हालांकि भारतीय जनता पार्टी को साफ बहुमत नहीं मिला, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि नतीजे पक्ष में आए हैं। पार्टी को बहुमत मिलने में सिर्फ तीन सीटों की कसर रह गई और उसका दावा है कि निर्दलीय विधायकों के समर्थन से वह यह कमी पूरी कर लेगी। इस तरह दक्षिण भारत में, वह भी अपने बूते, सरकार बनाने का भाजपा का सपना पूरा हो जाएगा। इस मायने में कर्नाटक विधानसभा के चुनाव उसके लिए कांग्रेस से कहीं ज्यादा अहम थे। इन नतीजों ने भाजपा को, जो मुख्य रूप से हिंदी भाषी क्षेत्रों की पार्टी मानी जाती रही है, खुद को एक राष्ट्रीय दल के रूप में स्थापित करने का मौका दिया है और वह भी ऐसे समय जब अगले लोकसभा चुनाव में सिर्फ एक साल रह गया है। यों नतीजे 2004 में हुए चुनावों की लकीर पर ही आए हैं। तब भी भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी और कांग्रेस दूसरे और जनता दल (एस) तीसरे नंबर पर। इस बार भी क्रम वही है। मगर इस दफा जद (एस) की कीमत पर भाजपा को जो फायदा हुआ उसने राज्य की सत्ता को उसके करीब ला दिया। पिछले साल नवंबर में एचडी देवगौड़ा और कुमारस्वामी के अपने वादे से मुकर जाने के कारण भाजपा सरकार बनाने से वंचित रह गई थी। हो सकता है इस कारण उसे थोड़ा सहानुभूति का लाभ मिला हो। पर भाजपा की जीत के पीछे कई और वजहें हैं। महंगाई और जयपुर के धमाकों के कारण आंतरिक सुरक्षा को चुनाव का प्रमुख मुद्दा बनाने में वह सफल रही और इससे कांग्रेस बचाव की मुद्रा में आ गई। भाजपा का प्रचार अभियान भी कांग्रेस की तुलना में ज्यादा सुनियोजित था।
माना जा रहा था कि भाजपा को मुख्य रूप से लिंगायतों के समर्थन का आसरा है, पर इस धारणा को तोड़ने और लगभग सभी तबकों का विश्वास पाने मं वह कामयाब हुई। दूसरी ओर कांग्रेस में सांगठनिक स्तर पर भाजपा के मुकाबले तत्परता और एकजुटता का अभाव दिखा। फिर अनेक सीटों पर टिकट प्रभावशाली नेताओं के चहेतों या रिश्तेदारों को दे दिए गए जिससे कार्यकर्ताओं में रोष फैला। सोनिया गांधाी और राहुल गांधी के दौरों को छोड़ दें, तो कांग्रेस का बाकी प्रचार अभियान बिखरा-बिखरा था। पार्टी ने किसी को मुख्यमंत्री को रूप में पेश नहीं किया। इसका नुकसान यह हुआ कि राज्य कांग्रेस के पांच-छह नेता मुख्यमंत्री पद के दावेदार समझे जा रहे थे और जिस समय पार्टी को पूरी तरह एकजुट दिखना चाहिए था वह गुटों में बंटी नजर आ रही थी। इस तरह कांग्रेस ने अपनी ढिलाई और चुनावी रणनीति की कमी से भाजपा के लिए दक्षिण का द्वार खोल दिया। 2004 में केन्द्र की बागडोर संभालने के बाद से कांग्रेस अब तक कई राज्यों के चुनाव हारी है, पर शायद ही उसने कोई सबक लिया हो। इन चुनावों के अनुभवों से यह साफ हो चुका है कि किसी को मुख्यमंत्री के रूप में पेश न करने की नीति ने उसे नुकसान ही पहुंचाया है। कांग्रेस की परंपरा है कि चुनाव के बाद आलाकमान की इच्छा पर विधायक दल की मुहर लगवा ली जाती है। मगर पार्टी को अब इस पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। साथ ही अगले कुछ महीनों में यूपीए सरकार को महंगाई और आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर अपनी सूझबूझ और दक्षता प्रमाणित करनी होगी। (27 मई, 2008)
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