कर्नाटक में भाजपा का अपने बलबूते सरकार बनाने की स्थिति में पहुंचना इस दल की एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। कर्नाटक की जीत ने भाजपा की केंद्र में फिर से पहुंचने की दावेदारी को पुख्ता करने के साथ यह भी संकेत दे दिया है कि वह दक्षिण के अन्य राज्यों में अपनी जड़ें जमा सकती है। महत्वपूर्ण यह है कि कर्नाटक फतह के साथ भाजपा से उत्तर भारत की पार्टी होने का ठप्पा भी हट गया है। कर्नाटक की जीत के बाद भाजपा के इस दावे से असहमत होने का कोई कारण नहीं कि उसने जनाधार बढ़ाने के साथ अपना भौगोलिक विस्तार भी किया है, लेकिन उसे एक और राज्य में जीत का जश्न मनाते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि वह एक समय के अपने गढ़ उत्तर प्रदेश में रसातल पर पहुंच गई है। उत्तर प्रदेश वह राज्य है जो केंद्र में सरकार गठन में निर्णायक भूमिका निभाता है। भाजपा के लिए यह भी चिंता का विषय बनना चाहिए कि लोकसभा चुनाव के पूर्व जिन राज्यों में विधाानसभा चुनाव होने हैं वहां उसके आसार अच्छे नजर नहीं आते-खासकर राजस्थान और मधय प्रदेश में। यह ठीक है कि भाजपा अब 11 राज्यों में सत्ता में होगी, लेकिन बात तो तब बनेगी जब यह संख्या घटने न पाए। यदि भाजपा को केंद्र की सत्ता में वापसी करनी है तो उसे अपने कुछ मजबूत और भरोसेमंद सहयोगी भी चुनने होंगे। अभी तो उसके पास कुल जमा चार क्षेत्रीय दल ही ऐसे हैं जो केंद्र में उसकी वापसी में सहायक बन सकते हैं। कर्नाटक में सत्ता से वंचित रही कांग्रेस यह दावा कर रही है कि इस राज्य के चुनाव नतीजों का केंद्रीय सत्ता पर असर नहीं पडेग़ा, लेकिन कुल मिलाकर यह एक कमजोर दावा होगा। हां, कांग्रेस इस पर संतोष व्यक्त कर सकती है कि उसका वोट प्रतिशत भी बढ़ा और सीटें भी। कांग्रेस कर्नाटक में और अच्छा प्रदर्शन कर सकती थी, यदि उसने चुनाव के ठीक पहले महाराष्ट्र के राज्यपाल एसएम कृष्णा को अपनी राज्य इकाई पर नहीं थोपा होता। कांग्रेस ने कृष्णा को चुनाव जिताऊ और बड़े नेता के रूप में तो पेश किया, लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री का दावेदार बताने में संकोच बरता। इसके दुष्परिणाम सामने आने ही थे। कांग्रेस कर्नाटक के चुनाव नतीजों में महंगाई के असर को कम करके आंकने का जो प्रयास कर रही है वह उसकी भूल ही है। कर्नाटक में जनता दल (सेकुलर) की करारी हार पर सारे देश को प्रसन्न होना चाहिए। उसे 28 तो क्या 2 सीटें भी नहीं मिलनी चाहिए थी। जनता दल (सेकुलर) ने पिछले कुछ वर्षों में जैसी राजनीति का परिचय दिया है वह सिर्फ और सिर्फ अनैतिकता एवं अवसरवाद का पर्यायवाची ही थी। देश की राजनीति में ऐसे अनैतिकतावादी राजनीतिक दलों के लिए कहीं कोई जगह नहीं होनी चाहिए-भले ही वे अपने सीने पर पंथनिरपेक्षता का बिल्ला लगाए घूमते हों। जनता दल (सेकुलर) पंथनिरपेक्ष ताकत के रूप में कुल मिलाकर पंथनिरपेक्षता के नाम पर एक धाब्बा है। विडंबना यह है कि देश में ऐसे अनेक राजनीतिक दल हैं जो पंथनिरपेक्षता की दुहाई देकर भ्रष्ट, जातिवादी और अवसरवादी राजनीति का परिचय दे रहे हैं। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि ऐसे दलों को कांग्रेस अपने गले लगाने के लिए उतावली रहती है। यह तो समझ में आता है कि ऐसे दलों को गले लगाने का उतावलापन वाम दल दिखाएं, लेकिन कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय दल को ऐसा करना शोभा नहीं देता।
(26 मई 2008)
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