजार तलाकशुदा हैं। वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक राजस्थान देश के उन सभी राज्यों में सर्वोपरि है, जिनमें बाल विवाह की कुप्रथा सदियों से चली आ रही है । राज्य की 5.6 फीसदी नाबालिग आबाद विवाहित है। इसके बाद मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, गोवा, हिमाचल प्रदेश और केरल आते हैं।

दरअसल, बाल विवाह को रोकने के लिए 1929 में अंग्रेजों के शासनकाल में बने शारदा एक्ट के बाद कोई कानून नहीं आया। शारदा एक्त में तीन बार संशोधन किए गए, जिनमें हर बाल विवाही के लिए लड़के व लड़की उम्र में बढ़ोतरी की गई। शारदा एक्ट के मुताबिक बाल विवाह गैरकानूनी है, लेकिन इस एक्ट में बाल विवाह को खारिज करने का कोई प्रावधान नहीं है। इसी बड़ी खामी के चलते यह कारगर साबित नहीं हो पाया। इस अधिनियम में अधिकतम तीन माह तक की सजा का प्रावधान है। विडंबना यह भी है कि शादा एक्ट के तहत बाल विवाह करने वालों को सजा का प्रावधान है, लेकिन बाल विवाह कराने वालों या इसमें सहयोग देने वालों को सीधे दंडित किए जाने का कोई प्रावधान नहीं है। हालांकि दोषी पाए जाने पर नामामत्र सजा दी जा सकती है। इतना ही नहीं इस कानून की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि पहले तो इस संबंध में मामले ही दर्ज नहीं हो पाते और अगर हो भी जाते हैं तो दोषियों को सजा दिलाने में काफी दिक्कत होती है। नतीजतन, दोषी या तो साफ बच निकलते हैं या फिर उन्हें मामूली सजा होती हैं। अंग्रेजों ने शारदा एक्ट में कड़ी सजा का प्रावधान नहीं किया और इसे दंड संहिता की बजाय सामाजिक विधेयक के माध्यम से रोकने की कोशिश की गई। दरअसल, अंग्रेज इस कानून को सख्त बनाकर भारतीयों को अपने विरुध्द नहीं करना चाहते थे। अफसोस की बात यह भी है कि आजादी के बाद बाल विवाह को रोकने के लिए बड़े-बड़े दावे वाली सरकारों ने भी बाल विवाह को अमान्य या गैर जमानती अपराध की श्रेणी में लाने की कभी कोशिश नहीं की। महिला आयोग और मानवाधिकार आयोग और मानवाधिकार आयोग भी बाल विवाह पर अंकुश लगाने के लिए जमीनी स्तर पर काम करने की बजाय भाषणों पर ही जोर देते हैं।

बाल विवाह अधिनियम-1929 और हिन्दू विवाह अधिनियम-1955 की दफा-3 में विवाह के लिए अनिवार्य शर्तों में से एक यह भी है कि विवाह के सम लड़ी की उम्र 18 साल और लड़के की उम्र 21 साल होनी चाहिए। अगर विवाह के समय लड़के और लड़की की उम्र निर्धारित उम्र से कम हो तो इसकी शिकायत करने पर हिंदू विवाह अधिनियम की धारा-18 के तहत दोषी व्यक्ति को 15 दिन की कैद या एक हजार रुपये जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। कानून की नजर में भले ही इस तरह का विवाह दंडनीय अपराध हो, लेकिन इसके बावजूद इसे गैरकानूनी नहीं माना जाता और न ही इसे रद्द किया जा सकता है। इसके अलावा अगर हिंदू लड़की उम्र विवाह के समय 15 साल से कम है और 15 साल की होने के बाद वह अपने विवाह को स्वीकार करने में मना कर दे तो वह तलाक दे सकती है लेकिन अगर विवाह के समय उसकी उम्र 15 साल से ज्यादा (भले ही 18 साल से कम हो) हो तो वह इस आधार पर तलाक लेने की अधिकारी नहीं। हिंदू विवाह अधिनियम के मुताबिक विवाह के समय लड़की उम्र 18 साल से कम नहीं होनी चाहिए, लेकिन भारतीय दंड संहिता-1860 की दफा-375 के तहत 15 साल से कम उम्र की अपनी पत्नी के साथ सहवास करना बलात्कार नहीं है। काबिले-गौर है कि भारतीय दंड संहिता-1860 की दफा-375(6) के मुताबिक किसी भी पुरुष द्वारा 16 साल से कम उम्र की लड़की के साथ उसकी सहमति या असहमति से किया गया सहवास बलात्कार है। भारतीय दंड संहिता की दफा-375 में 16 साल से कम उम्र की लड़ी के साथ बलात्कार की सजा कम से कम साल कैद और जुर्माना है, लेकिन इस उम्र की अपनी पत्नी के साथ बलात्कार के मामले में पुरुषों को विशेष छूट मिल जाती है। इतना ही नहीं अपराधिक प्रक्रिया संहिता-1973 में बलात्कार के सभी तरह के मामले संगीन अपराध हैं और गैर जमानती हैं, लेकिन 12 साल तक की पत्नी के साथ बलात्कार के मामले संगीन नहीं हैं और जमानती भी हैं। इस तरह के भेदभाव पूर्ण कानूनों के कारण भी देश में पीड़ित महिलाओं को इंसाफ नहीं मिल पाता।

देश के विभिन्न इलाकों में अक्षय तृतीया, तीज और बसंत पंचमी जैसे मौकों पर सामूहिक बाल विवाह कार्यक्रम आयोजित कर खेलने-कूदने की उम्र में बच्चों को विवाह के बंधन में बांध दिया जाता है। इन कार्यक्रमों में राजनीतिक दलों के नेता और प्रशासन के आला अधिकारी भी शिरकत कर बाल नन्हें दंपत्तियों को आशीष देते है । सर्वोच्च न्यायालय ने बाल विवाह को गंभीरता से लेते हुए मई 2005 में देशभर के जिलाधिकारियों और पुलिस प्रमुखों को आदेश दिया था कि वे इन्हें रोकने के लिए हर संभव प्रयास करें। यह निर्देश न्यायमूर्ति एसबी सिन्हा और न्यायमूर्ति एच कपाड़िया की खंडपीठ ने दिया था। सर्वोच्च न्यायालय में फोरम फोर फेक्ट फाइडिंग, डॉकूमेंटेशन एंड एडवोकेसी ने एक जनहित याचिका दायर कर उत्तरी कर्नाटक के दावणगेरे और गुलबर्गा आदि जिलों में होने वाले बाल विवाह की शिकायत की थी। याचिका में बताया गया था कि दो साल पहले दो मंत्रियों ने भी ऐसे समारोह में शिरकत की थी। याचिका में बाल विवाहों को गैर कानूनी होते हुए भी अमान्य घोषित न किए जाने पर ध्यान दिलाया गया था। याचिका पर सुनवाई के दौरा सॉलिसिटर जनरल जीई वाहनवती ने बताया था कि इस कानून बाल विवाह अधिनियम-1929 की जगह लेने के लिए पिछले साल बाल विवाह विधेयक संसद में पेश किया गया था और जनता से सुझाव व आपत्तियां भी मांगी गई थीं। याचिकाकर्ताओं ने इस विधेयक की धारा-31 पर आपत्ति उठाई थी कि कोई बाल विवाह तभ अमान्य होगा जब संबंधित बालक या बालिका इसके लिए कानूनी कार्रवाई करे। पिछले साल 19 दिसंबर को लोकसभा में बाल विवाह निवारण अधिनियम-2006 को मंजूरी दी गई है। राज्यसभा यह विधेयक 14 दिसंबर को ही पारित कर चुकी थी । संसद ने यह विधेयक बच्चियों की दर्दभरी दास्तानों को सुनने के बाद भावुक होकर पास किया। इस कानून को लागू कराने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को सौंपी गई है। बाल विवाह रोकने में यह नया कानून कितना सार्थक साबित होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

Thursday 18 October, 2007

श्री नरेन्‍द्र मोदी- विजयी विश्वास

लेखक- किशोर मकवाणा


विधानसभा चुनाव की घोषणा होते ही गुजरात के दो प्रमुख राजनीतिक दलों भाजपा एवं कांग्रेस में हलचल बढ़ गई है। किन्तु यहां चुनाव युध्द एकतरफा ज्यादा लग रहा है। एक ओर भाजपा में जहां गुजरात के विकास पुरुष एवं प्रामाणिकता की कसौटी पर खरे मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी हैं, तो दूसरी ओर प्रदेश कांग्रेस में श्री मोदी की टक्कर का कोई नेता नहीं है। चर्चा है कि कांग्रेस के चुनाव प्रचार का पूरा दारोमदार कांग्रेस के नवनियुक्त महासचिव राहुल गांधी के कंधों पर होगा। पर राहुल गांधी कितने वोट खींच सकते हैं, इसका उदाहरण उत्तर प्रदेश में मिल चुका है। सुबह से शाम तक धूल भरी सड़कों पर घूमने के बाद भी राहुल प्रदेश कांग्रेस में जान नहीं ला सके। उल्टे वहां कांग्रेस की सीटें कम हो गईं। इसलिए गुजरात में वे कांग्रेस को लाभ पहुंचा पाएंगे, इसमें सन्देह है।

आज गुजरात में मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता चरम पर है। जनता स्वयं कह रही है कि श्री मोदी ने पांच वर्ष में जितने काम किए हैं, उतने तो विगत 50 वर्ष में भी नहीं हुए थे। इस बात को विरोधी भी स्वीकार कर रहे हैं। गुजरात के वरिष्ठ लेखक एवं चिन्तक श्री गुणवंत शाह, जो भाजपा के आलोचक रहे हैं, कहते हैं, 'गुजरात भाग्यशाली है कि उसे एक ऐसा युवा नेता मिला है, जिसने सिर्फ 5 साल में 50 वर्ष के बराबर काम कर दिखाए हैं।' प्रसिध्द पत्रकार श्री भगवती कुमार शर्मा ने कहा, 'श्री नरेन्द्र मोदी की प्रतिभा प्रामाणिक नेता की है। उन्होंने बहुत कार्य किया है। उनके स्तर का आज कोई भी नेता नहीं हैं।' वडोदरा के एम.एस. विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर प्रियवदन पटेल ने एक राष्ट्रीय स्तर की संस्था के लिए गुजरात चुनाव के संदर्भ में एक सर्वेक्षण किया है, जिसका निष्कर्ष है कि आज भी राज्य के पटेल मतदाता भाजपा के साथ मजबूती से जुड़े हैं। राज्य की 66 प्रतिशत जनता नरेन्द्र मोदी के कार्यों से खुश है।

श्री मोदी की ईमानदारी के संदर्भ में विरोधी भी कहते हैं कि उन पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। अगर वे पुन: मुख्यमंत्री बनते हैं तो गुजरात विश्वभर में एक प्रतिस्पर्धी के रूप में उभरेगा। श्री नरेन्द्र मोदी की यह छवि सिर्फ कागज पर ही नहीं, धरातल पर भी दिखती है। लोग उनके कार्यों से उनके प्रशंसक बने हैं। भ्रष्टाचारियों से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। यहां तक कि भ्रष्टाचार में डूबे अपनी पार्टी के लोगों को भी उन्होंने जेल में डलवाया। श्री मोदी 18-18 घंटे स्वयं काम करते हैं और सरकारी तंत्र को भी चुस्त-दुरुस्त रखते हैं। अपनी मेहनत एवं सूझबूझ से उन्होंने गुजरात को देश का अग्रणी राज्य बनाया है। रिजर्व बैंक की रपट के अनुसार हाल के वर्षों में गुजरात में सबसे अधिक पूंजीनिवेश हुआ है। राजीव गांधी फाउण्डेशन (जिसकी रपट पर कांग्रेस में खूब खलबली मची थी) ने भी गुजरात को औद्योगिक दृष्टि से सबसे अधिक अनुकूल राज्य कहा है। विश्वविख्यात उद्योगपति रतन टाटा ने तो यहां तक कहा है कि जो गुजरात में पूंजीनिवेश नहीं करता है, वह नासमझ है। केवल औद्योगिक क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि कृषि क्षेत्र में भी स्थिति बदली है। कृषि उत्पादन 9000 करोड़ रु. से बढ़कर 34,000 करोड़ रु. तक पहुंच गया है। दिल्ली, मुम्बई जैसे बड़े शहरों में भी बिजली की किल्लत है, किन्तु गुजरात देश का ऐसा पहला राज्य है जहां गांवों में भी 24 घंटे बिजली रहती है। 'ज्योति ग्राम योजना' के माध्यम से गांव-गांव में बिजली पहुंची है। आपराधिक घटनाओं में 26 प्रतिशत की कमी आई है।

श्री मोदी ने मछुआरों के लिए 11 हजार करोड़ रु. एवं वनवासियों के लिए 15 हजार करोड़ रु. की दो योजनाएं शुरू कीं, जिनसे इन वर्गों में खुशहाली आई है। उन्होंने सरकारी योजनाओं को क्रियान्वित कराने में जनता की सहभागिता को प्राथमिकता दी है।

कुछ विश्लेषक कहते हैं कि श्री मोदी को भाजपा के ही असंतुष्ट हानि पहुंचा सकते हैं, किन्तु इस तर्क में दम नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि इन असन्तुष्टों का अस्तित्व भाजपा के बिना कुछ भी नहीं है। कांग्रेस ने श्री नरेन्द्र मोदी के विरुध्द अनेक मनगढ़ंत आरोप लगाए, किन्तु वे सभी बेअसर हुए। चुनाव में विकास के साथ-साथ रामसेतु का मुद्दा भी उठने वाला है। चुनावी पंडित कह रहे हैं कि यह शायद गुजरात का पहला ऐसा चुनाव है जिसमें जनता पूरी तरह भाजपा के साथ है। इस बार भाजपा यदि 150 सीटों का आंकड़ा पार कर ले तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।

Wednesday 17 October, 2007

कभी सुनी है आपने कामरेडों की आवाज? -तवलीन सिंह


तवलीन सिंह सुप्रसिद्ध स्तंभकार है। देश के अनेक प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में आपके लेख नियमित रुप से छपते है, जिसमें इंडियन एक्सप्रेस और पंजाब केसरी उल्लेखनीय है। स्पष्टवादिता और प्रखर चिंतन आपके लेखन की विशेषता है। निम्न लेख में उन्होंने कम्युनिस्टों की जमकर खबर ली है और स्पष्ट रुप से कहा है कि कोलकाता की गलियों में घूमने के बाद साबित करने की जरूरत नहीं है कि मार्क्सवादी विचारधारा भारत की समस्याओं का हल नहीं है। प्रस्तुत लेख पंजाब केसरी से साभार है।

अगर आप उन पाठकों में से हैं जो इस लेख को हर सप्ताह पढ़ते हैं तो आप जानते होंगे कि इस लेखिका के दिल में वामपंथियों के लिए रत्तीभर इज्जत नहीं है। पिछले कुछ महीनों में यह इज्जत रत्तीभर भी नहीं रही है। कारण? प्रकाश करात, सीताराम येचुरी जैसे कामरेडों की हरकतें देखकर, उनके बयान सुनकर मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि आम आदमी की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले इन लोगों में आम आदमी के लिए कोई प्यार नहीं है। थोड़ा-सा भी होता तो सरकार गिराने के कई कारण उनको दिखते जो परमाणु करार से ज्यादा आम आदमी के जीवन में अहमियत रखते हैं। आम भारतीय नागरिक के जीवन में अभाव हर बुनियादी जरूरतों का है। नौकरी मिले तो दफ्तर तक पहुंचने के लिए बस-ट्रेन की व्यवस्था ऐसी कि धक्का-मुक्की, परेशानी बिना पहुंचना मुश्किल है। चोट लग जाए, बीमार पड़ जाए तो सरकारी अस्पताल में इलाज का कोई भरोसा नहीं। बच्चों को स्कूल भेजना हो तो समस्या एक और खड़ी हो जाए। रही मकान की बात तो मुम्बई जैसे शहर में कच्ची झुग्गी मिल जाए तो उसका मासिक किराया 1500 से कम नहीं, फुटपाठ पर बसने की कोशिश भी अक्सर पुलिस वालों के डण्डे नाकाम कर देते हैं।

ये रोजाना की समस्यायें पहले भी गम्भीर थीं लेकिन अब और गम्भीर दिखती हैं क्योंकि जो भारतीय नागरिक आम आदमी की गिनती में नहीं आते हैं, जिसके जीवन में रोटी, कपड़ा, मकान की समस्या नहीं है, उसके लिए तो अब सब कुछ है। निजी स्कूल-अस्पताल अब भारत में इतने अच्छे हैं कि राजनीतिज्ञ भी विदेश नहीं जाते और निजी परिवहन की स्थिति तो यह है कि प्राइवेट जेट बेचने वालों की कतार है अपने द्वार। मोटरगाड़ी जिसके पास लेने की क्षमता हो तो दुनिया की सबसे आलीशान गाड़ियां अब न सिर्फ भारत में मिलती हैं बल्कि बनती भी हैं।

और आम आदमी के लिए क्या? ब्ल्यू लाइन। पिछले सप्ताह दिल्ली में तीन बार ब्ल्यू लाइन बसों ने अलग-अलग जगहों पर आम आदमी को कुचला। हालत इतनी खराब हैं कि ब्ल्यू लाइन का नाम 'सीरियल किलर' रख दिया गया है। कहने को तो ब्ल्यू लाइन 'प्राइवेट' है लेकिन थोड़ी सी तफ्तीश करने पर मालूम पड़ता है कि इन बसों के मालिकों में राजनीतिज्ञ भी हैं और पुलिस वाले भी। परिवहन मंत्रालय वास्तव में जनता की सेवा कर रहा होता तो यह स्थिति नहीं होती लेकिन परिवर्तन के लिए हमारे चुने हुए सांसदों-विधायकों को आवाज उठानी पड़ती है। कभी सुनी है आपने कामरेडों की आवाज?

स्वास्थ्य की करते हैं बात तो मैं अपने ही जीवन से जुड़ा एक किस्सा सुनाती हूं। पिछले सप्ताह मेरी जान-पहचान का एक आदमी अपने चार वर्ष के बेटे को दिल्ली इलाज कराने के लिए लाया। बच्चा गढ़वाल के किसी गांव में रहता है और वहां उसकी दायी बाह की हड्डी टूटी थी तो इलाज ठीक न हो सका क्योंकि हड्डियों के डाक्टर नहीं थे। नीम-हकीम जो थे तो उन्होंने टेढ़ा जोड़ दिया और आखिरकार बच्चे को दिल्ली लाना पड़ा। लेकिन राजधानी में भी आम आदमियों के लिए राहत कहां? सरकारी अस्पताल के चक्कर काटने के बाद जब बच्चे को दुखी बाप निजी अस्पताल पहुंचा तो मालूम हुआ कि आपरेशन जरूरी हो गया है और खर्चा 30,000 हो सकता है। आम आदमियों के जीवन में स्वास्थ्य व्यवस्था के अभाव के बारे में कभी सुनी है आपने कामरेडों की आवाज?

शिक्षा के क्षेत्र में तो समस्या और भी गम्भीर है। सरकारी नीतियों ने निजी निवेश को इस क्षेत्र में इतना मुश्किल कर दिया है कि जिसकी पहुंच नहीं है वह न स्कूल खोल सकता है और न कॉलेज। नतीजा यह है कि देश के अधिकतर बच्चे या तो अशिक्षित हैं या अर्धशिक्षित और वह भी ऐसे समय जब हर जगह, हर स्तर पर बेहिसाब नौकरियां हैं लेकिन काबिल लोग नहीं। कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यह एक ऐतिहासिक अवसर है भारत के जीवन में क्योंकि इस देश में सबसे ज्यादा नौजवानों की संख्या है। विकसित देशों में भी उनकी मांग है अगर शिक्षित होते। सरकार इस समस्या का हल उसी रफ्तार से ढूंढ रही है जैसे अक्सर भारत सरकार काम करती है। कभी सुनी है आपने कामरेडों की आवाज?

आम आदमी के जीवन में अन्य गम्भीर समस्यायें हैं। यू.एन. की हाल में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं। आवास की अगर बात करें तो मालूम पड़ता है कि भारत के 30 प्रतिशत से ज्यादा लोग एक कमरे में रहते हैं या झुग्गी बस्तियों में। मुम्बई शहर में 60 प्रतिशत नागरिक झुग्गी बस्तियों में रहते हैं। ऐसे गन्दे हाल में कि किसी सभ्य देश में जानवरों को भी न रखा जाए। कभी सुना है आपने कामरेडों की आवाज?

और बोलेंगे भी क्या जब 30 वर्ष से पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी राज के बावजूद वहां भी यही समस्या है और गरीबी इतनी कि पिछले सप्ताह 6 जिलों में रोटियों कि दुकान को आम आदमियों ने लूटा। उनको शक था कि जनता के लिए वितरित किया गया अन्न खुले बाजार में बेच रहे हैं। अपनी तरफ से मैं यह कहूंगी कि जितनी गरीबी मैंने कोलकाता की गलियों में देखी है किसी और भारतीय महानगर में नहीं देखी। कोलकाता की गलियों में घूमने के बाद साबित करने की जरूरत नहीं है कि मार्क्सवादी विचारधारा भारत की समस्याओं का हल नहीं है।

शायद यही कारण है कि चुनावी राजनीति में इस विचारधारा का असर केरल और बंगाल की सीमाओं के बाहर कम ही दिखता है और यदि दिखता भी है तो भारत के गरीब राज्यों के जंगलों में जहां माओवादियों का असर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। छत्तीसगढ़ और झारखण्ड जैसे राज्यों में तो शासन इनके हाथ में खिसक गया है। क्यों नहीं कामरेड इसकी बात करते?

Tuesday 16 October, 2007

वाम दलों के आम आदमीः राजीव सचान

आम आदमी के हितों की परवाह करने वालों में वाम दल खुद को पहले नंबर पर रखते हैं। उनके आए दिन के बयान यही प्रतीति कराते हैं कि इस देश में केवल वही हैं जिन्हें आम आदमी की सबसे अधिक चिंता रहती है। उनका यहां तक दावा है कि उनके ही दबाव के चलते राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना वाला कानून आम आदमी के लिए लाभकारी सिद्ध हो सका। ऐसे दावे करने वाले वाम दलों के गढ़ पश्चिम बंगाल को लेकर ऐसी कोई धारणा बनना सहज है कि वहां तो आम आदमी अपेक्षाकृत खुशहाल होंगे, लेकिन दुर्भाग्य से वस्तुस्थिति ठीक इसके उलट है। यहां आम आदमी किस हालत में है, इसका एक प्रमाण राशन डीलरों के यहां हो रहे हमले हैं। ये हमले पिछले एक माह से जारी हैं और हाल-फिलहाल थमते नजर नहीं आ रहे हैं। राशन दुकानों में जरूरी खाद्यान्न न मिलने से क्षुब्ध ग्रामीणों का धैर्य जब जवाब दे गया तो उन्होंने राशन डीलरों के यहां हमले करने शुरू कर दिए। पहला हमला करीब एक माह पूर्व 16 सितंबर को बांकुड़ा जिले में हुआ। इसके बाद राशन डीलरों के यहां हमला बोलने और उनकी दुकानें लूटने का सिलसिला इस तरह आगे बढ़ा कि वह थामे नहीं थम रहा। बांकुड़ा के अलावा व‌र्द्धमान, बीरभूम, मुर्शिदाबाद, हुगली, नादिया आदि जिलों में राशन डीलर ग्रामीणों के निशाने पर हैं। ग्रामीणों के हमलों के भय से अब तक तीन राशन डीलर आत्महत्या कर चुके हैं और दो ग्रामीण पुलिस फायरिंग में मारे जा चुके हैं। अब गांव वाले पुलिस से दो-दो हाथ करने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं। हालात इतने खराब हैं या कहिए कि आम जन राशन डीलरों के खिलाफ गुस्से से इतना भरे हुए हैं कि पुलिस को समझ नहीं आ रहा कि वह राशन डीलरों को कैसे बचाए, दक्षिणी बंगाल के ज्यादातर इलाकों के राशन डीलर ग्रामीणों के हमले के भय से या तो अपना घर-बार छोड़कर भाग गए हैं या फिर पुलिस के साये में रहने को विवश हैं।

कुछ इलाकों में ग्रामीण घंटों नहीं, बल्कि कई-कई दिनों तक राशन डीलरों की घेरेबंदी किए रहते हैं। यदि ग्रामीण आबादी ने राशन डीलरों के खिलाफ कानून अपने हाथ में ले रखा है तो इसका मतलब है कि उनके पास और कोई विकल्प नहीं रह गया है। राशन डीलरों पर हमले की ताबड़तोड़ घटनाओं के बाद यह सामने आया कि ज्यादातर डीलर वाम दलों के कार्ड होल्डर यानी पदाधिकारी हैं। यह तथ्य उजागर होते ही वाम दल इन डीलरों से अपनी दूरी बनाने में जुट गए, लेकिन उनके पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि राशन डीलर सरकारी खाद्यान्न काले बाजार में क्यों बेच रहे थे, जब वाम दलों को अपनी इज्ज्त बचाना मुश्किल हो गया तो उन्होंने गांव वालों के गुस्से के लिए राशन डीलरों की कालाबाजारी के बजाय राशन में कमी का बहाना गढ़ा और इसके लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा दिया। आंकड़े देकर यह बताने की कोशिश की गई कि किस तरह भारतीय खाद्य निगम ने पश्चिम बंगाल का खाद्यान्न कोटा कम कर दिया है। जल्दी ही जाहिर हो गया कि यह तो वामपंथियों का झूठ था। 10 अक्टूबर को भारतीय खाद्य निगम के प्रबंध निदेशक अशोक सिन्हा को यह स्पष्ट करना पड़ा कि पश्चिम बंगाल में राशन डीलरों पर हमले के लिए निगम उत्तारदायी नहीं, क्योंकि राज्य की राशन दुकानों के लिए 60 दिन का पर्याप्त भंडार मौजूद है। उन्होंने यह भी साफ किया कि राज्य सरकार ने अपने कोटे का खाद्यान्न उठाने में दिलचस्पी ही नहीं दिखाई। जब वाम दलों ने अपनी गलती छिपाने के लिए केंद्र को दोष देना जारी रखा तो 14 अक्टूबर को केंद्रीय मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी आगे आए और बोले कि गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को खाद्यान्न उपलब्ध कराने में राज्य सरकार इसलिए विफल है, क्योंकि राज्य में सार्वजनिक वितरण प्रणाली भ्रष्टाचार से पंगु हो गई है। वैसे तो देश में शायद ही कहीं यह प्रणाली भ्रष्टाचार से मुक्त हो, लेकिन पश्चिम बंगाल में इसका भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा होना चौंकाता है। यहां यह प्रणाली इसलिए भ्रष्टाचार में डूबी है, क्योंकि ज्यादातर राशन डीलर या तो वाम दलों के नेता और कार्यकर्ता हैं या फिर इन दलों का समर्थन करने यानी उन्हें चंदा देने को बाध्य हैं।

ग्रामीणों से लुट-पिट रहे राशन डीलरों का कहना है कि वे वाम नेताओं के समर्थन के बगैर अपना काम कर ही नहीं सकते। पश्चिम बंगाल में खाद्यान्न के लिए मची मारामारी का एक पहलू यह भी है कि खाद्यान्न विभाग फारवर्ड ब्लाक के पास है। फरावर्ड ब्लाक के पास यह विभाग 1977 से यानी पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार के अस्तित्व में आने के बाद से ही है। नंदीग्राम में संघर्ष और संग्राम छिड़ने के बाद फारवर्ड ब्लाक के नेताओं ने माकपा नेतृत्व पर जमकर हमला बोला था। माना जा रहा है कि खाद्यान्न संग्राम के सिलसिले में फारवर्ड ब्लाक की किरकिरी कराने के लिए माकपा के नेतृत्व वाली सरकार जानबूझकर हाथ पर हाथ रखकर बैठी रही। सच जो भी हो, किसानों-मजदूरों-ग्रामीणों के प्रबल हितैषियों के गढ़ में खाद्यान्न के लिए दंगे जैसे हालात पैदा होना बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है। यह तो सबने जाना कि वाम दलों ने अपने समर्थन वाली केंद्र सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया, लेकिन देश को इससे भी अवगत होना चाहिए कि वे जब ऐसा कर रहे थे तो ठीक उसी समय उनके अपने घर की आम जनता राशन डीलरों पर हमले करने के लिए मजबूर थी। जब कानून, पुलिस और सरकार से भय खाने वाला आम आदमी हथियार उठाने के लिए विवश हो जाए तो यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि हालात कितने खराब हो गए होंगे, वाम दलों के नेता अभी भी यह रट लगाए हैं कि राज्य में राशन की कमी के लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार है। आखिर जिस दल के नेता केंद्र सरकार को एक अंतरराष्ट्रीय करार न करने के लिए बाध्य कर सकते हैं वे अपने कोटे का राशन क्यों नहीं बढ़वा सकते, यह तो बायें हाथ का खेल है। राजग शासन के समय जिस तरह आंध्र प्रदेश की तेलुगू देशम सरकार चावल के अपने कोटे में मनचाही वृद्धि कराती रहती थी उसी तरह का काम वाम दलों के नेता कहीं आसानी सेकर सकते थे, लेकिन जब आम आदमी की परवाह न हो तो फिर सरल काम भी बहुत कठिन हो जाते हैं। (साभार-दैनिक जागरण )

Monday 15 October, 2007

दीनदयाल उपाध्‍याय के विचार


भारतीय जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष पं. दीनदयाल उपाध्याय मूलत: एक चिंतक, सृजनशील विचारक, प्रभावी लेखक और कुशल संगठनकर्ता थे। वे भारतीय राजनीतिक चिंतन में एक नए विकल्प 'एकात्म मानववाद' के मंत्रद्रष्टा थे। प्रस्‍तुत है उनकी बहुचर्चित पुस्‍तक राष्ट्रजीवन की दिशा से उद्धत विचार-


राष्ट्र कार्य - धर्म कार्य
राष्ट्र के लिए काम करना धर्म है। राष्ट्र-कार्य को साधने के लिए जो कुछ आ पड़े करना ही उचित है। सच, झूठ सबकी कसौटी समष्टि का हित है। प्रश्न है कि राष्ट्र का, समष्टि का विचार कर कार्य किया गया है या नहीं? जैसे किसी की हत्या करना पाप है किन्तु युध्द में लड़ने वाले सैनिक को कोई हत्यारा नहीं कहता। शत्रु पर वार करना सैनिक का धर्म है। युध्द में सैनिक रोज हिंसा करता है, उसे परमवीर चक्र देकर हम सम्मानित करते हैं। क्योंकि इस कार्य में वह व्यक्तिवादी ढंग से नहीं सोच रहा। राष्ट्र का विचार कर उसने आचरण किया है। यही आचरण यदि व्यक्ति जीवन में कोई करे तो उसे फांसी की सजा होगी किन्तु युध्द में शत्रु का विनाश करना राष्ट्र-रक्षा का पुनीत कर्तव्य बन जाता है। (राष्ट्र जीवन की दिशा -दीनदयाल उपाध्याय, पृष्ठ - 29)

देशभक्त की भावना
'प्रत्येक देशभक्त व्यक्ति की ऐसी इच्छा होना स्वाभाविक ही है कि अपना देश वैभवशाली बने। राष्ट्र सुखी, सम्पन्न हो। राष्ट्रीय उत्पादन बढ़े। बेकारी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशांति का अन्त हो। न्याय सुलभ हो। आपसी झगड़े समाप्त हों, साम्प्रदायिक, क्षेत्रीय, भाषायी संकुचितताओं से ऊपर उठकर लोगों के सोचने, विचारने का तरीका हो। दलीय अभिनिवेशों से नेतागण मुक्त हों। भारत अपने राष्ट्रीय स्वरूप में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, शैक्षणिक सभी प्रकार के क्षेत्रों में लोक कल्याणकारी सिध्द हो। जिसमें ऐसी इच्छा निर्माण नहीं होती हो उसे भारतीय तो क्या मानव कहना भी कठिन है। स्व. मैथिलीशरण जी गुप्त के शब्दों में कहना हो तो 'जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है, वह नर नहीं, नरपशु निरा है और मृतक समान है।' अपने देश को गौरवशाली देखने की इच्छा प्रत्येक जीवन्त भारतीय के हृदय में उठना स्वाभाविक है। (राष्ट्र जीवन की दिशा-पं. दीनदयाल उपाध्याय, पृष्ठ-23)

Saturday 13 October, 2007

माकपा शासन में दलितों से भेदभाव




शोर मचाने में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(माक्र्सवादी) का कोई जवाब नहीं है। गोयबल्स के सच्चे अनुयायी ये ही हैं। दलितों के साथ कहीं (पश्चिम बंगाल और केरल छोड़कर) भेदभाव की भनक मिले तो वामपंथी मुट्ठियां भींचकर मुर्दाबाद के नारे लगाने लगेंगे। ये बहुत शोर मचाते थे कि पश्चिम बंगाल और केरल में दलितों और अल्पसंख्यकों की स्थिति बहुत अच्छी है। लेकिन सच्चर समिति ने इनकी पोल खोल दी। दलित और अल्पसंख्यक सबसे तंगहाल जीवन पश्चिम बंगाल में ही जी रहे है।

आज टाइम्स ऑफ इंडिया में एक खबर पढ़ी। पश्चिम बंगाल और केरल के विद्यालयों में भेदभाव। केरल सरकार द्वारा संचालित विद्यालयों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के छात्रों को कहा गया है कि वे समाज के अन्य छात्रों से अलग रंग के यूनीफॉर्म पहनकर स्कूल आएं।

Friday 12 October, 2007

रूबिया ने मंदिर में नृत्य किया तो मुल्लाओं ने समाज से निकाला


-प्रदीप कुमार
केरल में मलप्पुरम की 18 वर्षीय रूबिया और उसके परिवार को मुस्लिम समाज के कठमुल्लाओं ने जिहादी फरमान जारी करके समाज से बहिष्कृत करने का ऐलान किया है। उसका कसूर क्या है? उसका कसूर केवल इतना है कि उसे भरतनाटयम नृत्य से लगाव है और वह यह नृत्य सीखती है। बस इस 'जुर्म' के लिए स्थानीय मस्जिद कमेटी (महाल्लू) ने उसके परिवार से किसी भी तरह का व्यवहार न करने का 'फतवा' जारी कर दिया है।


स्थानीय महाल्लू से जुड़े रहना यहां के हर मुस्लिम परिवार के लिए आवश्यक होता है क्योंकि इस कारण उसे कुछ अधिकार मिलते हैं, जैसे, स्थानीय कब्रिस्तान में किसी परिजन के इंतकाल के बाद दफनाने की इजाजत। रूबिया के परिवार को यहां 'इजाजत' नहीं है और न ही उसके निकाह को समाज 'मान्य' ही करेगा।


हाल ही में केरल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय उत्सव में वी.पी. रूबिया भरतनाटयम नृत्य में प्रथम रही थी। वह मुस्लिम बहुल मलप्पुरम के मोरायूर स्थित वीरन हाजी मेमोरियल हायर सेकेन्डरी स्कूल की नृत्य प्रतियोगिता में भी सर्वश्रेष्ठ घोषित की गई थी। उसके पिता सैयद अलविकुट्टी कहते हैं कि उसे मशहूर नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई की नृत्य संस्था 'दर्पण' से न्योता भी मिला है।

मलप्पुरम के मुस्लिम बहुल क्षेत्र वल्लुवमबरम में अपने जीर्ण-शीर्ण घर में इस संवाददाता से बातचीत में श्री अलविकुट्टी ने बताया, 'यहां की मस्जिद कमेटी मेरी बेटी की इस उपलब्धि से खुश नहीं है। अगर वह 'ओप्पाना' और 'माप्पीला पट्टू' जैसी पारम्परिक मुस्लिम कलाओं में ईनाम जीतती तो अब तक उसे ढेरों पुरस्कार मिले होते। आज हम समाज-बाहर कर दिए गए हैं मगर महाल्लू नेता खुलकर यह नहीं स्वीकारेंगे कि भरतनाटयम के कारण उन्होंने ऐसा 'आदेश' दिया है।


रूबिया के घर की बैठक की दीवारें उसके नृत्य की तारीफ में मिले प्रमाण पत्रों, ट्राफियों और स्मृति चिन्हों से पटी पड़ी थीं। रूबिया तमिलनाडु की प्रसिध्द चेन्नै नृत्य अकादमी की ओर से जारी प्रमाणपत्र सगर्व दिखाते हुए बताती है, 'जब मैं वहां मयलापुर के पास हिन्दू बहुल क्षेत्र में एक मंदिर में नृत्य करने गई तो वहां के ब्राह्मणों को हिन्दी देवी-देवीताओं के भजनों पर एक मुस्लिम लड़की के नृत्य से कोई आपत्ति नहीं थी। कार्यक्रम के बाद उन्होंने मुझे बधाई दी। मगर समझ नहीं आता कि यहां मेरे घर के पास मेरे माता-पिता को दुत्कारा क्यों जाता है।' रूबिया की आंखें डबडबाने लगी थीं।


जब वह महज तीन साल की ही थी, तब उसने नृत्य सीखना शुरू किया था। आज भी वह पढ़ाई के बीच समय निकाल कर स्थानीय मंदिरों में नृत्य प्रदर्शन के लिए जाती है। परिवार पैसे वाला नहीं है अत: रूबिया के नृत्य कार्यक्रमों से सहारे के लिए कुछ पैसा मिलता है तो राहत महसूस होती है। कुछ समय पहले रूबिया की अम्मी का कैंसर के कारण इंतकाल हो चुका है। घर में उसके पिता के अलावा एक बड़ा भाई और एक छोटी बहन भी है। स्थानीय मुल्लाओं की नाराजगी उसे पहली बार तब झेलनी पड़ी थी जब वह प्रसिध्द गुरुवायूर मन्दिर के सामने नृत्य प्रदर्शन करके लौटी थी। तब स्थानीय 'महाल्लू' ने उस पर जमकर लानतें भेजी थीं। उन्हें रूबिया के एक हिन्दू मंदिर में भजन पर नृत्य करने से चिढ़ छूटी थी। 'मगर', रूबिया के पिता आगे कहते हैं, 'इस नाराजगी ने मेरे इरादे को और मजबूत ही किया और मैंने रूबिया के साथ उसकी छोटी बहन मनसिया को भी इस नृत्य में पारंगत करने का फैसला कर लिया।' वे बताते हैं, रमजान के बाद महाल्लू की ओर से पूरे इलाके में चावल और दूसरे खाद्य पदार्थ बांटे गए, केवल हमारा ही घर छोड़ दिया गया।'


यह पूछने पर कि हिन्दू समाज ने उसकी क्या मदद की, रूबिया कहती है, 'हिन्दुओं ने बहुत मदद की है। कई मंदिरों से मुझे नृत्य प्रदर्शन के निमंत्रण आते हैं। स्कूल के मेरे दोस्त, शिक्षक, गुरु सबको मुझ पर नाज है।'


रूबिया इस नृत्य में पारंगत होने के लिए गुरुओं से सीखना चाहती है, मगर अपनी गरीबी के कारण ऐसा कर पाएगी, इसे लेकर दुविधा में है। स्थानीय महाल्लू के बारे में अलविकुट्टी कहते हैं, उनके दिमागों में बहुत जहर भरा है। हम अगर पैसे वाले होते तो कोई हम पर अंगुली नहीं उठाता, हम भूखे रह लेंगे मगर रूबिया का नृत्य प्रशिक्षण जारी रखेंगे। रूबिया के कमरे में नटराज के बगल में ही शिव की एक अन्य मुद्रा 'कीरतमूर्ति' लगी है जिसकी वह नमाज के साथ-साथ पूजा करती है। वह बताती है, 'हर नृत्य से पहले मैं इस शिव प्रतिमा के आगे कुछ कुछ मिनट बैठती हूं। इससे मुझे ताकत मिलती है। नटराज से ही तो नृत्य की की भंगिमाएं उपजी हैं। मैं चिदम्बरम के प्रसिध्द नटराज मंदिर में भी गई थी।'


अम्मी अमीना की याद में रूआंसी होकर रूबिया कहती है, 'उन्होंने ही मुझे नृत्य के लिए प्रेरणा दी थी। मेरी अम्मी के कैंसर के इलाज के लिए हमारे मिलने वालों ने पैसे भेजे थे, मगर मस्जिद के मुल्लाओं ने हमारी मदद के सारे रास्ते बंद कर दिए थे। जब उनका इंतकाल हुआ तब उन मुल्लाओं ने यहां के कब्रिस्तान में उनको दफनाने की इजाजत नहीं दी।' रूबिया और उसके अब्बा गरीब हैं मगर झुकने को तैयार नहीं हैं। उन्हें उम्मीद है कि वल्लुवमबरम से बाहर के लोग उनकी मदद को आगे आएंगे। रूबिया का पता है-
द्वारा-वी.पी. अलविकुट्टी, गांव-पोस्ट-वल्लुवमबरम, जिला मलप्पुरम, केरल-673651, दूरभाष-09387507601

Thursday 11 October, 2007

अभारतीय कम्युनिस्ट

-हरेन्द्र प्रताप

रामसेतु के सवाल पर अपने हलफनामे को लेकर केन्द्र सरकार को देश के अन्दर और बाहर शर्मिंदा होना पड़ा। यूपीए के मंत्रियों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला। संस्कृति मंत्री अम्बिका सोनी और कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने कुछ निरीह कर्मचारियों को बली का बकरा भी बना दिया है। पर इस पूरे प्रकरण पर डीएमके के करुणानिधि और यूपीए को समर्थन दे रहे वामपंथियों की प्रतिक्रिया जले पर नमक छिड़कने का काम कर रही है।

भारत के इतिहास के लेखकों में जिन नामों को प्रचारित किया गया वे तथाकथित वामपंथी विचारधारा से ओतप्रोत हैं, इसलिए वामपंथी उनकी आलोचना नहीं कर सकते। शपथपत्र में श्रीराम और श्रीकृष्ण को काल्पनिक पात्र बताने का जो प्रयास किया गया है उसकी आलोचना के बदले वामपंथी इतना भर कह रहे हैं कि यह शपथपत्र का अनावश्यक हिस्सा है।

भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के प्रति इस देश की जनता के मन में जो आस्था है उस आस्था पर बहुत पहले वामपंथियों ने हमला किया था, जिसका विरोध राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों ने किया भी था। वामपंथी इतिहासकारों की कुत्सित मानसिकता को समझने हेतु कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

- 'श्रीराम, श्रीकृष्ण और अर्जुन' के बारे में एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में इतिहास के तथाकथित वामपंथी लेखकों आर.एस. शर्मा (एनशियेंट इंडिया) एवं सतीश चन्द्रा (मेडियावेल इण्डिया) ने उन्हें काल्पनिक पात्र घोषित कर दिया था।

केन्द्र सरकार की विदेशी मूल की नेता और सरकार को चलाने वाले वामपंथी विदेशी विचार के जीवंत उदाहरण हैं। अत: विदेशी नेतृत्व और विदेशी विचार ने हजारों वर्षों से भारत के जन-जन में बसने वाले श्रीराम और श्रीकृष्ण को अगर काल्पनिक घोषित किया है तो इसमें उनका दोष ही क्या है?

- देश इस समय 1857 की 150वीं वर्षगांठ मना रहा है। 1857 के समय साम्यवादी विचारधारा का नाम भी भारत में किसी ने नहीं सुना था। अगर सुना होता तो भारत के कम्युनिस्ट 1857 के सेनानियों को भी कम्युनिस्ट घोषित करने में जरा सा भी संकोच नहीं करते। फिर भी भारत के स्वाधीनता संग्राम के बारे में कम्युनिस्टों ने अनेक पुस्तकें प्रकाशित की हैं। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रमुख सेनानी सरदार भगत सिंह को सामने रखकर स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान किए गए वामपंथी विश्वासघात को ढकने का असफल प्रयास जारी है।

- भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर, 1907 को हुआ तथा 23 मार्च, 1931 को उन्हें फांसी दे दी गई। मात्र साढ़े 23 वर्ष में भगत सिंह की कुछ तत्कालीन प्रतिक्रियाओं को उध्दृत करके उन्हें जोर शोर से कम्युनिस्ट घोषित कर दिया गया। चूंकि 1941 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का कुरूप चेहरा विश्व पटल पर उजागर हुआ, अत: कम्युनिस्ट आकर्षण के मोहजाल में फंसे अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने कम्युनिस्टों के असली चेहरे को पहचान लिया, पर दुर्भाग्य से यह अवसर भगत सिंह को नहीं मिला। अगर भगत सिंह भी 1941 तक जीवित रहते तो वे स्वयं कहते कि साम्यवाद एक खतरनाक विचार है, इस विचारधारा को साथ लेकर देश को आजाद नहीं किया जा सकता।

भारत का स्वाधीनता संग्राम- (लेखक - ई.एम.एस. नंबूदिरिपाद, अनुवादक-आनंदस्वरूप वर्मा) पुस्तक के माध्यम से नंबूदिरिपाद ने यह सिध्द करने का प्रयास किया है कि भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में कम्युनिस्ट विचारधारा और कम्युनिस्ट नेतृत्व ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। महात्मा गांधी और कांग्रेस का कद छोटा करने के लिए उन्होंने गांधी और कांग्रेस को बार-बार वामपंथी गाली 'बुर्जुआ' से सम्बोधित किया है।

नंबूदिरिपाद ने अपनी उपरोक्त पुस्तक के पृष्ठ 138 पर यह स्वयं स्वीकार किया है कि लेनिन के भाई ने भारत के आन्दोलन से प्रभावित होकर ही 'जार' की हत्या का प्रयास किया जिसके लिए उन्हें मृत्युदण्ड प्राप्त हुआ। नंबूदिरिपाद की पुस्तक के पृष्ठ 260 के अनुसार 1927 में ही जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस को कम्युनिस्ट घोषित कर दिया गया था। उसी पुस्तक के पृष्ठ 481 पर आचार्य नरेन्द्र देव, पृष्ठ 490 पर एम.आर.मसानी, अशोक मेहता तथा डा. राम मनोहर लोहिया एवं पृष्ठ 491 पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण को कम्युनिस्ट विचारधारा का क्रांतिकारी घोषित किया है। जिस मार्क्स और एंजेल्स को वे साम्यवाद का जनक मानते हैं उसी मार्क्स और एंजेल्स को भारत की कितनी समझ थी इसकी कुछ झलक नंबूदिरिपाद की पुस्तकों में दिखती है, यथा-

मार्क्स ने भारत पर मुस्लिम आक्रमण और अंग्रेजों के दमन का समर्थन निम्न रूप में किया है-

'जिस प्रकार इटली को समय-समय पर आक्रमणकारी की तलवार विभिन्न प्रकार के जातीय समूहों में बांटती रही है उसी प्रकार हम पाते हैं कि हिन्दुस्थान पर मुसलमानों, मुगलों या अंग्रेजों का दबाव नहीं होता तो उसमें जितने शहर या कहें कि जितने गांव होते वे उतने ही स्वतंत्र और विरोधी राज्यों में बंट जाते।' (पृष्ठ-11)

नंबूदिरिपाद ने अपनी पुस्तक के 495 पृष्ठ पर यह घोषित कर दिया कि 'गांधी, नेहरू और सुभाष भारतीय बुर्जुआ वर्ग के नेता थे।' जिन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को इन्होंने कम्युनिस्ट घोषित किया था उन्हीं को 1942 आते-आते 'तोजो का कुत्ता' घोषित करने में इन्हें शर्म नहीं आई।

भारतीय इतिहास की जैसी मार्क्सवादी व्याख्या नंबूदिरिपाद ने की है वह भविष्य में इतिहास की प्रमाणित पुस्तक न हो जाए, इसलिए यह आवश्यक है कि वामपंथियों को बेनकाब किया जाए।

1942 में भारत के सभी नेताओं ने 'अंग्रेजों, भारत छोड़ो' आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया क्योंकि उनकी मान्यता यह थी कि इंग्लैण्ड जर्मनी के साथ विश्वयुध्द में फंसा हुआ है अत: अभी आन्दोलन को उग्र किया जाए तो भारत को आजादी मिल जायेगी। विश्वयुध्द में इंग्लैण्ड, अमरीका और सोवियत संघ 'मित्र राष्ट्र' बनकर जर्मनी के खिलाफ लड़ रहे थे। एक तरफ साम्राज्यवाद था तो दूसरी तरफ फासिज्म। चूंकि भारत को अंग्रेजों ने गुलाम बनाया हुआ था अत: भारत के स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों को दुश्मन मानकर संगठित आन्दोलन चलाया। पर 1942 के आन्दोलन में भारत के कम्युनिस्टों ने स्वतंत्रता आन्दोलन का न केवल विरोध किया बल्कि अंग्रेजों के लिए मुखबिरी भी की।

देश के बौध्दिक जगत पर तो कम्युनिस्टों का पहले से ही कब्जा बना हुआ है। आने वाले दिनों में हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन को भी छीन न लें इसकी सावधानी देश के प्रबुध्द वर्ग को बरतनी होगी।

Wednesday 10 October, 2007

मकबूल फिदा हुसैन की विवादास्पद पेन्टिंग

नग्न हनुमान और सीता रावण की जंघा पर बैठे हुए
हुसैन ने इस चित्र में मार्क्स का जैसा चित्र बनाया है वह देखिए। लेकिन गांधीजी को जिस वीभत्सता से चित्रित किया है क्या उस पर किसी टिप्पणी की आवश्यकता है?

चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन अपनी गिरफ्तारी के डर से इन दिनों लन्दन में रह रहे हैं। इधर उन्हें सम्मानित करने की होड़ लगी है। पिछले दिनों केरल की वामपंथी सरकार ने उन्हें राजा रवि वर्मा पुरस्कार देने की घोषणा की थी। पर केरल उच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाये जाने पर वह पुरस्कार उन्हें मिल नहीं सका। अब दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय ने हुसैन को मानद उपाधि देने की घोषण की है। 30 अक्तूबर को एक समारोह करके यह उपाधि दी जानी है। हुसैन ने विश्वविद्यालय की उपाधि स्वीकारने की सूचना दे दी है मगर वे खुद इस कार्यक्रम में आ पायेंगे या नहीं, इसे लेकर कुछ संशय है। क्योंकि भारत में अदालत में उनके विरुध्द मामले चल रहे हैं। इस स्थिति में विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी अनुपस्थिति में ही उन्हें सम्मानित करने की घोषणा की है। हुसैन वही चित्रकार हैं जिन्होंने मां दुर्गा, मां सरस्वती, देवी सीता, भारत माता, हनुमान जी के अश्लील चित्र बनाकर सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करनी चाही थी। हिन्दू आस्था केन्द्रों पर अपनी दूषित सोच के जरिए अभद्र प्रहार करने वाला यही चित्रकार जब किसी मुस्लिम विभूति अथवा मदर टेरेसा का चित्र बनाता है तो वह गरिमा का ध्यान रखता है। इससे इस 92 वर्षीय चित्रकार की मानसिकता क्या उजागर नहीं हो जाती है? साभार- पांचजन्य

Tuesday 9 October, 2007

बर्मा में भारत की उलझन







लेखक- स्वपन दासगुप्ता
भारत के लिए अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंधों के मामले में यह अटपटा समय है। पिछले दिनों गार्जियन में एक निर्वासित बर्मी और थाईलैंड स्थित इरावेडी मैगजीन के संपादक आंग जा ने जो कुछ लिखा वह बेशक भारतीयों को शर्मसार करने वाला है। उन्होंने लिखा-बर्मा के नेता अभी भी यह मानते हैं कि उन्हें अपने शासन को जारी रखने के लिए चीन, भारत और रूस का सहयोग मिलता रहेगा।- दो नैतिकताविहीन राष्ट्रों के साथ भारत को रखा जाना अपने आप में एक खराब अनुभव है। यह तब और अधिक कष्टप्रद हो जाता है जब नई दिल्ली को दमनकारी सैन्य जुंटा को समर्थन देता हुआ देखा जाता है। यह विडंबना ही है कि महात्मा गांधी का देश बर्मा में लोकतांत्रिक आंदोलन का दमन कर रही जुंटा के खिलाफ लामबंद होने की पश्चिमी जगत की कोशिशों में सुर नहीं मिला रहा।

यदि दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन चलाने वाले नेल्सन मंडेला को भारत का समर्थन मिल सकता है और ऐसा कर नई दिल्ली गांधी की विरासत पर गौरवान्वित हो सकती है तो अब बर्मा में एक ऐसी साहसी महिला की बात है जो आंसू बहा रही है और अपने देश में लोकतंत्र के समर्थन में बौद्ध भिक्षुओं के मौन प्रदर्शन को खुद भी मौन रहकर देख रही है। बर्मा की राजधानी यांगून में आंग सान सू की अपने घर में नजरबंद हैं, लेकिन लोकतंत्र के लिए उनकी लड़ाई अप्रतिम है। लोकतंत्र के लिए एक और प्रतिबद्ध संघर्ष के रूप में सू की ने यह लड़ाई भले ही दो दशक पहले आरंभ की हो, लेकिन आज यह साहसी और दृढ़ विचारों वाली महिला जीवंत गांधी के रूप में नजर आ रही है। बर्मा की घटनाओं ने भारतीय विदेश नीति के समक्ष एक गंभीर धर्म संकट उपस्थित कर दिया है। इसमें जरा भी संदेह नहीं कि प्रत्येक भारतीय का हृदय नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी तथा उसकी नजरबंद नेता के साथ है। आंग सान सू की का पालन-पोषण, उनकी शिक्षा तथा उनके मूल्य हर तरह से उन्हें हमारे अपने बीच की महिला बनाते हैं। बावजूद इसके पिछले एक दशक में सिर्फ जार्ज फर्नाडीज ही आंग सान सू की के पक्ष में खुलकर और निरंतरता से बोले हैं।

भारतीयों के लिए सू की और 74 वर्षीय वरिष्ठ जनरल थान श्वे के बीच कोई चयन ही नहीं है। यह अच्छाई और बुराई के बीच एक साधारण लड़ाई है-दुर्गा और महिषासुर के बीच प्राचीन युद्ध की तरह। वैसे भारत के सतर्क और देखो और प्रतीक्षा करो वाले दृष्टिकोण के समर्थन में दिए जाने वाले तर्को को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता। 1990 के दशक के आरंभ में भारत ने बर्मा में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन में अपनी गर्दन फंसा ली थी और इसके परिणाम उसे भुगतने पड़s थे। बर्मा के जनरलों ने सीमा पार के क्षेत्रों से अपनी गतिविधियां संचालित कर रहे नगा, मणिपुरी और असमी विद्रोहियों की ओर से आंखें फेर ली थीं। भारत और बर्मा के बीच संबंधों में आए तनाव का फायदा उठाते हुए चीन ने वहां अपनी जड़ें मजबूत करने में देर नहीं लगाई। 1990 के दशक के मध्य से आरंभ हुए धैर्यपूर्ण कूटनीतिक प्रयासों के बाद ही नई दिल्ली क्षति की भरपाई कर करने में सफल रही। व्यापारिक उपस्थिति के साथ-साथ पूर्वी सीमा को सुरक्षित बनाने में बर्मा का सहयोग फिर से हासिल करने के लिए भारत को जो कीमत चुकानी पड़ी वह थी लोकतंत्र और मानवाधिकारों के मामले में पूर्ण खामोशी। यह सही है कि भारत चीन की पकड़ को पूरी तरह विफल करने में सफल नहीं रहा है] लेकिन इतना तो है ही कि भारत की बर्मा में अर्थपूर्ण उपस्थिति है। अपने मतलब के लिए ही सही, लेकिन जुंटा भी पारस्परिक हितों पर आधारित समझबूझ में पीछे नहीं हटी। अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश और ब्रिटिश प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन सैन्य जुंटा के खिलाफ अपनी नाराजगी के प्रति भले ही ईमानदार हों, सच्चाई यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन और बाकी यूरोपीय संघ के बर्मा में कोई महत्वपूर्ण, सामरिक और व्यापारिक हित नहीं जुड़े हैं। लिहाजा सऊदी अरब और पाकिस्तान के विपरीत बर्मा की सैन्य जुंटा के खिलाफ वे सख्त कदम उठा सकते हैं। सू की के आंदोलन की मौलिक सराहना और सैन्य शासन की आमतौर पर होने वाली निंदा को छोड़ दिया जाए तो पश्चिम का बर्मा से कोई सीधा लेना-देना नहीं है। बर्मा में लोकतंत्र के प्रति पश्चिमी जगत की संवेदनशीलता का ज्यादा मतलब दरअसल चीन के कारण है। कोंडोलिजा राइस या डेविड मिलिबैंड मानें या न मानें, लेकिन सच यह है कि बर्मा का घटनाक्रम एशिया में चीन के वर्चस्व को लेकर उभरी चिंताओं से जुड़ा हुआ है। यह कम विचित्र नहीं है कि बर्मा के मामले में भारत और पश्चिम के हितों में काफी कुछ समानता है। भारत आदर्श रूप में बर्मा में ऐसा शासन चाहेगा जो भले ही पश्चिम समर्थक हो, लेकिन चीन से दूर रहे। ऐसा कोई शासन यदि भारत में शिक्षित आंग सान सू की के नेतृत्व में कायम होता है तो इससे बेहतर कुछ और नहीं हो सकता। हालांकि बर्मा में लोकतंत्र की लड़ाई में फंसने से पहले भारत को दो बातों पर आश्वस्त होना होगा।

पहला यह कि भारत को इस पर सुनिश्चित होना होगा कि लोकतंत्र समर्थक आंदोलन वास्तव में सफल हो अर्थात सैन्य शासन जन दबाव के आगे घुटने टेकने के लिए विवश हो जाए। यदि लोकतंत्र के पक्ष में चलाया जा रहा आंदोलन एक बार फिर कुचल दिया जाता है तो जुंटा उन देशों से पूरी कीमत वसूलेगी जो इस आंदोलन के समर्थन में होंगे। फिलहाल संकेत बहुत उत्साहजनक नहीं हैं। दूसरे, सैन्य जुंटा के असामयिक पतन से बर्मा में केंद्रीय शासन कमजोर होगा और पूरी आशंका है कि चीन इस मौके का फायदा उठाकर स्थानीय विद्रोहियों को अपना समर्थन देना आरंभ कर देगा। बर्मा में कोई भी अस्थिरता भारत में उत्तार-पूर्व के बागियों को नए अवसर उपलब्ध करा सकती है। क्या तब पश्चिमी जगत भारत की मदद के लिए आगे आएगा। अपने हितों के लिए भारत को एक स्थिर और आत्मविश्वासी बर्मा की आवश्यकता है, जो चीन को दूर रख सके। हमारी आतंरिक बहस को उस दिशा में केंद्रित होनी चाहिए जिससे यह उद्देश्य हासिल किया जा सके। बाकी सब धोखा है।(साभार- दैनिक जागरण)

Monday 8 October, 2007

Saturday 6 October, 2007

तब माकपा अब माकपाः राष्ट्रीय सहारा

पश्चिम बंगाल के दो जिलों बीरभूम और बांकुडा में पिछले तीन दिन लगातार सरकारी राशन की दुकानों पर आम लोगों के छापे पडे। धांधली के दोषी कोटेदार घरों-दुकानों से खींचकर पीटे गए और उन्‍हें बचाने गई पुलिस द्वारा चलाई गई लाठियों-गोलियों से कई लोग घायल हुए या मारे गए।

यह वही पश्चिम बंगाल है जहां साठ और सत्‍तर के दशक में तब की विपक्षी और फिलहाल सत्‍तारूढ मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी ने भ्रष्‍ट कोटा राज के खिलाफ 'दमदम हवाई' जैसा फार्मूला ईजाद किया था। उस समय राशन वितरण में धांधली करनेवाले दुकानदारों के खिलाफ चलाए गए माकपा के हिंसक आंदोलनों ने उसे एक ट्रेड यूनियन चलाने वाली पार्टी से आम जनता की प्रतिनिधि पार्टी बना दिया था। लेकिन आज बीरभूम और बांकुडा में चल रहे ठीक वैसे ही आंदोलनों के पक्ष में खडा होना तो दूर, उनके प्रति सहानुभूति के दो शब्‍द बोलना भी माकपा के लिए संभव नहीं हो पा रहा है। और तो और, माकपा नेतत्‍व को इन आंदोलनों के पीछे कांग्रेस, तणमूल कांग्रेस और भाजपा ही नहीं, नक्‍सलियों का भी हाथ नजर आने लगा है।

पार्टी ने कोलकाता में जारी किए गए एक आधिकारिक बयान में समूचे संसदीय और गैर-संसदीय विपक्ष पर राज्‍य में जन वितरण प्रणाली को बाधित करने का आरोप लगाया है। इस बयान में अगर सच्‍चाई का कोई अंश हो, तब भी यह आश्‍चर्यजनक है। तीन दिनों से लगातार कोटे की दुकानों पर गदर मचा हुआ है, कोलकाता से कोई सरकारी या गैर-सरकारी जांच दल भी अभी तक बीरभूम और बांकुडा में जमीनी हकीकत की पडताल करने नहीं जा सका है। फिर माकपा नेतत्‍व इतने दावे के साथ कोटेदारों को क्‍लीन चीट देते हुए इन फसादों के पीछे बाकायदा नाम लेकर कुछ पार्टियों का हाथ होने की बात कैसे कर रहा है। क्‍या इसके पीछे यह धारणा काम कर रही है कि राज्‍य में सारे कोटे, परमिट और लाइसेंस तो माकपा कार्यकर्ताओं को ही दिए जाते है और ये कार्यकर्ता और चाहे जो भी करें, धांधली या भ्रष्‍टाचार तो किसी भी सूरत में नहीं कर सकते। ऐसी खुशफहमियां अपने प्रभाव क्षेत्र से बाहर के राज्‍यों में अपनी पीठ थपथपाने और केन्‍द्र की राजनीति में अपने जलवे दिखाने के काम जरूर आती हैं, लेकिन गरीबी और भूखमरी से जूझ रही पश्चिम बंगाल की गरीब जनता का इनसे कोई भला नहीं होता।

पिछले एक साल में सिंगूर से लेकर नंदीग्राम तक लोगों को कम्‍युनिस्‍ट कार्यकर्ताओं और कम्‍युनिस्‍ट सरकार के कुछ ऐसे चेहरे देखने को मिले हैं, जिनसे उनका कुछ साल पहले ज्‍यादा परिचय नहीं था। अब शायद उन्‍हें कोटा-परमिटदारों से ऐसे ही चेहरों की कुछ अलग बानगियां दिखाई दे रही हों। जिस पार्टी और गठबंधन को इस राज्‍य में 1977 से लेकर अब तक लगातार छह कार्यकाल हासिल हो चुके हों, उसके अन्‍य दलों की तुलना में बेहतर होने को लेकर कोई सवाल उठाना उचित नहीं होगा, लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि जमीन पर दिखाई दे रहे जनाक्रोश की अनदेखी कर दी जाए। क्‍या यह अच्‍छा नहीं होगा कि केंद्र में अपने सहयोग से चल रही सरकार की देश-दुनिया के तमाम मुद्दों को लेकर लगभग रोज ही खिंचाई करने वाली माकपा अब थोडी चिंता पश्चिम बंगाल की जमीनी तकलीफों की भी करना शुरू कर दे।
( साभार- संपादकीय, राष्ट्रीय सहारा, शुक्रवार, 5 अक्टूबर, 2007 )

Friday 5 October, 2007

पाकिस्तान में भगवान बुध्द की प्राचीन प्रतिमा का ध्वंस

लेखक- शाहिद रहीम

सीमा प्रांत (सरहद) के जिला 'सवात' में महात्मा बुध्द की प्राचीन प्रतिमा को बारूदी धमाके से उड़ा दिया गया। सवात के डी.आई.जी. खालिद मसंऊद ने घटना की पुष्टि करते हुए बताया कि 'मेन्गोरा' से 15 किलोमीटर पूरब में स्थित मंगलौर के क्षेत्र 'जहांबाद' में नामालूम आतंकवादियों ने 10 और 11 सितंबर की मध्यरात्रि को बारूदी बम से महात्मा बुध्द की प्रतिमा को ध्वस्त करने का प्रयास किया, परंतु ऊंचाई पर होने के कारण प्रतिमा को विशेष हानि नहीं पहुँची।

पाकिस्तान में पेशावर स्थित पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर परवेज शाहीन के अनुसार सन् 2000 ई. में अफगानिस्तान में तालिबान के हाथों बामियान की वादी में प्राचीन बुध्द प्रतिमाओं का ध्वंस हुआ था। उसके बाद पाकिस्तान में इस प्रतिमा को नष्ट करने का प्रयास हुआ है, जो एशिया में बुध्द की दूसरी महत्वपूर्ण और सब से बड़ी प्रतिमा है।

यह प्रतिमा 2200 वर्ष पुरानी है। इस प्रतिमा की लंबाई 13 फुट और चौड़ाई 9 फुट है। 'सवात' गांधार सभ्यता का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहां इस समय भी बुध्द की छोटी-बड़ी सैकड़ों प्रतिमाएं हैं, जिनके संरक्षण और सुरक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं हो पाई है।

ज्ञात हो कि अफगानिस्तान में तालिबान ने सन् 2000 ई. में अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी की तमाम अपीलों के बावजूद बामियान स्थित बुध्द प्रतिमाओं का ध्वंस किया था। हालांकि पाकिस्तान में हिन्दू मंदिरों का ध्वंस विगत 10 वर्षों से जारी है, लेकिन यहां बुध्द प्रतिमा के ध्वंस की यह पहली घटना है।

कबायली क्षेत्रों और सीमा प्रांत के दक्षिणी जिलों के अतिरिक्त जिला सवात में विगत दिनों तेजी से तालिबानीकरण हुआ है। यहां प्रतिबंधित संगठन 'निफाज-ए-शरियते मुहम्मदी' के नेता एक गैर कानूनी चैनल के माध्यम से लड़कियों की शिक्षा पर रोक लगाने और जिहाद के समर्थन में भाषणों के लिए प्रसिध्द है। वह बच्चों को पोलियो की खुराक पिलाने को पश्चिमी षडयंत्र करार देते हैं। विगत महीने सवात में आत्मघाती हमलों से सीडी सेंटरों और महिला शिक्षा केन्द्रों को उड़ाने की एक दर्जन से अधिक घटनाएं घट चुकी हैं।

सीमा प्रांत में तालिबानों का राज चल रहा है। यहां 'मानसहरा' स्थल पर अशोक काल के कुछ पाषाण-पत्र या शिलाखंड भी पुरातत्व के संरक्षण में थे, जिन्हें अब विशेष सुरक्षा की जरूरत है।

इतिहासकार एच.जी. वेल्स के अनुसार सम्राट अशोक ने एक अच्छी सरकार के लिए 14 सूत्रों को अनुक्रमित किया था, जिन्हें पत्थर के खंभों और शिला-पटों पर खुदवा कर उसने अपने राज्य के चारों ओर स्थापित करवाया। ऐसे पत्थर हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और नेपाल तथा बांग्लादेश में कोई 30 स्थलों पर मिलते हैं।

पाकिस्तान के सीमा प्रांत में 'मानसहरा' और 'मर्दान' के पास ऐसे चार-पांच शिला खंड सुरक्षित है। परंतु पुरातत्ववेत्ताओं का कथन है कि 'मर्दान' के शिला लेख पढ़े जा सकते हैं, जबकि मानसहरा के शिला-लेखों को पढ़ना अब मुश्किल होता जा रहा है, क्योंकि उसकी समुचित सुरक्षा नहीं हो पा रही है। पानी-हवा-धूल-मिट्टी से शिलालेख के अक्षर मिटने से लगे हैं। इसका एक मात्र कारण यह है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों देशों में पुरातत्व विभाग तालिबानी सोच के अधिकारियों के अधीन है और हिन्दू तथा बौध्द संस्कृति के अवशेषों को मिटाने की योजना पर काम कर रहा है।

(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान सामचार)

एक भटका हुआ आंदोलन है नक्सलवाद

लेखक- दिलीप सिमियन
सीनियर फेलो, नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी

यह कहना सही नहीं होगा कि हाल के वर्षों में नक्सली गतिविधियों में तेजी आई है। सच तो यह है कि 1967 में नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत के समय से ही उनकी गतिविधियां जारी हैं। हां, उनमें थोड़ा उतार-चढ़ाव आता रहा है। देश में 92 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। मजदूरों के खिलाफ ठेकेदार, बिचौलिये, मालिक या जमींदार की तरफ से हिंसा की जाती है। जिन उत्पादक रिश्तों में हिंसा एक दैनिक कर्म हो, वहां नक्सलवाद जैसी प्रतिरोधी गतिविधियों का होना स्वाभाविक है। हालांकि मैं नक्सलियों की हिंसात्मक गतिविधियों के पक्ष में नहीं हूं।

दूसरी बात यह कि देश में अपराध न्याय संहिता पूरी तरह फेल हो गई है। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू आदि हत्याकांडों के मामलों पर गौर कीजिए। मध्यवर्ग के साथ जब अन्याय हुआ तो क्रिमनल जस्टिस सिस्टम पर सवाल उठाए जाने लगे लेकिन आम आदमी रोज अन्याय और अत्याचार झेलता है। न्याय के लिए पुलिस, प्रशासन और कानून की शरण में जाता है लेकिन वर्षों तक कोर्ट-कचहरी में चप्पलें घिसने के बाद भी जब पैसे और ऊंची रसूख वालों के पक्ष में फैसले आते हैं, तो उस पर क्या असर पडता है, सोचा जा सकता है। न्याय व्यवस्था बिगड़ने से ही नक्सलवाद पनप रहा है। अगर राज्यसत्ता अपनी वैधता को पिघलते हुए देख रही है तो वैकल्पिक सत्ता हथियाएगी ही। यदि इस समस्या से निजात पानी है तो हमें पॉलिटिकल डेमोक्रेसी के साथ-साथ सोशल डेमोक्रेसी भी लागू करनी पड़ेगी।

लेकिन माओवादियों को भी यह सोचना चाहिए कि हिंसा के जरिए क्या वे अपना लक्ष्य हासिल कर पाएंगे। नेपाल में माओवादी हिंसा की एक वजह यह है कि वहां आम आदमी लोकतंत्र का हिमायती है और माओवादी इसकी आड़ में अपना अजेंडा चला रहे हैं। वे चाहते हैं कि वहां से राजतंत्र हट जाना चाहिए। लेकिन माओवादी जिस तरह से लोगों को मार रहे हैं, उससे कहा जा सकता है कि वे निरंकुशता की राजनीति कर रहे हैं। ये है नेपाल की बात, जहां लोकतंत्र नहीं है। लेकिन भारत में तो लोकतंत्र है। फिर यहां खूनी खेल क्यों खेल रहे हैं नक्सली। थोड़ी-बहुत त्रुटियों के बावजूद पिछले 5-6 दशकों से यहां संवैधानिक संस्थाएं काम कर रही हैं। यदि इसमें सुधार लाना है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाकर लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।

दुर्भाग्यवश नक्सली विचारधारा मानती है कि यहां की लोकतांत्रिक सत्ता एक झूठ है। वह मानती है कि भारत एक अर्ध सामंती, अर्ध औपनिवेशिक राज व्यवस्था है। हथियारों के माध्यम से वे यहां पीपल्स डेमोक्रेसी यानी सर्वहारा की सत्ता स्थापित करना चाहते हैं। उग्र वामपंथी (नक्सली) और उदार वामपंथी इसे अलग-अलग नजरिए से देखते हैं। उदार वामपंथी यानी सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई (माले) जैसी राजनीतिक पार्टियां संवैधानिक संस्थाओं में आस्था जताकर लोकतांत्रिक तरीके से राजसत्ता हासिल करना चाहती है जबकि नक्सली इन्हें झूठ मानते हैं। उनकी गतिविधियों का मुख्य उद्देश्य है पीपल्स आर्मी गठित करना। यह एक तरह का वामपंथी सैन्यवाद है। उग्र वामपंथियों और उदार वामपंथियों के बीच विभाजन की मुख्य वजह ही है हिंसा। मेरा सवाल है कि आखिर ये नक्सली मॉडरेट डिमांड्स को लेकर लोकतांत्रिक तरीके से लड़ाई लड़ने के लिए तैयार क्यों नहीं होते। लोगों को मारने की क्या जरूरत है। वे मानव प्राण को तिरस्कृत रूप से क्यों देखते हैं। यह एक नैतिक अपराध है।

मैंने जहां तक समझा है मानव प्राण के प्रति सम्मान ही समाजवादी आंदोलन की बुनियाद है। मुझे समझ नहीं आता कि निरीह, निर्दोष लोगों का कत्ल करने की वैचारिक वैधता नक्सलियों ने कहां से खोज निकाली। यह भी एक प्रकार की ब्राह्यणवादी विचारधारा ही है। नक्सलियों की 99 प्रतिशत मांगों, उनके आदर्शों को मैं सही मानता हूं लेकिन हत्या को राजनीति बनाना उन्हें दक्षिणपंथी फासिज्म से जोड़ता है। नक्सली जिस राह पर चल रहे हैं उससे अंतत: फायदा होगा वॉर इंडस्ट्री को। इनकी घोर क्रांतिकारिता बकवास है।

नक्सलियों का कहना है कि माओ की मृत्यु के बाद यह सब हुआ। 1976 में माओत्से तुंग की मृत्यु हुई थी। लेकिन उसके पहले सन 71 में चीन ने याहिया खान के साथ मिलकर पूर्वी पाकिस्तान में कत्लेआम किया। माओ ने श्रीलंका में भंडार नायके का समर्थन किया। और तो और वियतनाम पर अमेरिकी हमले की भी हिमायत की। चाइनीज आर्मी ने अमेरिकी आर्मी के साथ मिलकर वियतनाम पर कब्जा किया। माओत्से तुंग अति राष्ट्रवादी थे। माओ ने लिन प्याओ को अपना उत्तराधिकारी बनाया। वह हमेशा राज्य के हित में और कौमी राज्य के हित में काम करते थे। फिर क्यों हम चलें इनके नैशनलिज्म की राह पर। नक्सली या माओवादी यदि खून खराबा और हिंसा त्याग दें और बाकी मांगें रखें तो यह संघर्ष समाज और देश के लिए बेहतर होगा। जैसे मादा भ्रूण हत्या, नवजात बच्चियों की हत्या, न्यूनतम वेतन, न्याय प्रणाली में सुधार, कृषि मजदूरों और शहरी मजदूरों की जीवन स्थिति में सुधार, सांप्रदायिकता आदि को कॉमन इश्यू बना सकते हैं। लेकिन इन्हें कौन समझाए। ऑब्जेक्टिवली ये राइटिस्ट हैं और सब्जेक्टिवली लेफ्टिस्ट। इन्हें अपनी अंतरात्मा में झांककर देखना चाहिए कि समाजवादी आंदोलन कहां था और आज कहां है। मेरी सलाह है कि नक्सलियों को मैक्सिमम प्रोग्राम त्यागकर मिनिमम प्रोग्राम अपनाने चाहिए। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि आखिर ज्ञान का आधार क्या है और उसकी वैधता का मानदंड क्या है। वे यदि इस सिस्टम को अवैध मानते हैं तो बंदूक की नोक पर बनाई गई उनकी प्रणाली अच्छी होगी, इसकी क्या गारंटी है। दरअसल नक्सलियों की राजनीतिक वैधता का कोई आधार नहीं है। जिनके हाथ में बंदूक है, उनसे क्या बातचीत होगी। आम लोगों के जो बड़े-बड़े दुश्मन हैं, नक्सलियों ने आज तक उन्हें धमकाया तक नहीं चाहे वे बड़े से बड़े सांप्रदायिक क्यों न हों। जो खूंखार फासिस्ट हैं, जिन्होंने बाबरी मस्जिद गिराई उनसे नक्सली क्यों नहीं लड़े। गुजरात और देश के बाकी हिस्सों में सांप्रदायिकता के खिलाफ ये क्यों नहीं खड़े हुए।

खेद की बात है कि नक्सलियों में बहुत से दिलवाले भी हैं, जोशीले हैं, बुद्धिजीवी हैं और आम लोगों का भला चाहते हैं लेकिन उन्होंने चिंतन को, विचार को त्याग दिया है।

बातचीत: शशिकांत ://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/1473219.cms

Thursday 4 October, 2007

राम के नाम पर

लेखक-हरिकृष्ण निगम

13 सितंबर 2007 की सुबह और बाद तक देश में सर्वाधिक बिक्री का दावा करने वाले कुछ अंग्रेजी समाचार पत्रों के मुखपृष्ठ पर यही शीर्षक था- रामायण का कोई आधार नहीं। न राम थे। न रामायण, न ही रामसेतु मानव निर्मित था। तुगलकी सत्तारूढ़ सरकार का फरमान जारी हो गया। फिर एक फतवा जारी हुआ- सर्वोच्च न्यायालय में रामसेतु प्रकरण की याचिका में से वे सभी अंश निकाले जाएंगे जो राम और रामायण के दूसरे आराध्य चरित्रों को नकारते हैं। यह सोनिया गांधी द्वारा सरकार को निर्देश था।

हिंदुओं की भावनाओं को आह्त करने का पुराना खेल जब अनियंत्रित हो जाए तो खेल के नियमों में परिवर्तन अपेक्षित है। देश में उठने वाले तूफान से बचने का यही रास्ता था। कांग्रेस द्वारा मारी गई पलटी ने उसकी रणनीति की पोल खोल दी।

आज हमारे देश का भ्रष्ट और विकृत राजनीतिक माहौल विश्व की अनोखी चीज़ बन रहा है। प्रजातांत्रिक ढांचे और अभिव्यक्ति की एकपक्षीय स्वतंत्रता के नाम पर हर खेमे का छोटा-बड़ा राजनीतिबाज कभी इतिहासकार की भूमिका अदा करता है, कभी पुरातत्वविद बन जाता है, कभी भाषा शास्त्री, कभी मानचित्रों का विश्लेषक और कभी वैज्ञानिक दृष्टि मुक्त अन्वेषक भी। चाहे वे पूरी तरह शिक्षित न भी हों पर उनका मुँह खुलते ही ज्ञान के मोती झरते हैं जो हिन्दू विरोधी मीडिया के लिए वरदान बन जाते हैं।

क्या यह तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि दूसरे धर्मों के विश्वासों, उनके धर्मग्रंथों की दंतकथाओं, आख्यानों, विश्वासों पर भी लागू होती है या उसी तरह ली जाती है जैसे वे हमारी आस्था की शव परीक्षा करने को लालायित रहते हैं? सारी शरारत, दुराग्रहों, पूर्वग्रहों, नादानी, लापरवाही या विषबमन की जड़ में यही मूल बात है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल किए गए शपथ पत्र में यही प्रश्न बार-बार उठाया गया है कि कोई ऐतिहासिक व वैज्ञानिक साक्ष्य नही है जो राम का अस्तित्व सिध्द करें। यदि इस तरह की शब्दावली किसी दूसरे धर्म के विरूध्द विश्व के किसी भी कोने में प्रयुक्त की गई होती या किसी के द्वारा उद्धृत भी की गई होती तो इसके ज्वलनशील व विस्फोटक परिणामों का, अनुभव के आधार पर, अंदाज लगना मुश्किल नहीं है।

क्या 1947 और 1956 के बीच इज़रायल नियंत्रित वेस्ट बैंक में डेड सी के उत्तरी-पश्चिम तट में स्थित कुमरान क्षेत्र में अत्यंत प्राचीन 'डेड सी स्क्रौल' की खोज और विश्वविख्यात पुरातत्वविदों द्वारा उनके समय को सत्यापित किए जाने के बाद ईसामसीह के अस्तित्व व कालक्रम पर ही प्रश्न चिन्ह नहीं लगे थे? क्या टीवी परिचर्चाओं में वैज्ञानिक दृष्टि की दुहाई देकर उनमें से एक भी इसे कहने का साहस कर सकता है? फिलिस्तीन के रेगिस्तान में अत्यंत प्राचीन यहूदी संप्रदाय के अवशेषों में ईसामसीह के जन्म के बहुत पहले बाईबिल वर्णित संदर्भों व शिक्षाओं में साम्यता मिली हैं। यह स्थल ईसा पूर्व 150 वर्ष का वैज्ञानिकों द्वारा सिध्द किया गया है।

कुमरान की गुफाओं में मिट्टी के पात्रों में 600 से अधिक पाण्डुलिपियों के अवशेष पाए गए हैं पर इसके द्वारा जो निष्कर्ष निकले हैं। वे वेटिकन के गले कभी नहीं उतरे। एक या दो सहस्राब्दी के पूर्व के इतर धर्मों के प्रतीक रूप से पुण्य व सम्मानित चिन्हों को जो चाहें अस्थि अवशेष हों, दांत हों या बाल अथवा मृत सुरक्षित शरीर क्या किसी का साहस है कि वह किसी वैज्ञानिक द्वारा सत्यापित कराने की मांग करे। करोड़ों लोगों की आस्था पर आघात करना हमारी परंपरा नहीं रही है पर हिन्दू धर्मानुयाइयों को आह्त करना एक पुरानी प्रथा है। हमारा सेकुलरवादी राजनीतिक ढांचा हमारे विश्वासों पर संशय प्रकट कर, समरसता खण्डित करने वाली आपराधिक प्रकृति की घृणा फैलाने को जुर्म नहीं मानता है- कम से कम आज की सत्तारूढ़ सरकार मात्र हिन्दू आस्था पर जहर बुझी टिप्पणियाँ स्वीकार हैं।

संशयपूर्ण, झूठे सच्चे और अवैज्ञानिक चमत्कारों के आधार पर यदि यश के इंद्रधनुषी रंगों के पीछे पुरातनपंथी, कट्टर कैथोलिक मदर टेरेसा को वेटिकन द्वारा जल्दबाजी में संत घोषित करने की ललक है अथवा 'बीटिफिकेशन'- पुण्यात्मवाचन की घोषणा कर उन्हें संतत्व प्रदान करना है तो इस देश के दिग्गज बुध्दिजीवियों को तथ्यों के वैज्ञानिक सत्यापन की जरूरत महसूस नहीं होती। चाहे आज कितना भी कहा जाए कि दानोग्राम (पश्चिमी बंगाल) की कोलकाता से 500 किलोमीटर दूर के कैंसर की रोगी महिला मानिका बेसरा को वह रोग कभी था ही नहीं पर उसी के चमत्कार से रोग मुक्त होने के प्रचार पर वेटिकन ने 'संत' की पदवी की प्रक्रिया तेज की थी जिसमें कभी-कभी कई दशक या शताब्दियों तक लग चुकी हैं। हमारे बुध्दिजीवी इस पर प्रश्न लिखने या टिप्पणी करने का साहस भी आज नहीं जुटा पा रहे हैं। रोमन कैथोलिक विश्वासों में धर्मांतरण की जिद गर्भपात के विरूध्द विषवमन करने का साहस नहीं जुटा पाए। श्वेत चमड़ी के आगे वे भयाक्रांत होकर आज भी नतमस्तक होने के आदि है । उनकी सक्रियता जब राम या रामायण का प्रश्न उठता है तब देखने को मिलती है। रामसेतु के तथ्य परक, सूचनापरक और दूसरे पक्षों से आज का मीडिया भरा है पर हमारे ढोंग और ढकोसलों की विषाक्त राजनति में कुछ प्रख्यात बुध्दिजीवियों, राजनीतिज्ञों व पत्रकारों के मुखौटों को उघाड़ना भी आज समय की मांग है।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

भगत सिंह का एक ही रंग : तरुण विजय


भगत सिंह जन्मशताब्दी पर विशेष
भगत सिंह देश के ऐसे विरले क्रांतिनायक हैं जिसकी छवि और स्मृति रक्त में राष्ट्रीयता का जोश भरती है, अन्याय को खत्म करने का मन बनाती है और तेजस्वी आंखों के अंगारों से देशद्रोही को भस्म करने की ताकत देती है। जैसे स्वामी विवेकानंद ने गुरुगोविंद सिंह को प्रत्येक भारतीय का आदर्श नायक बताया था। वैसे ही, दुनिया के सबसे अधिक युवाओं वाले देश भारत में युवाओं के नायक भगत सिंह बन चुके हैं।

कुछ लोग उन्हें वैचारिक बाड़ेबंदी में घेरना चाहते हैं, वे अंग्रेज सार्जेंट का काम कर रहे हैं। भगत सिंह जिस बगावत की आवाज बने, वही बागी स्वर आज उन श्वेताम्बरी, पीताम्बरी, पाखंडी-व्रतधारी वर्ग के खिलाफ गुंजाने की जरुरत है जो न केवल भारतीय एकता को भीतर से खोखला कर रहे हैं बल्कि राममंदिर और रामसेतु जैसे प्रश्नों पर जिहादी सेकुलर-तालिबानियों के विरुध्द प्रतिरोध को भी कमजोर कर रहे हैं। याद रखना चाहिए आखिर भगत सिंह को फांसी पर चढ़ाने में मदद करने वाले 457 गवाह भारतीय ही थे। भगत सिंह को समझना हो तो जो उन्होंने कहा व किया उसी से समझा जा सकता है।

'तेरी माता, तेरी प्रात: स्मरणीया, तेरी परम वन्दनीया, तेरी जगदम्बा, तेरी अन्नपूर्णा, तेरी त्रिशूलधारिणी, तेरी सिंहवासिनी, तेरी शस्य श्यामलांचला आज फूट-फूटकर रो रही है। क्या उसकी विकलता तुझे तनिक भी चंचल नहीं करती? धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर! तेरे पितर भी शर्मसार है इस नपुंसत्व पर! यदि अब भी तेरे किसी अंग में कुछ हया बाकी हो, तो उठकर माता के दूध की लाज रख, उसके उध्दार का बीड़ा उठा, उसके आंसुओं की एक-एक बूंद की सौगंध ले, उसका बेड़ा पार कर और बोल मुक्त कंठ से- वंदेमातरम्!
(स्रोत: भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज, सम्पादक-चमन लाल)

भगत सिंह का परिवार आर्य समाज के संस्कारों से आप्लावित था। उनका यज्ञोपवीत संस्कार भी हुआ था और सुप्रसिध्द साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर ने अपनी पुस्तक 'अमर शहीद भगत सिंह' में लिखा है कि भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह ने अंग्रेजों की फूट की राजनीति को विफल करते हुए आर्य समाजियों पर चले मुकदमे के जवाब में ऐसे उध्दरणों के ढेर लगा दिए थे जो प्रमाणित करते थे कि वेद और गुरुग्रंथ साहिब दोनों एक ही बात कहते हैं और दोनों ही आदरणीय हैं। उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी थी कि जिसका शीर्षक था- 'हमारे गुरु साहिबान वेदों के पैरोकार थे।' सरदार भगत सिंह के आदर्श नायकों में वीर सावरकर, छत्रपति शिवाजी, सरदार उधम सिंह, मदन लाल धींगरा और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र थे। उन्होंने श्रीमद्भगवद् गीता से प्रेरणा ली थी और लोकमान्य तिलक रचित 'गीता रहस्य' का अध्ययन किया था। सरदार भगत सिंह ने वीर सावरकर की अमर कृति 'वार ऑफ इंडिपेंडेस-1857' का पुन: प्रकाशन करवाया था। इस पुस्तक के प्रति उनके मन में गहरी श्रध्दा और क्रांतिकारी भावना थी। भगत सिंह ने ऋग्वेद का भी अध्ययन किया था। जो क्रांतिकारी जेल में 'मेरा रंग दे वसंती चोला' गाता रहा हो उसकी भारतीय संस्कृति और वैचारिक परंपरा के बारे में कितनी गहरी निष्ठी होगी यह स्वयं ही प्रमाणित है। अपने पत्र और सामान्य अभिवादन में वंदे मातरम् का उल्लेख करने वाले उस आग्नेय भारतीय के मन को लेनिन और स्टालिन के खूंटे से बंधे लाल सलाम वाले समझ ही नहीं सकते।

भगत सिंह को वैचारिक खेमेबंदी में धकलने की कोशिश वैसी ही गर्हित और शब्द-हिंसा का प्रतीक है जैसी स्टालिनवादी वामपंथी मानसिकता है जो साइबेरिया और गुलाग रचे बिना अपनी यात्रा पूरी नहीं कर सकती। भगत सिंह भारतीयता और भारत माता के सच्चे आराधक थे और वे पूर्ण अर्थों में भारत तत्व के प्रतीक थे। क्या इतना ही मानना उचित नहीं होगा?