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Saturday 31 May, 2008

दक्षिण में कमल- राजस्थान पत्रिका

कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी ने अपने बलबूते पर भगवा परचम फहराया है। यूं तो सन 2004 में ही उसने विंधय पर्वत शृंखला के पार अपना कदम बढ़ा दिया था। तब वह 79 सीटें जीतकर एकमात्र सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, पर कांग्रेस तथा जनता दल (ध) ने धार्मनिरपेक्षता की आड़ में सरकार बनाकर जनादेश को पलट दिया था। इस बार जनता ने उसका बदला लेकर दक्षिण में कमल खिला दिया।


जहां तक कांग्रेस की हार का सवाल है, पिछले चार सालों में यह उसकी 16वीं पराजय है। हर बार की तरह अब भी वह क्षेत्रीय मुद्दों का बहाना बनाकर पराजय की खीझ मिटाना चाहेगी, पर उसे सोचना होगा कि हार का यह सिलसिला कैसे टूटे? सन् 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस संयुक्त प्रगतिशील गठबंधान (संप्रग) बनाकर जीती थी। उसी साल आंधा्रप्रदेश, अरूणाचल प्रदेश व महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में वह जीती, पर कर्नाटक, उड़ीसा और सिक्किम में हार गई। अगले साल 2005 में हरियाणा जीती, लेकिन झारखण्ड व बिहार में कांग्रेस ने कड़ी शिकस्त झेली। फिर 2006 में जहां असम व पांडिचेरी में कांग्रेस की सत्ताा बरकरार रही, वहीं पश्चिम बंगाल, केरल व तमिलनाडु में उसे कुछ नहीं मिला। सन् 2007 में मणिपुर व गोवा में कांग्रेस विजयी रही, पर इन छोटे राज्यों के मुकाबले पंजाब, उत्ताराखंड, उत्तार प्रदेश तथा गुजरात जैसे बड़े राज्यों में उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। सन् 2008 में तो त्रिपुरा, मेघालय, नगालैण्ड और अब कर्नाटक में उसकी हार हुई है। इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस की लोकप्रियता निरंतर ढलान पर है।


भाजपा के हाथ में इस समय सात राज्यों की सत्ता है। इसके अलावा 5 अन्य राज्यों में उसके नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधान (राजग) के घटकों की सरकारें हैं। निश्चय ही यह उसके भौगोलिक और सामाजिक विस्तार का प्रमाण कहा जा सकता है।


कांग्रेस ने कर्नाटक का चुनाव जीतने के लिए भरसक प्रयास किए। यहां तक कि उसने वोक्कालिगा, लिंगायत, कुरूबा, दलित, मुस्लिम, ईसाई और ब्राह्मण सभी तरह के दिग्गज नेता चुनाव मैदान में उतारे, पर जनता को उनकी तस्वीरें नहीं लुभा पाई। दूसरी ओर भाजपा ने सिर्फ अपने पुराने परखे नेता वी.एस. येदियुरप्पा को ही आगे रखा, जो बीस माह चली कांग्रेस-जद (ध) सरकार और पन्द्रह महीने अस्तित्व में रही जद (ध)- भाजपा सरकार के बाद सिर्फ सात दिन मुख्यमंत्री रहे। दूसरी ओर कांग्रेस ने पहले जनता के सामने प्रदेशाधयक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को रखा पर उन्हें भी मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा नहीं की। चुनाव के सन्निकट अचानक पूर्व मुख्यमंत्री एस.एम. कृष्णा को महाराष्ट्र के राज्यपाल पद से इस्तीफा दिलवा कर मुख्य अभियान प्रबंधाक बना दिया। स्वाभाविक रूप से इससे जनता में संशय की स्थिति उत्पन्न हुई। इस चुनाव में बसपा ने भी कांग्रेस के वोट काटने में काफी अहम भूमिका निभाई। भारत-अमरीकी असैन्य परमाणु करार को लेकर कांग्रेस वामपंथी दलों को तो नाराज कर ही चुकी है, अब संप्रग को भी एकजुट रखने की चुनौती खड़ी हो गई है। इनमें से दिल्ली को छोड़कर तीनों राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। कांग्रेस अगर कम्प्यूटराें के ही भरोसे नहीं रही और उसने मानवीय संवेदनाओं का फायदा उठाया तो सत्ताा-विरोधाी लहर उसकी मदद करेगी। इसके लिए उसे महंगाई तो काबू में करनी ही होगी, आतंकवाद और तुष्टीकरण से जुड़े सवालों पर भी सपाट जवाब देना होगा। इतना तो वह समझ ही गई होगी कि छठे वेतन आयोग की सिफारिशों, सच्चर रिपोर्ट पर अमल और किसानों के कर्ज माफ करने जैसे कदमों को भी वह कम से कम कर्नाटक में तो वोटों में नहीं बदल पाई। आगे अगर जीत हासिल करनी है तो यह कला भी सीखनी होगी।
(26 मई, 2008)

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