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Saturday 10 May, 2008

प्रथम नहीं था 1857 का स्वाधीनता संग्राम


-शिवकुमार गोयल


सन् 1857 ई. के स्वातन्त्र्य समर की 150वीं जयन्ती देश भर में मनाई जा रही है। अंग्रेजों के विरुध्द स्‍वधर्म एवं स्वराज्य के लिए यह सबसे बड़ा सुनियोजित संघर्ष था, इसमें कोई शक नहीं है। परन्तु इसे भारत का 'प्रथम' स्वातन्त्र्य समर कहना एक प्रकार से उन सभी संघर्षों को नकारने जैसा होगा, जो स्वतंत्रता के लिए लड़े गए थे। हमारे योध्दाओं ने सिकन्दर, मुहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी, मोहम्मद गोरी, इब्राहीम लोदी, बाबर जैसे आक्रमणकारियों से संघर्ष किए थे। चन्द्रगुप्त-चाणक्य, शकारि विक्रमादित्य, पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविन्दसिंह, बन्दा बैरागी, छत्रसाल, कृष्णदेवराय आदि असंख्य वीरों के स्‍वाधीनता संग्राम को क्या हमारे इतिहास के स्वतंत्रता संग्राम में स्थान नहीं मिलना चाहिए? जिस किसी ने अपने देश से बाहरी शत्रु को हटाने के लिए संघर्ष किया, वह स्वाभाविक ही हमारे स्वातन्त्र्य संग्राम का हिस्सा है।

हिन्दुस्थान पर पहला आक्रमण ई. पूर्व 326 में ग्रीक सेना के साथ सिकन्दर ने किया और पोरस को पराजित कर यहां अपना राज जमा लिया। किन्तु कुछ ही समय में वविभिन्‍न हिन्दू सम्राटों की कड़ी टक्कर से घबरा कर वह लहूलुहान होकर अपने देश लौट गया। सिकन्दर के सेनापति सेल्युकस ने भी ई. पूर्व 305 में पंजाब पर आक्रमण कर अपना राज्य जमा लिया। सम्राट चन्द्रगुप्त ने आचार्य चाणक्य की कूटनीति के बल पर सेल्युकस पर आक्रमण कर उसे आत्मसमर्पण को बाधय करके पूरे प्रदेश को स्‍वाधीनता कराया। सेल्युकस को अपनी पुत्री का विवाह भी चन्द्रगुप्त से करना पड़ा।

शकों का आक्रमण एवं पराभव
आगे चलकर शकों ने भारत पर आक्रमण कर काफी बड़े भू-भाग को अपने कब्जे में ले लिया पर इनके विरुध्द भी भारतीय वीरों की तलवार उठी एवं दक्षिण भारत के हिन्दू सम्राटों ने उनसे जमकर टक्कर ली। गौतमी पुत्र शतकर्णी, पुलगामी शालिवाहन ने अपने शौर्य का सिक्का जमाया। कनिष्ट ने मालवा, गुजरात, सौराष्ट्र और सिन्‍धु-क्षेत्रों को शकों से मुक्ति दिलाई। समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शक-यूचियों की सत्ता को पूरी तरह धवस्त करने में सफलता प्राप्त की।

सन् 500 ई. के लगभग हूणों ने गांधाार देश पर आक्रमण कर कब्जा जमाया। सम्राट कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने हूणों पर आक्रमण कर उन्हें हराया। अन्त में प्रतापी सेनापति यशोवर्धान ने हूणों को खदेड़ते हुए मुल्तान के पास कोरूर के निकट युध्द में उनकी सेना को पराजित किया था।


मोहम्मद बिन कासिम से संघर्ष
ईस्वीं 711 में अरब के सेनापति मोहम्मद बिन कासिम ने 50 हजार की सेना के साथ सिंध प्रान्त पर हमला करके देवल नामक बन्दरगाह को कब्जे में कर लिया। सिन्धा के राजा दाहिर ने कड़ा मुकाबला किया पर कुछ मुस्लिम सैनिकों की गद्दारी के कारण कासिम की सेना जीत गई- दाहिर ने संघर्ष करते हुए बलिदान दिया। कासिम को बाद में निरन्तर चुनौतियां मिलीं एवं अन्त में चित्तौड़ के महापराक्रमी बप्पा रावल के नेतृत्व में राजपूत वीरों ने सिन्धा पर विजय प्राप्त कर उसे कासिम के चंगुल से मुक्त कराया।

ईस्वीं सन् 1001 में दुर्दान्त मजहबी उन्मादी मोहम्मद गजनवी हिन्दुस्थान को जीतकर उसे 'दारूल इस्लाम' बनाने का सपना लेकर आया। सम्राट जयपाल ने पंजाब पर आक्रमण के दौरान उससे डटकर संघर्ष किया पर पराजित हुए एवं आत्मोत्सर्ग करना पड़ा। जयपाल का पुत्र अनंगपाल भी स्‍वाधीनता हेतु निरन्तर संघर्षरत रहा। महमूद ने थानेश्वर तथा मथुरा पर आक्रमण कर अपार धन-सम्पदा लूटी और फिर लौट गया। पुन: 1026 ई. में सोमनाथ पर आक्रमण किया एवं शिवलिंग को तोड़कर अपार सम्पदा लूट कर ले गया। इस काल में चप्पे-चप्पे पर संघर्ष हुआ।

गजनी के बाद गोरी 1191 ई. में गोरी ने दूसरी बार आक्रमण किया। पहले गुजरात आक्रमण में उसे जान बचाकर भागना पड़ा था। पानीपत के तलावड़ी स्थान पर पृथ्वीराज चौहान से उसे जबरदस्त शिकस्त मिली। गोरी पकड़ा गया पर पृथ्वीराज ने उसे दया कर छोड़ दिया एवं अपने देश लौट जाने दिया। अन्त में 1193 ई. में थानेश्वर में हुए युध्द में पृथ्वीराज पराजित हुए एवं बन्दी बनाकर ले जाए गए। उनकी आंखें फोड़ दी गईं पर चन्द्रबरदाई की चतुराई से वह तीर के करिश्मे के बहाने शब्दबेदी बाण से गोरी को मारने में सफल हुआ।

इसके बाद चौदहवीं सदी के आरम्भ में सुल्तान कुतुबुद्दीन, अलाउद्दीन खिलजी फिर मोहम्मद बिन तुगलक एवं फिरोजशाह तुगलक ने उत्पात मचाया। तुगलक की 1388 ई. में मृत्यु के बाद समरकन्द का कुख्यात तैमूरलंग हिन्दुस्थान पर चढ़ आया। राणा कुंभा एवं राणा सांगा ने इन मुस्लिम आक्रान्ताओं के विरुध्द लगातार संघर्ष जारी रखा। इसके बाद इब्राहिम लोदी के साथ भी लम्बा संघर्ष चला।

तुर्क बाबर एवं उसके वंशज
तुर्क रक्त के बाबर ने, जो उस समय अफगानिस्तान का शासक था, लाहौर के सूबेदार दौलतखान के निमंत्रण पर राणा सांगा का दमन करने हेतु हिन्दुस्थान में 1526 में प्रवेश किया। पानीपत में हुई लड़ाई में राणा सांगा एवं इब्राहीम लोदी दोनों की संयुक्त फौज एक साथ थी परन्तु लोदी मारा गया एवं राणा सांगा को भी चित्तौड़ लौट जाना पड़ा।


1530 में बाबर की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र हुमायूं बादशाह बना। हुमायूं का 1556 ई. में अचानक इंतकाल हो गया। उसका पुत्र अकबर 13 वर्ष की उम्र में ही उसका उत्‍तराधिकारी बना। उसके राज्य का संचालन उसका सम्बंधाी एवं मुख्य वजीर बैरहाम खां करता था। पानीपत के पास बैरहाम खां एवं हेमू की सेनाओं की बीच युध्द हुआ। हेमू जीत रहा था पर अचानक उसकी आंख में तीर लगा और वह घायल होकर हाथी से गिर गया। हिन्दू सेना में खलबली मच गई। घायल हेमू का बैरहाम खां ने सिर काट लिया एवं हिन्दुओं की जीत हार में बदल गई। अकबर का आगे विरोधा जारी रहा पर वह मेवाड़ को छोड़कर अन्य राजपूत राजाओं को दबाने या अपने साथ मिलाने में सफल रहा।

अकबर के बाद जहांगीर, फिर औरंगजेब के साथ हिन्दुओं का संघर्ष सर्वविदित है। गुरु तेगबहादुर एवं भाई मतिदास के बलिदान इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं।


गुरु गोविन्दसिंह जी ने मुगलों के बढ़ते अत्याचारों को रोकने हेतु 'खालसा पंथ' की स्थापना की। उनके चारों पुत्रों का बलिदान हुआ, वे भी आजीवन संघर्षरत रहे। अद्भुत कहानी है इन बलिदानियों की और इसी के बल पर आज हिन्दू समाज जीवित है वरना इस्लाम की आंधी कितने देशों एवं कितने समाजों को निगल गई। इनके संघर्षों को यदि हम स्वतंत्रता संघर्ष नहीं कहेंगे तो किसे कहेंगे?

विजयनगर का हिन्दू साम्राज्य
दक्षिण भारत के विजयनगर के पराक्रमी राजा कृष्णदेवराय (1509 से 1537) ने विदेशी-विधार्मी आक्रमणकारियों से अपने देश की पावन भूमि को मुक्त कराने के लिए सतत संघर्ष किया। बीजापुर के आदिलशाह के साथ हुए युध्द में उसने मुस्लिम सेना को कड़ी मात दी। राजा कृष्णदेवराय प्रबल पराक्रमी के साथ-साथ हिन्दू धार्माभिमानी तथा आदर्श शासक थे। 1537 में महाराज कृष्णदेवराय का देहान्त हुआ। उनके बाद आगे चलकर विजयनगर राज्य का शासन राजा रामराय के हाथों में आया। राजा रामराय ने भी सन् 1554 में अहमदनगर के निजाम शाह तथा गोलकुंडा के कुतुबशाह की प्रार्थना पर उनके शत्रु बीजापुर के आदिलशाह पर आक्रमण कर मुसलमान सेना के छक्के छुड़ाये।

सन् 1739 में नादिरशाह अटक पार करके दिल्ली तक जा पहुंचा। पूर्ववर्ती मुस्लिम बादशाहों की तरह नादिरशाह ने हिंदुओं की हत्याएं एवं, लूटमार कराई। मराठा सरदार बाजीराव ने सेना को बलशाली बनाया तथा घोषणा भी की कि दिल्ली के तख्त पर किसी भी विदेशी-विधार्मी के वर्चस्व को सहन नहीं किया जाएगा। मराठा सेना की शक्ति का पता चलते ही नादिरशाह को दिल्ली का तख्त छोड़कर भागने को विवश होना पड़ा था।

अहमदशाह अब्दाली ने सन् 1749 में हिन्दुस्थान पर दूसरा आक्रमण किया। इधार वीर मराठों के तत्कालीन पेशवा नाना साहब ने मल्हारराव होल्कर और जयाजीराव सिन्धिाया को पठानों के सपने चकनाचूर करने का आदेश दिया। 20 मार्च, 1751 को यमुना पार कर उत्तर प्रदेश के कादरगंज में पठान-रूहेलों की सेना पर मराठों ने आक्रमण कर उन्हें पराजित कर भागने को विवश कर दिया।

1757 में पुन: नाना साहब पेशवा ने अपने भाई रघुनाथ राव पेशवा के नेतृत्व में मल्हारराव होल्कर को विशाल सेना के साथ अब्दाली की क्रूर व विधवंसक सेना से टक्कर लेने भेजा। मराठों के इस सतत संघर्ष अभियान ने अब्दाली क सपने चकनाचूर कर डाले। अन्त में उसे काबुल भागने को विवश होना पड़ा।


सन् 1627 में जन्मे शिवाजी महाराज ने क्रूरतम व उन्मादी औरंगजेब को अपने युध्दकौशल तथा छापामार कार्यवाही से नाकों चने चबाने में सफलता प्राप्त की थी। छत्रपति शिवाजी ने मुस्लिम सुल्तानों से दक्षिण के अनेक दुर्ग जीते। छत्रपति शिवाजी तथा अनेक मराठा राष्ट्रभक्तों ने विदेशी-विधर्मीमुसलमानों से हिन्दुस्थान की भूमि को मुक्त कराने के लिए जो संघर्ष किए वे 'भारतीय स्‍वाधीनता संग्राम' के इतिहास के स्‍वर्णिम पृष्ठ हैं। वीर छत्रसाल, महाराणा रणजीत सिंह तथा ऐसे असंख्य अग्रणी राष्ट्रभक्त हमारे देश के दो हजार वर्ष से अधिक के स्‍वाधीनता संग्राम के अप्रतिम राष्ट्रनायक हैं, जिन्हें कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। 1857 की 150वीं जयंती पर इन सभी वीरों को नमन!

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