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Friday, 5 October 2007

एक भटका हुआ आंदोलन है नक्सलवाद

लेखक- दिलीप सिमियन
सीनियर फेलो, नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी

यह कहना सही नहीं होगा कि हाल के वर्षों में नक्सली गतिविधियों में तेजी आई है। सच तो यह है कि 1967 में नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत के समय से ही उनकी गतिविधियां जारी हैं। हां, उनमें थोड़ा उतार-चढ़ाव आता रहा है। देश में 92 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। मजदूरों के खिलाफ ठेकेदार, बिचौलिये, मालिक या जमींदार की तरफ से हिंसा की जाती है। जिन उत्पादक रिश्तों में हिंसा एक दैनिक कर्म हो, वहां नक्सलवाद जैसी प्रतिरोधी गतिविधियों का होना स्वाभाविक है। हालांकि मैं नक्सलियों की हिंसात्मक गतिविधियों के पक्ष में नहीं हूं।

दूसरी बात यह कि देश में अपराध न्याय संहिता पूरी तरह फेल हो गई है। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू आदि हत्याकांडों के मामलों पर गौर कीजिए। मध्यवर्ग के साथ जब अन्याय हुआ तो क्रिमनल जस्टिस सिस्टम पर सवाल उठाए जाने लगे लेकिन आम आदमी रोज अन्याय और अत्याचार झेलता है। न्याय के लिए पुलिस, प्रशासन और कानून की शरण में जाता है लेकिन वर्षों तक कोर्ट-कचहरी में चप्पलें घिसने के बाद भी जब पैसे और ऊंची रसूख वालों के पक्ष में फैसले आते हैं, तो उस पर क्या असर पडता है, सोचा जा सकता है। न्याय व्यवस्था बिगड़ने से ही नक्सलवाद पनप रहा है। अगर राज्यसत्ता अपनी वैधता को पिघलते हुए देख रही है तो वैकल्पिक सत्ता हथियाएगी ही। यदि इस समस्या से निजात पानी है तो हमें पॉलिटिकल डेमोक्रेसी के साथ-साथ सोशल डेमोक्रेसी भी लागू करनी पड़ेगी।

लेकिन माओवादियों को भी यह सोचना चाहिए कि हिंसा के जरिए क्या वे अपना लक्ष्य हासिल कर पाएंगे। नेपाल में माओवादी हिंसा की एक वजह यह है कि वहां आम आदमी लोकतंत्र का हिमायती है और माओवादी इसकी आड़ में अपना अजेंडा चला रहे हैं। वे चाहते हैं कि वहां से राजतंत्र हट जाना चाहिए। लेकिन माओवादी जिस तरह से लोगों को मार रहे हैं, उससे कहा जा सकता है कि वे निरंकुशता की राजनीति कर रहे हैं। ये है नेपाल की बात, जहां लोकतंत्र नहीं है। लेकिन भारत में तो लोकतंत्र है। फिर यहां खूनी खेल क्यों खेल रहे हैं नक्सली। थोड़ी-बहुत त्रुटियों के बावजूद पिछले 5-6 दशकों से यहां संवैधानिक संस्थाएं काम कर रही हैं। यदि इसमें सुधार लाना है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाकर लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।

दुर्भाग्यवश नक्सली विचारधारा मानती है कि यहां की लोकतांत्रिक सत्ता एक झूठ है। वह मानती है कि भारत एक अर्ध सामंती, अर्ध औपनिवेशिक राज व्यवस्था है। हथियारों के माध्यम से वे यहां पीपल्स डेमोक्रेसी यानी सर्वहारा की सत्ता स्थापित करना चाहते हैं। उग्र वामपंथी (नक्सली) और उदार वामपंथी इसे अलग-अलग नजरिए से देखते हैं। उदार वामपंथी यानी सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई (माले) जैसी राजनीतिक पार्टियां संवैधानिक संस्थाओं में आस्था जताकर लोकतांत्रिक तरीके से राजसत्ता हासिल करना चाहती है जबकि नक्सली इन्हें झूठ मानते हैं। उनकी गतिविधियों का मुख्य उद्देश्य है पीपल्स आर्मी गठित करना। यह एक तरह का वामपंथी सैन्यवाद है। उग्र वामपंथियों और उदार वामपंथियों के बीच विभाजन की मुख्य वजह ही है हिंसा। मेरा सवाल है कि आखिर ये नक्सली मॉडरेट डिमांड्स को लेकर लोकतांत्रिक तरीके से लड़ाई लड़ने के लिए तैयार क्यों नहीं होते। लोगों को मारने की क्या जरूरत है। वे मानव प्राण को तिरस्कृत रूप से क्यों देखते हैं। यह एक नैतिक अपराध है।

मैंने जहां तक समझा है मानव प्राण के प्रति सम्मान ही समाजवादी आंदोलन की बुनियाद है। मुझे समझ नहीं आता कि निरीह, निर्दोष लोगों का कत्ल करने की वैचारिक वैधता नक्सलियों ने कहां से खोज निकाली। यह भी एक प्रकार की ब्राह्यणवादी विचारधारा ही है। नक्सलियों की 99 प्रतिशत मांगों, उनके आदर्शों को मैं सही मानता हूं लेकिन हत्या को राजनीति बनाना उन्हें दक्षिणपंथी फासिज्म से जोड़ता है। नक्सली जिस राह पर चल रहे हैं उससे अंतत: फायदा होगा वॉर इंडस्ट्री को। इनकी घोर क्रांतिकारिता बकवास है।

नक्सलियों का कहना है कि माओ की मृत्यु के बाद यह सब हुआ। 1976 में माओत्से तुंग की मृत्यु हुई थी। लेकिन उसके पहले सन 71 में चीन ने याहिया खान के साथ मिलकर पूर्वी पाकिस्तान में कत्लेआम किया। माओ ने श्रीलंका में भंडार नायके का समर्थन किया। और तो और वियतनाम पर अमेरिकी हमले की भी हिमायत की। चाइनीज आर्मी ने अमेरिकी आर्मी के साथ मिलकर वियतनाम पर कब्जा किया। माओत्से तुंग अति राष्ट्रवादी थे। माओ ने लिन प्याओ को अपना उत्तराधिकारी बनाया। वह हमेशा राज्य के हित में और कौमी राज्य के हित में काम करते थे। फिर क्यों हम चलें इनके नैशनलिज्म की राह पर। नक्सली या माओवादी यदि खून खराबा और हिंसा त्याग दें और बाकी मांगें रखें तो यह संघर्ष समाज और देश के लिए बेहतर होगा। जैसे मादा भ्रूण हत्या, नवजात बच्चियों की हत्या, न्यूनतम वेतन, न्याय प्रणाली में सुधार, कृषि मजदूरों और शहरी मजदूरों की जीवन स्थिति में सुधार, सांप्रदायिकता आदि को कॉमन इश्यू बना सकते हैं। लेकिन इन्हें कौन समझाए। ऑब्जेक्टिवली ये राइटिस्ट हैं और सब्जेक्टिवली लेफ्टिस्ट। इन्हें अपनी अंतरात्मा में झांककर देखना चाहिए कि समाजवादी आंदोलन कहां था और आज कहां है। मेरी सलाह है कि नक्सलियों को मैक्सिमम प्रोग्राम त्यागकर मिनिमम प्रोग्राम अपनाने चाहिए। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि आखिर ज्ञान का आधार क्या है और उसकी वैधता का मानदंड क्या है। वे यदि इस सिस्टम को अवैध मानते हैं तो बंदूक की नोक पर बनाई गई उनकी प्रणाली अच्छी होगी, इसकी क्या गारंटी है। दरअसल नक्सलियों की राजनीतिक वैधता का कोई आधार नहीं है। जिनके हाथ में बंदूक है, उनसे क्या बातचीत होगी। आम लोगों के जो बड़े-बड़े दुश्मन हैं, नक्सलियों ने आज तक उन्हें धमकाया तक नहीं चाहे वे बड़े से बड़े सांप्रदायिक क्यों न हों। जो खूंखार फासिस्ट हैं, जिन्होंने बाबरी मस्जिद गिराई उनसे नक्सली क्यों नहीं लड़े। गुजरात और देश के बाकी हिस्सों में सांप्रदायिकता के खिलाफ ये क्यों नहीं खड़े हुए।

खेद की बात है कि नक्सलियों में बहुत से दिलवाले भी हैं, जोशीले हैं, बुद्धिजीवी हैं और आम लोगों का भला चाहते हैं लेकिन उन्होंने चिंतन को, विचार को त्याग दिया है।

बातचीत: शशिकांत ://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/1473219.cms

2 comments:

Sanjeet Tripathi said...

बहुत बढ़िया लेख है!!
शुक्रिया इसे यहां देने के लिए!

आशुतोष कुमार said...

ek sawaal hai.
maanaa ki naxaliyon kaa raastaa theek nahi hai, jab ki unkee maange wazib hain.
naxali hindustaan me aate me namak ke baraabar honge.
to baakee saaraa shantipriya, ahimsaawaadee, gandhiwadee, nehruwaadee, lohiyaawaadee,hinduwadee,muslimwadee,streewaadee, dalitwaadee bharat milkar shantipurn tareekon se naxaliyon kee mange pooree kyon nahi kar detaa !naxalwaad swatah samaapt ho jaayega.
lakin shantipriya bhaarat aisaa nahi kar saktaa.ya shayad nahi karnaa chahtaa.

isee liye naxalwaad jindaa hai aur rahegaa.