कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों ने देश की जनता को चौंकाया नहीं है बल्कि कांग्रेस को नींद से जगाया है। दक्षिण भारत में पहली बार अपने ही बूते पर भाजपा सरकार बनाने जा रही है। हालांकि 224 में से 110 सीटें जीतने के बाद वह सरकार बनाने से 3 कदम दूर है लेकिन प्रतिद्वंद्वी इस राह में भी मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं। कई प्रतिद्वंद्वियों के राजनीतिक समीकरण भी भाजपा को रास आए। इससे सिध्द हो गया है कि अभी तक उत्तर भारत की ही रूढ़िवादी पार्टी मानी जाने वाली भाजपा की स्वीकार्यता दक्षिण में भी है। यह भाजपा अधयक्ष श्री राजनाथ सिंह के लिए गौरव की बात है कि उनके नेतृत्व में पार्टी लगातार विधानसभा चुनावों में विजय दर्ज करती जा रही है। ठीक ऐसा ही इस पार्टी के चुनाव प्रबंधक श्री अरूण जेटली के बारे में भी कहा जा सकता है कि जिस-जिस राज्य का प्रभार उनके हाथ में दिया गया वहां-वहां भाजपा की जीत हुई। मगर कर्नाटक की जीत भाजपा के लिए फूल कर कुप्पा होने वाली नहीं है। इसमें सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी का योगदान भी कोई कम नहीं है क्योंकि राज्य में कांग्रेस व भाजपा दोनों को ही बराबर-बराबर 37 प्रतिशत वोट मिले हैं और मायावती की पार्टी के प्रत्याशियों को 7 प्रतिशत के लगभग मत मिले हैं।
वास्तव में कर्नाटक के चुनाव राष्ट्रीय राजनीति में बसपा की महत्वपूर्ण होती भूमिका को रेखांकित करते हैं। ये चुनाव केन्द्र की मनमोहन सरकार और कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व पर सीधी टिप्पणी भी है कि केवल पारिवारिक विरासत कि बूते पर न तो अब पार्टी को चलाया जा सकता है और न सरकार को।
कर्नाटक में कांग्रेस की पराजय ने इसे डूबते जहाज के रूप में परिवर्तित कर दिया है क्योंकि दक्षिणी राज्यों में (केरल को छोड़कर) कांग्रेस को हराने की कूव्वत किसी राजनीतिक दल की अपेक्षा लोकप्रिय फिल्मी सितारों की चकाचौंधा में रही है चाहे वह आंधा्र प्रदेश हो या तमिलनाडू।
पहली बार कांग्रेस किसी दूसरे ऐसे दल से हारी है जिसका दायरा क्षेत्रीय न होकर राष्ट्रीय माना जाता है। जो कर्नाटक 1978 में इंदिरा गांधाी के लिए धाारदार हथियार बनकर उस समय की केन्द्र की जनता पार्टी की मोरारजी सरकार के सीने में सीधो छेद कर गया हो (इंदिरा जी ने 1977 का रायबरेली चुनाव हारने के बाद चिकमंगलूर से 1978 में उपचुनाव लड़ा था) और खुद सोनिया गांधी के लिए इस राज्य का बेल्लारी चुनाव क्षेत्र पूरी तरह सुरक्षित गढ़ समझा गया हो आज यदि वही भाजपा के खेमे में जा रहा है तो इसका संदेश यही है कि इस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से आम जनता का विश्वास खत्म हो रहा है। मगर कांग्रेसियों को यह समझाना बहुत मुश्किल काम है क्योंकि आज भी इनमें अपने ही बनाए हुए सपनों के संसार से बाहर निकलने की ताकत नहीं। हकीकत यह है कि आज का मतदाता जमीनी हकीकत को देखता है, उसके सामने कांग्रेस के शासन के पिछले चार साल शीशे की तरह साफ हैं कि किस प्रकार पूरे मुल्क को कुछ ऐसे लोगों की जागीर समझा जा रहा है जिन्हें इस देश की मिट्टी की सुगंधा का भी अहसास नहीं है। यही वजह है कि पिछले चार सालों में एक दर्जन के लगभग राज्यों में हुए चुनावों में दिल्ली, हरियाणा व मणिपुर को छोड़कर शेष सभी में कांग्रेस धाराशायी हुई और इसने अपने इसी दंभ के चलते भाजपा को सत्ता प्लेट में सजा कर दे दी।
(26 मई 2008)
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