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Saturday 31 May, 2008

कर्नाटक का संदेश- राष्ट्रीय सहारा

कर्नाटक में कमल खिलने के साथ उपचुनाव परिणामों के संदेशों को मिलाकर पढ़ें तो इसमें कांग्रेस एवं संप्रग के लिए गहरी चिंता पैदा करने वाली अंतर्वस्तु निहित है। लोकसभा उपचुनावों में हिमाचल के हमीरपुर से भाजपा एवं ठाणे में शिवसेना की विजय को अगर राष्ट्रीय पैटर्न मान लिया जाए तो कांग्रेस एवं संप्रग के लिए खतरे की घंटी बच चुकी है। मेघालय के तूरा से पूर्व लोकसभा अधयक्ष पीए संगमा की पुत्री अगाथा के. संगमा की राकांपा प्रत्याशी के रूप में विजय अवश्य हुई है, लेकिन वहां कांग्रेस से उनका मुकाबला था। मेघालय मे कांग्रेस एवं राकांपा आमने-सामने हैं। हरियाणा के तीन विधानसभा उपचुनावों में से दो पर विजय से कांग्रेस के लिए सांस लेने की थोड़ी जगह मिल गई है, लेकिन वहां भी आदमपुर सीट से भजनलाल की विजय उसकी छाती में कील ठोंकने जैसा परिणाम ही है। गुजरात के बाद कर्नाटक उसके लिए दूसरा करारा आघात है। वह इसे तथाकथित सेक्युलर मतों के बंटवारे की परिणति मान रही है। यह कांग्रेस के दिशाभ्रम का ही सबूत है। क्या कांग्रेस यह कल्पना कर रही है कि गैर भाजपा या गैर राजग सारे दल उसके साथ खड़े हो जाएं? वर्तमान राजनीति में यह कितना नामुमकिन है इसका अहसास उसे होना चाहिए। कर्नाटक में जनता दल (से) और कांग्रेस प्रतिद्वंद्वी हैं। इनके बीच मतों के विभाजन को सेक्युलर-गैर सेक्युलर चश्मे से देखा ही नहीं जा सकता। वहां बसपा और सपा भी मैदान में थी। हालांकि उनको नाममात्र को मत मिले, लेकिन हैं तो वे भी इस तथाकथित सेक्युलर खेमे के दल ही। क्या कांग्रेस यह नहीं जानती कि इन दोनों के साथ उसका व्यापक चुनावी गठजोड़ संभव नहीं? चुनाव परिणाम भी यह साबित नहीं करते कि इस श्रेणी के दलों के बीच मत विभाजन से चुनाव परिणाम व्यापक रूप में प्रभावित हुए हैं। वास्तव में कांग्रेस अपनी लगातार पराजयों के सही संदेशों को पढ़कर अगर आत्ममंथन करे तो वह अपने उत्थान के लिए रास्ते निकाल सकती है, अन्यथा सेक्युलर गैर सेक्युलर की विकारपूर्ण खेमेबंदी में उसके लिए परित्राण का स्पेस है ही नहीं। इस समय देशभर में कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के प्रति असंतोष का माहौल है। महंगाई से निपटने की रणनीति से लोगों को राहत नहीं मिली है, आतंकवाद के प्रति केन्द्र का रवैया अस्पष्ट नजर आता है, लोगों को लगता है कि वामदलों के दबाव में सरकार कड़े फैसले नहीं ले पानी है खासकर भारत-अमेरिका परमाणु करार पर वामदलों के हमले के सामने सरकार की लाचारी का नकारात्मक संदेश गया है। कांग्रेस इन सब व्यूहों को धवस्त करने की कोशिश करने की बजाय यदि तीसरे मोर्चे की सोच वाली सेक्युलर और गैर सेक्युलर मोर्चेबंदी की कोशिश करेगी तो उसमें उसे नुकसान के सिवा और कुछ हासिल नहीं होगा। (27 मई, 2008)

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