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Tuesday, 12 May 2009

जरूरी है छद्म-सेक्युलरवादियों से बच कर रहना

चुनाव का मौसम आता है और हमारे वामपंथी बुध्दिजीवी, कांग्रेसी पाखण्डी और पंच सितारा होटलों में रहने वाले लोग तथाकथित समाजसेवी सेक्युलरिज्म पर अपना ज्ञान बघारने में लग जाते है और इस मुद्दे पर हंगामा खड़ा करना शुरू कर देते हैं। उन्हें तो इतना भी मालूम नहीं है कि 'सेक्युलरिज्म' शब्द की अवधारणा भारत में कोई नई नहीं है, परन्तु भले ही इसके आंतरिक शब्दों का अर्थ अलग हो। भारत में सेक्युलरिज्म का उपदेश देना मूर्खता है क्योंकि इसकी अवधारणा तो भारत की मिट्टी में चिरन्तन काल से चली आ रही है। सच तो यह है कि हमारे तथाकथित सेक्युलर ब्रिगेड के लोग जिस प्रकार का प्रचार कर रहे हैं, वह तो एक काल्पनिक बहुसंख्यक- अल्पसंख्यकों के बीच दीवार खड़ी कर छद्म-सेक्युलरिज्म का प्रचार कर रहे हैं जिससे कभी भी इस देश के लोगों में राष्ट्र के प्रति देशप्रेम की भावना का निर्माण नहीं हो सकता है।

यह दिखलाने के लिए कि वे ही सच्चे सेक्युलर सिध्दांतवादी है और अपनी सेक्युलर-विश्वसनीयता सिध्द करने के लिए लिए उन्हें बहुसंख्यकों की भर्त्सना करने में भी संकोच नहीं होता है। इस प्रकार की विचारधारा रखने से लोगों को एकजुट करने की बजाए होता यह है कि समस्या निरंतर बढ़ती चली जाती है। राष्ट्रीय एकता पनप तो नहीं पाती बल्कि अन्दरूनी रूप से लोगों में मजहबी उन्माद पैदा हो जाता है। समस्या निरंतर बनी रहती है जिससे राष्ट्रीय एकता की कीमत पर अल्पसंख्यक एकता को महत्व दिया जाता है, ताकि वोटबैंक की राजनीति चलती रहे।

काश, इस प्रकार का सेक्युलरिज्म ही राष्ट्रीय एकता निर्माण का ही सामंजस्यपूर्ण शक्ति बन पाता तो फिर कम्युनिस्ट शासित रूस और यूगोस्लोवाकिया क्यों विखण्डित होते। इस प्रकार का सेक्युलरिज्म सच्चे राष्ट्रवाद और देशभक्ति के विरूध्द रहता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए केवल एक ही पहचान की बजाए अनेक पहचान की बात की जाती है चाहे वह साम्प्रदायिक पहचान के रूप में किसी भी समुदाय की क्यों न हो? अब आप ही बताइए, कौन सी विचारधारा विभाजनकारी है? जब एक ही पहचान का सवाल सामने आता है तो भारत विश्व के सभी देशों में एक ही बात के लिए विख्यात है और वह है भारत की प्राचीन सभ्यता की पहचान, जिसमें उसका उज्ज्वल इतिहास और संस्कृति भी शामिल रहती है। भला कौन भगवान राम के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करने की बात सोच भी सकता है और फिर क्या कोई कह सकता है कि ऐसा सवाल खड़ा कर वह सेक्युलरिज्म को आगे बढ़ा रहा है? क्या कोई व्यक्ति विभिन्न धर्मों के लिए अलग-अलग सिविल संहिताओं की बात कहे और फिर भी कहे कि वे ही सेक्युलरिज्म के हितों के चैम्पियन हैं?

पहले की तरह ही इस बार 2009 की चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही, साम्प्रदायिकता और सेक्युलरिज्म के बीच बहस फिर से सामने आ गई है। इस बार जिन व्यक्तियों ने इस बहस की शुरूआत की है, वह और कोई नहीं, वे हैं 'ग्रेट कामरेड' श्री प्रकाश करात और उनके साथीगण तथा कुछ पुराने कांग्रेस के बोगस-सेक्युलर मित्र। बार-बार उनकी एक ही रट लगी रहती है कि साम्प्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोकने के लिए केन्द्र में सेक्युलर पार्टियां मिलकर सेक्युलर सरकार बनाएंगी। परन्तु आम आदमी के लिए यह समझ पाना मुश्किल है कि कामरेडों का साम्प्रदायिकवाद और सेक्युलरवाद का मतलब क्या है? बल्कि यह बात और भी रोचक लगने लगती है कि भारत में वामपंथी प्रमाणपत्र देने वाली एजेंसी बन गई है कि कौन सेक्युलर है और कौन साम्प्रदायिक! उनके अनुसार-

- अफजल गुरू, कसाब और मदानी जैसे आतंकवादियों के प्रति उदासीनता बरती जाए तब तो ऐसे लोग भी सेक्युलरवादी होते है परन्तु एमसी शर्मा के बलिदान का समर्थन किया जाए तो वे लोग साम्प्रदायिक बन जाते है।
- एम.एफ. हुसैन सेक्युलर है परन्तु तस्लीमा नसरीन साम्प्रदायिक है, तभी तो उसे पश्चिम बंगाल के सेक्युलर राज्य से बाहर निकाल दिया गया।
- इस्लाम का अपमान करने वाला डेनिश कार्टूनिस्ट तो साम्प्रदायिक है परन्तु हिन्दुत्व का अपमान करने वाले करूणानिधि को सेक्युलर माना जाता है।
- मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के बलिदान का उपहास उड़ाना सेक्युलरवादी होता है, हेमन्त करकरे के बलिदान पर प्रश्नचिह्न लगाने वाला सेक्युलवादी होता है, दिल्ली पुलिस की मंशा पर सवाल खड़ा करना सेक्युलरवादी होता है, परन्तु एटीएस के स्टाइल पर सवाल खड़ा करना साम्प्रदायिकता के घेरे में आता है।
- राष्ट्र-विरोधी 'सिमी' सेक्युलर है तो राष्ट्रवादी रा.स्व.सं साम्प्रदायिक है।
- एमआईएम, पीडीपी, एयूडीएफ और आईयूएमएल जैसी विशुध्द मजहब-आधारित पार्टियां सेक्युलर है, परन्तु भाजपा साम्प्रदायिक है।
- बांग्लादेशी आप्रवासियों, विशेष रूप से मुस्लिमों का और एयूडीएफ का समर्थन करना सेक्युलर है, परन्तु कश्मीरी पंडितों का समर्थन करना साम्प्रदायिक है।
- नंदीग्राम में 2000 एकड़ क्षेत्र में किसानों पर गोलियों की बरसात करना सेक्युलरिज्म है परन्तु अमरनाथ में 100 एकड़ की भूमि की मांग करना साम्प्रदायिक है।
- मजहबी धर्मांतरण सेक्युलर है तो उनका पुन: धर्मांतरण करना साम्प्रदायिक होता है।
- कुछ चुनिंदा समुदायों को स्कालरशिप और आरक्षण सेक्युलरिज्म है परन्तु सभी योग्य-सुपात्र भारतीयों के बारे में इस प्रकार की चर्चा करना भी साम्प्रदायिक होता है।
- मजहबी आधार पर आर्मी, न्यायपालिका, पुलिस में जनगणना कराना कांग्रेस और वामपंथियों की नजरों में सेक्युलरिज्म है परन्तु एक-भारत की बात करना भी साम्प्रदायिक है।
- हिन्दू समुदाय के कल्याण की बात करना साम्प्रदायिक है तो उधर मुस्लिम तुष्टिकरण सेक्युलर है।
- कामरेडों का नमाज में भाग लेना, हज जाना और चर्च जाना तो सेक्युलरिज्म है परन्तु हिन्दूओं का मंदिरों में जाना या पूजा में भाग लेना साम्प्रदायिक है।
- पाठय-पुस्तकों में छत्रपति शिवाजी और गुरू गोविन्द सिंह जैसी धार्मिक नेताओं के प्रति अपशब्दावली का इस्तेमाल 'डिटोक्सीफिकेशन' या सेक्युलरिज्म माना जाता है और भारत सभ्यता का महिमामंडन साम्प्रदायिक कहा जाता है।

हमारे प्रिय छद्म-सेक्युलर कामरेडों, आखिर आप आम आदमी को क्या समझते हैं? क्या वे एकदम मूर्ख है? नहीं, बिल्कुल नहीं! वे आपकी मंशा और विदेशों के प्रति आपके नर्म रूख को वे भली भांति जानते हैं, वे आपकी गली-सड़ी विचारधारा को समझते हैं, जिसे पूरी दुनिया ने कूड़े में फेंक दिया है। आपने एक बार नहीं, दो बार नहीं, बल्कि कई बार अपने को राष्ट्र-विरोधी और समाज-विरोधी प्रमाणित कर दिया है।
आप तो उस विचारधारा के प्रवर्तक रहे हैं जिसने 1942 में 'भारत छोड़ो' आंदोलन का जबरदस्त विरोध किया, 1962 में आपने चीन-भारत युध्द में भारत का विरोध किया, पाकिस्तान के साथ 1965 और 1971 के युध्दों मे ंभारत का विरोध किया, करगिल युध्द में आक्रमणकारियों के समर्थन में आकर भारत की कार्रवाई पर सवालिया निशान लगाया, जब 1975 में राष्ट्रीय इमर्जेंसी लगी तो आपने लोकतंत्र का गला घोंटने का समर्थन किया, आपने अवैध बांग्लादेशी आप्रवासियों के देश-निष्कासन का विरोध किया, 'भारत के परमाणु शक्ति बन जाने' तक का विरोध किया, बल्कि आपने इस पर उस समय चीन का समर्थन किया जब वह परमाणु शस्त्रों का परीक्षण कर रहा था। अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का विरोध किया। भारत में विकास और औद्योगीकरण का विरोध किया और आपकी पार्टी की शासित राज्य सरकार ने 'सेज' निर्माण के लिए निर्दोष किसानों पर गोलियों की बौछार की। आप तो वह लोग हैं जिन्होंने 'सोनार बागला' (पश्चिम बंगाल) को तबाह करके रख दिया। आपने अपने 30 वर्ष के शासन में राज्य को भारतीय राज्यों में सबसे निचले स्तर पर लाकर खड़ा कर किया है, पश्चिम बंगाल और केरल में सभी विकास-कार्य ठप्प हो गए हैं, आपने अपने स्वार्थ के लिए पूरी अर्थव्यवस्था और समाज को तबाह करके रख दिया है।

आप तो उसी वामपंथी मोर्चे के लोग हैं जिन्होंने अपने स्वार्थी राजनैतिक हितों के लिए यूपीए के बैनर तले साढ़े चार वर्षों तक कांग्रेस का खूब दोहन किया। और जब आपने देख लिया कि अब तो दूध मिलने वाला नहीं तो अपने उसे बाहर का दरवाजा दिखा दिया। कांग्रेसनीत यूपीए की तरह आप भी भारत और उसकी अर्थव्यवस्था को बिगाड़ने के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं। आप भी उसी गठबंधन का हिस्सा थे जिसने देश को समृध्द बनाने की बजाए गरीब बना कर रख दिया, किसानों के कल्याण की बजाए उन्हें आत्महत्या करने पर मजबूर किया, कीमतें स्थिर न रह कर आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को आसमान तक पहुंचा दिया, भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की बजाए तबाह कर दिया, आम आदमी की रोजी-रोटी को छीना, बेरोजगारी बढ़ी और उसकी सुरक्षा खतरे में पड़ गई।

हमारे प्रिय कामरेडों, यह सच है कि किसी भी व्यक्ति के लिए आपकी सही प्रकृति भांपना बेहद मुश्किल काम है परन्तु सीधो सादे शब्दों में यह तो कहा ही जा सकता है कि आप 'अवसरवादी' होने के अलावा कुछ भी नहीं रह गए हैं और आप सत्ताा हथियाने के लिए किसी से भी हाथ मिला सकते हैं और हमारे इस महान देश को सीढ़ी दर सीढ़ी तबाह करने में जुटे हैं। वरना, उड़ीसा में जो बीजेडी दो महीने पहले साम्प्रदायिक थी, वह आपसे मिलने के बाद कैसे एक ही रात में सेक्युलर बन गई। यदि आप मानते हैं कि चन्द्रबाबू नायडू, जयललिता और देवगौड़ा साम्प्रदायिक थे, जब वे एनडीए के पार्टनर थे, तो अचानक वे आज कैसे सेक्युलर हो गए।

यह नितांत अवसरवादिता है और आप फिर से सेक्युलरिज्म के नाम पर सत्ताा हथियाने की फिराक में लगे हैं। क्योंकि आम आदमी आपकी वास्तविक मंशा को समझने लगा है, इसलिए आप अपनी पार्टी के 80 वर्ष के इतिहास में अपने खेमे में 80 एमपी भी ला नहीं पाए। यदि राष्ट्र-विरोधी तत्वों के खिलाफ आवाज उठाना साम्प्रदायिक है, यदि अपने उज्ज्वल अतीत और संस्कृति पर अभिमान करना साम्प्रदायिक है तो इस महान देश का आम आदमी छद्म-सेक्युलर होने के बजाए स्वयं को साम्प्रदायिक कहलाना ही अधिाक पसंद करेगा। हमें उम्मीद है कि देश का परिपक्व मतदाता इन चुनावों में छद्म-सेक्युलवादी ताकतों से बुरी तरह आहत होकर अपने को सेक्युलरवादी होने का दावा करने वालों के मिथक को तोड़ डालेगा और उन्हें सेक्युलरिज्म का सही अर्थ समझा देगा।

- राम प्रसाद त्रिपाठी
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध-छात्र हैं)

Wednesday, 29 April 2009

संप्रग सरकार यानी घोटालों की सरकार

कांग्रेस-नीत संप्रग सरकार के चरित्र में भ्रष्‍टाचार समाहित रहा और उसने
संकीर्ण स्‍वार्थों की खातिर पूरे तंत्र को ध्‍वस्‍त कर दिया। कांग्रेसनीत केन्‍द्र
सरकार के शासन में गेहूं आयात घोटाला, स्‍पेक्‍ट्रम घोटाला, स्‍कॉर्पियन पनडुब्‍बी
घोटाला, वोल्‍कर घोटाला, सेज घोटाला, बालू प्रकरण, डीडीए घोटाला.....जैसे घोटालों
का अंतहीन सिलसिला जारी रहा।


घोटालों की सरकार यानी संप्रग सरकार के कारनामों पर एक नजर-

बालू का मुद्दा
डीएमके मंत्री द्वारा अपने बेटों को फायदा पहुंचाने के लिए पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस मंत्रालय से अनुरोध करने तथा प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा मंत्रालय को पत्र लिखना दुर्भाग्यपूर्ण रहा।

मंत्री महोदय ने घोटाले में न केवल अपनी भूमिका को स्वीकार किया, जिसमें उन्होंने कहा कि मैने अपने बेटों की स्वामित्व वाली कम्पनियों के लिए पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय से फायदा पहुंचाने की बात का अनुरोध किया है, बल्कि वह बड़ी दिठाई से 'तो क्या हुआ' जैसा रवैया अपनाकर चलते रहे।

इस घोटाले का रहस्य खुलने से एक और भी बड़ी बात जुड़ गई कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने डीएमके मंत्री के इस मामले की सिफारिश करते हुए आठ-आठ पत्र पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस मंत्रालय को लिखे।

यूपीए चेयरपर्सन की चुप्पी भी इस मामले में एक दम साफ रही क्योंकि यह बात हर व्यक्ति जानता है कि सरकार की पूरी राजनीतिक सत्ता ही उनके हाथों में है।

प्रधानमंत्री और यूपीए चेयरपर्सन दोनों ही की चुप्पी से पता चलता है कि कांग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व की सरकारों में शुचिता और जवाबदेही किस हद तक गिर गई है जो कभी पहले स्वतंत्रता के दशकों में हुआ करती थी।

क्वात्रोच्चि पर रहम

हाल ही में केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने बहुचर्चित बोफोर्स तोप सौदा दलाली कांड के मुख्य अभियुक्त इतालवी नागरिक ओतावियो क्वात्रोच्चि का नाम आरोपी सूची से हटा दिया। ऐसा लगता है सोनिया गांधी के दवाब में प्रधानमंत्रीजी झुक गए हैं।

पिछले वर्ष यूपीए के कानून मंत्री श्री एच.आर. भारद्वाज की कृपा से बोफोर्स मामले में दलाल ओत्तावियो क्वात्रोच्चि के व्यक्तिगत खातों को डिफ्रीज कर दिया गया। सीबीआई सूत्रों के अनुसार इसका मतलब क्वात्रोच्चि के खिलाफ केस को कमजोर किया जाना है। एक ऐसी पार्टी, जिसमें वहां की सुप्रीम लीडर की इजाजत के बिना एक पत्‍ता भी हिल नहीं सकता है, जिससे निष्कर्ष निकालना जरा भी कठिन नहीं है। कानून मंत्री श्री एच.आर. भारद्वाज ने जो कुछ भी किया, उसे वह अपनी सुप्रीम लीडर की स्वीकृति के बिना करने की हिम्मत कर ही नहीं सकते थे।

वह तब तक यह सब कुछ नहीं कर सकते थे, जब तक उन्हें यह विश्वास न हो जाए कि ऐसा करने से ही उनकी सुप्रीम लीडर खुश होगी। यह बात कि वे खुश थी, इस बात से सिद्ध हो गई जब श्री भारद्वाज की गलती के लिए उन्हें हटाने की बजाए उनको बचाया गया तथा उन्हें लगातार छठी बार राज्यसभा के लिए नामित कर उन्हें पुरस्कृत किया गया।''

यह याद रखना जरूरी होगा कि श्रीमती सोनिया गांधी के साथ क्वात्रोच्चि के व्यक्तिगत सम्बंध सबको मालूम है और कुछ सूत्रों का तो यह भी कहना है कि ये सम्बंध बहुत पहले के हैं। क्वोत्रोच्चि ने गांधी परिवार के सम्बंध में अपनी निकटता की बात अपने विभिन्न साक्षात्कारों में स्वीकार भी की है जिसका किसी ने खण्डन भी नहीं किया है। यूपीए सरकार क्वात्रोच्चि पर बड़ी मेहरबान रही है, हालांकि उनके खिलाफ आज भी रेड कार्नर नोटिस निकला हुआ है। वह अभी तक पुलिस और कोर्ट की निगाह में भगौड़ा है जिसे यूपीए सरकार बचा रही है।

क्वात्रोच्चि गिरफ्तार
20 फरवरी 2007 को क्वात्रोच्चि अर्जेंटीना में गिरफ्तार कर लिया गया। अर्जेंटीना के कानून के मुताबिक भारत सरकार को उसके प्रत्यर्पण के लिए तीस दिनों के अंदर केस फाइल करनी थी, लेकिन संप्रग सरकार ने इस अति महत्त्वपूर्ण सूचना को लोगों से 20 दिनों तक छिपाए रखा। दुर्भाग्य है कि यह सूचना लोगों को चैनेलों के माध्‍यम से मिली। ऐसा लगता है कि सरकार इसे पूरे 30 दिनों तक छिपाए रखना चाहती थी, ताकि क्वात्रोच्चि फरार हो जाए। संप्रग सरकार यह कह कर अपना बचाव कर रही थी, कि भारत की अर्जेंटीना से कोई प्रत्यर्पण संधि नहीं है, हालांकि स्रोतों का कहना है कि दोनों देशों के बीच ब्रिटिश काल से ही प्रत्यर्पण संधि है, जिसे दोनों देशों में से किसी ने भी भंग नहीं किया है।
सच तो यह है कि संप्रग सरकार का निर्णय गलत था। गौरतलब है कि अबू सलेम को बिना प्रत्यर्पण संधि के ही पुर्तगाल से भारत लाया गया था।

सीबीआई की लगातार विफलता से न केवल क्वात्रोची को रिहा होने में मदद मिली, बल्कि वह अपने देश लौटने में सफल रहा। सीबीआई अर्जेंटिना के कानूनों के मुताबिक दस्तावेजों को पेश करने में असफल रही। वह 25 मई 1997 के कोर्ट आदेश को भी प्रस्तुत करने में असफल रही, जिसके आधार पर भगोड़े का प्रत्यर्पण प्रयास जारी था। सीबीआई प्रत्यर्पण सुनिश्चित कराने के लिए अर्जेंटिना कोर्ट में दस्तावेज पेश करने में विफल रही। यह प्रत्यर्पण आदेश के लिए आवश्यक वैधानिक आधारों को भी नहीं पेश कर सकी। सीबीआई का सर्वाधिक हास्यास्पद बहाना यह कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पांच महीने बाद भी वह अर्जेंटिना कोर्ट के आदेश की आधिकारिक अनुवादिक कॉपी प्राप्त नहीं कर सकी। यह सभी गतिविधियां हमारे इस दावे की भलीभांति पुष्टि करते हैं कि 'क्वात्रोची बचाओ अभियान' में सीबीआई के जरिए सरकार शामिल है।

स्कोर्पियन पनडुब्बी घोटाला
गत मार्च 2006 में यूपीए सरकार का भ्रष्टाचार का एक बड़ा घोटाला सामने आया। मामला था र्स्कोपियन पनडुब्बी खरीद मामले में लगभग 750 करोड़ की दलाली लेने का। जिस 'थेल्स' नाम कंपनी से भारत सरकार ने यह पनडुब्बी खरीदी उस कंपनी का नाम विश्व बैंक की काली सूची में दर्ज है। एनडीए सरकार के कार्यकाल में इस कंपनी की अविश्वसनीयता को धयान में रखते हुए थेल्स कंपनी के प्रस्तावों को रद्द कर दिया गया था। पर वहीं वर्तमान यूपीए सरकार ने उसी कंपनी से 18798 करोड़ रूपये के स्कोर्पियन पनडुब्बी का सौदा किया तथा लगभग 750 करोड़ रूपये की दलाली इस पूरे सौदे में कुछ बिचौलियों के बीच बांट ली गयी।

मित्रोखिन आर्काइव्ज में खुले भेद
'मित्रोखिन आर्काइव्ज' के प्रकाशन से कांग्रेस और कम्युनिस्टों की शर्मनाक गाथा सामने आई जिससे पता चलता है कि धान के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा को भी खतरे में डाला जा सकता है। इस बात का आरोप लगा है कि इमर्जेंसी के उन बदनाम दिनों में केजीबी ने श्रीमती गांधी के समर्थन देने तथा उनके राजनैतिक विरोधियों के खिलाफ गतिविधियां चलाने के लिए 10.6 मिलियन रूबल (उस समय के विनिमय दर के हिसाब से लगभग 10 मिलियन पौंड से अधिाक) की राशि खर्च की थी।

केजीबी के पेपरों से यह भी पता चलता है कि 1977 के चुनावों में केजीबी ने 21 गैर कम्युनिस्ट राजनीतिज्ञों को, जिन में चार केन्द्रीय मंत्री भी शामिल थे, को मदद दी थी। मास्को ने केजीबी के माध्‍यम से सीबीआई को बडी तादाद में धान दिया था। अकेले 1975 के पहले छह महीनों में ही 25 लाख रूपए भेजे गए थे।

वोल्कर
पॉल वोल्कर के नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र समिति में जो रहस्योद्धाटन हुए हैं उससे कांग्रेस की विफलताओं की सूची और बढ़ गई। इसमें कांग्रेस और तत्कालीन विदेश मंत्री श्री नटवर सिंह को 2001 में ईराकी तेल बिक्री में गैर अनुबंधीय लाभार्थी के रूप में दिखाया गया है। शुरू में प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने श्री नटवर सिंह से मुलाकात करने के बाद अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि अनाज के बदले तेल कार्यक्रम के बारे में संयुक्त राष्ट्र जांच में जो कुछ तथ्य सामने आए हैं वे किसी विपरीत निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए अपर्याप्त हैं।

बाद में कांग्रेस और प्रधानमंत्री को मुंह की खानी पड़ी जब श्री नटवर सिंह ने त्यागपत्र देने का फैसला किया ताकि कांग्रेस अधयक्ष श्रीमती सोनिया गांधी की खाल बचाई जा सके क्योंकि वे भी इस घोटाले में उतनी ही शामिल थी और यह बात उनकी सहमति और जानकारी के बिना नहीं हो सकती थी।

अब जांच श्री नटवर सिंह तक सीमित है और आश्चर्य की बात है कि यूपीए सरकार इस घोटाले पर अजीब सी चुप्पी साधो है जिसमें कांग्रेस भी शामिल है। सरकार ने वोल्कर घोटाले की जांच के लिए जस्टिस आर.एस. पाठक अथोरिटी गठित की है। यह अथोरिटी बड़ी धीमी गति से कार्य कर रही है। इसका 6 महीने का कार्यकाल पूरा हो चुका है। और इसका कार्यकाल आगे बढ़ा दिया गया है।

पाठक अथॉरिटी की रिपोर्ट
जस्टिस आर.एस. पाठक अथॉरिटी की रिपोर्ट से कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी और पूर्व विदेश मंत्री के. नटवर सिंह के लिए गहरा धक्‍का लगने वाली बात होनी चाहिए क्योंकि ये दोनों उसी दिन से ही अपने को निर्दोष होने का दावा करते आ रहे हैं जबसे संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा नियुक्त वोल्कर कमिटी ने 'अनाज के बदले तेल' के कार्यक्रम के अंतर्गत अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए तेल वाउचरों में इन दोनों का नाम गैर-अनुबंधीय लाभार्थी के रूप में लिया था। जस्टिस पाठक ने नटवर सिंह, उनके बेटे जगत सिंह दोनों को ही ठेका प्राप्त करने में अपने पदों का दुरूपयोग करने का दोषी पाया है। एक ऐसी पार्टी जहां श्रीमती सोनिया गांधी की स्वीकृति के बिना पता तक भी नहीं हिल सकता तो कैसे यह माना जा सकता है कि जो कुछ हुआ उसके बारे में श्रीमती गांधी को पता ही नहीं था।

जस्टिस पाठक अथॉरिटी रिपोर्ट से प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह द्वारा क्लीन चिट पर भी प्रश्न खड़े हो जाते हैं जिसमें प्रधानमंत्री ने यह दावा किया था कि रिपोर्ट में 'अपर्याप्त साक्ष्य' है जिनसे श्री नटवर सिंह के खिलाफ किसी विपरीत निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। यदि ऐसी बात है तो जस्टिस पाठक श्री नटवर सिंह को कैसे दोषी ठहरा सकते हैं। यदि ऐसा है तो डा. मनमोहन सिंह ने क्यों नटवर सिंह से विदेश पोर्टफोलियो छीना और कुछ दिनों बाद क्यों उन्हें अपने मंत्रिमंडल से हटा दिया?

बोइंग सौदे में जांच की आवश्यकता
यूपीए सरकार ने एयर इंडिया के लिए विमान प्राप्त करने के लिए जो ढंग अपनाया है उससे भारत और विदेशों में गहरी नाराजगी है। जो प्रक्रिया अपनाई गई हैं उसमें कहीं पारदर्शिता नहीं हैं।

नौसेना वार रूम से सूचनाएं लीक
पिछले दिनों भारतीय सेना के एक प्रमुख अंग नौसेना के वार रूम से कुछ गुप्त सूचनाएं लीक किये जाने व उन्हें विदेशियों को बेचे जाने का मामला सामने आया। इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि इस मामले में नौसेना के 3 अफसरों को बिना किसी कोर्ट मार्शल या जांच के बर्खास्त कर दिया गया। पर जिन लोगों ने यह सूचना लीक की और विदेषियों को बेचा उनके खिलाफ केंद्र सरकार ने कोई कार्यवाही अभी तक नहीं की है। यदि इस मामले में नौसेना के वरिश्ठ अधिकारियों को बर्खास्त किया गया तो इन बिचौलियों को सरकार क्यों बचा रही है? वह भी तो देशद्रोह का मामला है। रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी का इस पूरे मामले में बयान आश्‍चर्य में डालने वाला है । उनका कहना है कि लीक हुई सूचनाएं वाणिज्य महत्व की थी।

Saturday, 4 April 2009

'मुंह में मार्क्‍स, बगल में मदनी'

'मुंह में मार्क्‍स, बगल में मदनी।' देश के सभी दलों को धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने वाली माकपा का यह नया दर्शन है। चुनावी मौसम में मुसिलम वोटों के लिए माकपा की बेताबी देखने लायक है और इसके लिए उसे सांप्रदायिक और आतंकवादी मुसिलम संगठनों से हाथ मिलाने से भी कोई परहेज नहीं रहा। केरल में अपने वाम सहयोगियों के विरोध के बावजूद वह कोयंबतूर बम कांड के आरोपी और आतंकवादियों से रिश्ते रखने वाले अब्दुल नासेर मदनी की पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) से गठबंधन कर रही है तो पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम और रिजवानुर हत्याकांड के बाद मुस्लिमों में बढ़ते असंतोष से पार पाने के लिए जमाते-इस्लामी-ए-हिंद और जमीअत-उलेमा-ए हिंद के साथ सहयोग की संभावनाएं तलाश रही है।

माकपा हमेशा से अल्पसंख्यकों की खास हितैषी होने का दावा करती रही है। पार्टी के मुताबिक वह अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और विकास पर विशेष ध्यान देती है। सच्चर कमेटी की सिफारिशों को अमली जामा पहनाने के लिए उसने यूपीए सरकार पर लगातार दबाव बनाए रखा। माकपा शासित राज्यों केरल और पश्चिम बंगाल में उसकी सरकारों ने अल्पसंख्यकों के विकास के लिए हर संभव कदम उठाए। लेकिन मुस्लिम इन दावों से प्रभावित हुए बगैर उससे छिटकते जा रहे हैं। चुनाव से ठीक पहले उसे अपने दो मुस्लिम सांसदों केरल के अब्दुल्ला कुट्टी और पश्चिम बंगाल के अबू आयेश मंडल को पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण निष्कासित करना पड़ा। यह कहीं न कहीं मुसिलमों में पार्टी के प्रति बढ़ते असंतोष का परिचायक है। केरल में तो माकपा को मुसिलम वोट कम ही मिलते हैं लेकिन पश्चिम बंगाल में अभी तक मुसिलम वोट माकपा के साथ थे। अब यहां भी नंदीग्राम और रिवानुर हत्याकांड के बाद मुसिलम वोटों के उससे छिटक कर तृणमूल के साथ जाने के आसार नजर आ रहे हैं।

भाजपा की केसरिया सांप्रदायिकता को लेकर नाक-भौं सिकोड़ने वाली माकपा को शायद इस्लामी सांप्रदायिकता और उग्रवाद से कोई परहेज नहीं है। केंद्रीय नेतृत्व के संकोच, बाकी वाम दलों के विरोध और पार्टी के मुख्यमंत्री धड़े के एतराज के बावजूद केरल माकपा पर हावी पिनराई विजयन गुट मदनी की पीडीपी से गठबंधन कर रहा है। मदनी राज्य की उग्रवादी मुसिलम राजनीति के सितारे हैं और संगीन आरोपों से घिरे रहे हैं। वे कोयंबतूर बमकांड के अभियुक्त रहे लेकिन सबूतों के अभाव में बरी हो गए। लेकिन हाल ही में पकड़े आतंकवादियों से पता चला कि मदनी और उनकी पत्नी सूफिया के आतंकवादियों से रिश्ते लगातार बने रहे हैं और वे उन्हें पनाह भी देते रहे हैं। इसके अलावा उन पर सांप्रदायिकता भड़काने सहित कई मामलों में बीस मुकदमें चल रहे हैं। एक समय मदनी ने इस्लामी सेवक संघ बनाया था लेकिन अब उसका नाम बदल की पीडीपी कर दिया है।

केरल की सबसे ताकतवर मुसिलम पार्टी मुसलिम लीग कांग्रेस की अगुआई वाले मोर्चे के साथ हैं। इसलिए माकपा पिछले कुछ अर्से से उसके गढ़ में सेंध लगाने के लिए मदनी की पीडीपी का इस्तेमाल कर रही है। लेकिन माकपा और मदनी का यह सहयोग पर्दे की ओट में चलता था। माकपा कहती थी पीडीपी उसका समर्थन कर रही है तो वह कैसे इंकार करे। लेकिन इस चुनाव में माकपा की कलई खुल गई है क्योंकि उसने पोन्नई की सीट भाकपा के घोर विरोध के बावजूद मदनी की पार्टी के उम्मीदवार को दी। इसके बाद माकपा ने वाम मोर्चे के कार्यकर्ता सम्ममेलनों में मदनी और उनकी पार्टी के नेताओं को बुलाना शुरू किया। इसका वाम मोर्चे के प्रमुख घटक भाकपा और आरएसपी ने विरोध किया। इन दोनों दलों की दलील है कि पीडीपी एक सांप्रदायिक पार्टी है। लेकिन माकपा उनके विरोध की जरा भी परवाह नहीं कर रही।

मदनी को लेकर वाम मोर्चे में ही नहीं तो माकपा के अंदर भी मतभेद है। खुद मुख्यमंत्री अच्युतानंदन ही पीडीपी के साथ गठबंधन के खिलाफ हैं। उन्होंने हाल ही में यह बयान देकर अपनी नाराजगी साफ कर दी कि मदनी को क्लीन चिट नहीं दी जाएगी। यह भी बताया जाता है कि मुख्यमंत्री ने पार्टी की पोलित ब्यूरो से माकपा-पीडीपी गठबंधन के खिलाफ शिकायत की है। लेकिन राज्य माकपा सचिव विजयन पीडीपी को 'धर्मनिरपेक्ष' होने का प्रमाण पत्र बांटते फिर रहे हैं। पार्टी के सामने पशोपेश की स्थिति तब पैदा हो गई जब जमाते-इस्लामी-ए-हिंद और जमीअत-उलेमा-ए-हिंद ने भी पीडीपी को सांप्रदायिक संगठन करार दे दिया। मजेदार बात यह है कि माकपा का केंद्रीय नेतृत्व पार्टी के लिए इन दोनों संगठनों का समर्थन जुटाने में लगा हुआ है। इन संगठनों की जल्दी ही पश्चिम बंगाल वाम मोर्चे के अध्यक्ष विमान बोस के साथ बैठक होने वाली है। यह बात अलग है कि इन दोनों मुसिलम संगठनों का केंद्रीय नेतृत्व माकपा के साथ सहयोग के पक्ष में है लेकिन उनकी स्थानीय इकाइयां इसके खिलाफ है। पश्चिम बंगाल की इकाई नंदीग्राम के बाद माकपा के साथ किसी भी तरह के तालमेल के खिलाफ है।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि माकपा के अभेद्य गढ़ों केरल और पश्चिम बंगाल में पार्टी के पैरों तले जमीन खिसकती जा रही है। इससे हताश माकपा मुसलिम सांप्रदायिक और उग्रवादी संठनों के साथ प्रेम की पींगें बढ़ाने के लिए मजबूर हो रही है। दरअसल माकपा मुसिलमों को रिझाने के लिए हर तह के तरीके इस्तेमाल करती रही है। उसने मुसलिमों के इराक और फिलिस्तीन जैसे वैश्विक इस्लामी मुद्दे बहुत जोर-शोर से उठाए। करेल में उसकी सभाओं में अक्सर सद्दाम हुसैन और यासिर अराफत की तस्वीरें तक लगाई जाती रहीं। मुसलिम समुदाय में व्याप्त पिछड़ेपन को दूर करने के लिए उसने सच्चर कमेटी की सिफारिशों को लागू कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। हाल ही में उसने अपने घोषणा पत्र में पार्टी ने मुसलिमों के लिए विशेष उपयोजना बनाने के अलावा उनके लिए समान अवसर आयोग गठित करने और बैंक कर्जों में से 15 फीसद कर्ज मुसलिमों को देने के लुभावने वायदे किए। गुरूवार की प्रेस कांफ्रेंस में करात ने माकपा शासित राज्यों में मुसिलमों के लिए किए गए विकास कार्यों के आंकड़ों का अंबार लगा दिया। लेकिन पार्टी के कुछ नेताओं का कहना है कि मुसलिम मतदाताओं पर न तो इन विकास कार्यों का असर हो रहा है और न चुनावी वायदों का। बड़ी तादाद में मुसलिमों को टिकट देना भी बहुत काम नहीं आता इसलिए चुनाव में ऐसे मुसलिम संगठनों का साथ लेना जरूरी हो गया है जिनका मुसलिमों पर अच्छा खास असर हो। मुसलिम वोटों की मृग मरीचिका उसे मुसलिम सांप्रदायिक ओर उग्रवादी मुसलिम संगठनों के साथ हाथ मिलाने के लिए मजबूर कर रही है।

-सतीश पेडणेकर
जनसत्ता(28 मार्च, 2009) से साभार

Tuesday, 24 March 2009

विडियो- जय हो कांग्रेस की या जनता की



जय हो कांग्रेस की या जनता की

Thursday, 5 March 2009

हमें हमारी जमीन दे दो, आसमां लेकर क्या करेंगे


केंद्रीय वित्त मंत्री का कार्यभार संभाल रहे श्री प्रणव मुखर्जी ने 16 फरवरी को संसद में संप्रग सरकार का अंतरिम बजट(2009-10) प्रस्‍तुत किया। संसद के दोनों सदनों में अंतरिम बजट पर हुई चर्चा में भाग लेते हुए भाजपा सांसदों ने अपने आक्रामक भाषणों में संप्रग सरकार के उपलब्धियों के दावे की पोल खोल दी। भाजपा सांसदों ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने अपने कार्यकाल में आम आदमी की सुध नहीं ली।

डॉ. सत्यनारायण जटिया द्वारा लोकसभा में दिए गए भाषण का संपादित अंश

माननीय सभापति जी, अन्तरिम बजट कुछ नहीं होता है, बजट ही होता है और उसे बजट की तरह प्रस्तुत किया गया है। बजट की जो विशेषता होनी चाहिए एक निरन्तरता की, कंटीन्युटी की, भविष्य की रचना की, चुनावी वर्ष होने के कारण उन सारी बातों को पूरा नहीं किया जा सका है। इसलिए इस बजट के बारे में बाकी लोगों की जो राय है, वह है, किन्तु जो लिखा गया है, उसमें 'प्रणब दा का बजट' लिखा गया है। मैं आपको बताता हूं कि राष्ट्रीय सहारा, अपने 17 फरवरी के अंक में लिखता है कि-
सप्रति सरकार की अब तक की उपलब्धियों का महिमामंडन कर एवं औद्योगिक नीतियों का अनछुआ रहना और चुनाव की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों के लिए आबंटन आदि, बस थोड़े शब्दों में यही प्रणब मुखर्जी के शब्दों का सार है। उद्योग जगत सहित आर्थिक विशेषज्ञ यदि इस पर निराशा प्रकट कर रहे हैं, तो इसमें अस्वाभाविक कुछ नहीं है। आखिर मंदी से छटपटाते देश के लिए एक-एक दिन कीमती है और हम नीतिगत घोषणाओं की जिम्मेदारी अगली सरकार पर लाद दें, इसका क्या तुक है।
महोदय, वास्तव में बजट को जानने वाले लोग कितने हैं। बजट का प्रभाव जिन लोगों पर होता है, उसके बारे में यदि हम चिन्ता करें, तो निश्चित रूप से इस देश का भला होगा। देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा बेरोजगारी से, गरीबी से और असहायता से जूझ रहा है और उसे पता नहीं है कि वह क्या करे। प्रो. अमर्त्यसेन की, 'सामाजिक न्याय की मांग' विषय पर एक पुस्तक मुझे अभी-अभी प्राप्त हुई है। उसमें पृष्ठ 46 पर लिखा है कि-
हमारे देश के वंचित वर्ग की घोर दरिद्रता के बारे में अपेक्षाकृत कम राजनैतिक चर्चा तथा उसकी मूक स्वीकार्यता पर मुझे आश्चर्य होता है। राजनैतिक हितों का अम्बार लगाकर भारतीय समाज के वंचित वर्ग की भीषण व सतत तंगहाली को मात्र तात्कालिक मुद्दों पर आसान बयानबाजी के जरिए दूर करने की कवायद से सरकार पर इस बात के लिए दबाव कम हो जाता है कि वह भारत में विद्यमान अतिघोर एवं सतत अन्याय को अत्यावश्यक तत्परता के साथ दूर करे।

महोदय, यह भाषण का हिस्सा है। यह देश का किस्सा है। क्या बदला जब मानवता की पीर वही, तकदीर वही। यह नहीं कह रहे हैं कि कुछ हुआ नहीं है, परन्तु जहां होना चाहिए, वहां उतना नहीं दिखाई दे रहा है, जितना कि दिखाई देना चाहिए। गांव, गरीब और किसान, कौन बनाता है हिन्दुस्तान, भारत का मजदूर किसान। अब गांव की दशा क्या है, गांव की दशा गांव जैसी है। असुविधाग्रस्त समुदाय जहां पर भी रह रहा है, जहां पहुंच नहीं है, जहां सड़क अभी भी नहीं पहुंची है, क्योंकि माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी के नेतृत्व में प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत 25 दिसम्बर, 2000 को गांवों की सड़कें बनाने का काम प्रारम्भ हुआ था और तब से सड़कें बननी शुरू हुईं। उन सड़कों का बनना धीमा हो गया है। उनकी क्वालिटी और गुणवत्त के बारे में भी कुछ कहा नहीं जा सकता। हम इस मामले में लक्ष्य से तो पीछे हैं ही। इस प्रकार से जब तक गांवों की हालत दयनीय रहने वाली है, तब तक हिन्दुस्तान समृध्द नहीं होगा।

क्योंकि, गांव में किसान रहता है, गांव में देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा रहता है, जो खेती पर निर्भर है और खेती के बारे में हम ऊपरी, सतही प्रबन्धा करते जाते हैं। कर्जा माफ, कर्जा क्यों हो गया, आगे न हो, नहीं तो ठीक है, अच्छी लोकप्रिय घोषणा है। यह हमारे देश की एक विडम्बना कहनी चाहिए कि हम जिन बातों को देश में हो ही जाना चाहिए था, उसके बाद में आश्वासन देकर चुनावों में जाते रहते हैं। सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, कमजोर वर्ग, गंदी बस्ती, इन्हों बातों को बार-बार दोहराते हैं। मैं उसका कोई राजनीतीकरण नहीं कर रहा हूं। गरीबी को हटाओ, जोर लगाओ, और हटाओ, भूल जाओ।

मेरे भाषण का केवल एक सार है कि समाज के गरीब आदमी को सामर्थ्य दे दें, भारत सामर्थ्यवान बन जायेगा, इसलिए सामर्थ्य को लाने का बार-बार तकाजा यहां हम करते रहते हैं, किन्तु यह तो सरकार का काम है, जो भी सरकार होगी, उसको करना है और उसके लिए जो-जो उपाय हमें प्रभावी रूप से करने चाहिए, उसे प्रभावी उपाय के रूप में यदि हम नहीं करेंगे तो इन बातों को दोहराते जाना पड़ेगा। ठीक है, गरीबी नहीं हटी, नहीं हटी, हटाने की कोशिश जारी है और आगे की क्या तैयारी है।

मैं कुछ बोलता नहीं, जो कुछ है, उसी को कहने की कोशिश करूंगा, क्योंकि, जिस तरह से यह कहा गया है, एक विश्लेषण और मेरे ध्‍यान में आ गया। सरकार ने अन्तरिम बजट में कुछ खास नहीं किया है, ये समीक्षा करने वाले लोग हैं, बजट के द्वारा सरकार अपनी छवि सुधारने की कोशिश कर रही है। स्पष्टत: सरकार ने अपने नकारात्मक पक्ष को छिपाने की कोशिश की है, जिससे यह साफ जाहिर होता है कि यह चुनावी बजट है। जिस ग्रोथ की सरकार बात कर रही है, उसका सूक्ष्म रूप से अध्‍ययन करने की जरूरत है। 8.6 फीसदी ग्रोथ की जो बात हो रही है, उसमें सरकार ने ऐसे आंकड़ों में उलझाकर पेश किया है, अपने अन्तरिम बजट में सरकार यह कह रही है कि उसने मुद्रास्फीति को कंट्रोल में रखा है, लेकिन यदि मुद्रास्फीति पिछले वर्षों र्की याद करें तो 10 फीसदी से ज्यादा थी, इसलिए यह कहना कि हमने मुद्रास्फीति को कंट्रोल कर लिया, गलत होगा। दरअसल मुद्रास्फीति की दर और बाकी की बातें तो अन्य-अन्य क्षेत्रों पर निर्भर करती हैं। दूसरी बात का विश्लेषण करते हुए उसने कहा कि सरकार इस अन्तरिम बजट में जिस ग्रोथ की बात कर रही है, उससे अमीरी गरीबी की खाई और गहरी हुई है। अब यह गरीब गरीब, अमीर अमीर, अमीर ज्यादा अमीर हो जायेगा तो गरीब नीचे जायेगा। जो गरीब है, उसको जो जरूरी जीवन के लिए आवश्यक वस्तुं हैं, उसको हम कैसे मुहैया करा रहे हैं? जो हमारा सिस्टम है, जिसको हम कहते हैं कि लोगों को राशन की दुकानों से राशन पहुंचाने के लिए वही एक सिस्टम है। परन्तु इस सारे सिस्टम में जो कुछ मुश्किलें हैं, उनको दूर करने के उपाय हमें करने होंगे। हम लगातार उस परम्परा को ही जारी रखना चाहते हैं , उसको बदलने की कोई कोशिश ही नहीं कर रहा है। उसने कहा कि ये जो पी.डी.एस. सिस्टम वाली दुकानें हैं, इनको हम बराबर रखेंगे। पी.डी.एस. सिस्टम के अलावा भी कुछ और हो सकता है क्या? किस तरह से हम उस गरीब को पी.डी.एस. सिस्टम पर आदमी क्यों जाता है, इसलिए कि उसके पास खरीद की क्षमता नहीं है, जिसकी खरीद की क्षमता नहीं है, उसका अर्थ है कि उसको रोजगार ठीक प्रकार का नहीं है। जब उसका रोजगार ठीक प्रकार का नहीं है तो इसका अर्थ यह है कि उसके परिवार का गुजारा बहुत मुश्किल से होता है।

मुझे यह पता है कि ये जो आंकड़े हैं, ये आंकड़े गरीब आदमी नहीं समझ रहा है, उसकी गिनती ज्यादा से ज्यादा हजार तक जाती है, लाख तक बहुत मुश्किल से समझते हैं, करोड़ और अरब-खरब, बाकी की बातें तो बहुत मुश्किल लगेंगी, इसलिए यह बजट केवल बजट है तो यदि उसको सार्थक, साकार नहीं करने के उपाय हम करेंगे तो निश्चित रूप से यह किताबों की बातें हैं। यदि सार्थक नहीं हुआ तो स्याही के दम पर।

ये लफ्जों की उलझन, ये गिनती के हौवे,
अगर समझ गये तो जरा हमें भी बता दीजिए,
सिरा ढूंढता हूं, जिंदगी का,
अगर पता हो तो मुझे भी बता दीजिए।


उसको और ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। गरीब आदमी को सौ दिन के रोजगार की गारंटी है, इसमें क्या गारंटी है? उस गारंटी रोजगार में जो शर्तों रखी गयी हैं, उन शतों के अंतर्गत तो वह काम ही नहीं कर पा रहा है, इसलिए ऐसी शर्तों र्का कोई मतलब ही नहीं है।

गांव के विकास के लिए जो जरूरी बातें है, उनको करने का उपाय तेजी से करना चाहिए। बहुत-बहुत बड़ी योजनाओं के बारे में आप बात कह रहे हैं, इतने हजार करोड़, उतने हजार करोड़, आप उन करोड़्स को गांव तक मोड़ दीजिए। गांव में ऐसा प्रबंध करिए कि उससे शिक्षा का प्रबंध हो जाए, उनको शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिल जाए। सर्व शिक्षा अभियान चलाया जरूर गया है, परंतु सर्व शिक्षा अभियान में जो खामियां हैं, उनको दूर करने के लिए हमें उपाय करने चाहिए। गरीब का बच्चा स्कूल में जाए, इसका प्रबंध करने के लिए, अगर उसके मां-बाप को रोजगार की गारंटी हो जाएगी, तो जरूर उसको इसका लाभ मिलेगा। किसान को खुशहाल करने के संबंध में मैं कहना चाहूंगा कि आज निश्चित रूप से खेत और उसका रकबा कम होता जा रहा है, क्योंकि खेत कोई ऐसी चीज नहीं है, जो हमेशा बढ़ जाएगी, परिवार के बढ़ जाने से खेत का बटवारा हो जाता है और रकबा कम हो जाता है। वह गुणवत्त की खेती कर सके और इतनी खेती कर सके, जिससे उसको अपने गुजारे लायक खर्च करने का मौका हो। खेती के लिए, खाद के लिए, बीज के लिए, उसे गुणवत्त के बीज मिलें और किसान का कर्ज माफ करने का अवसर फिर न आए, आप इस तरह से उपाय करें।

आप आज हजारों करोड़ रूपए के कर्ज माफ करने की बात कह रहे हैं, यदि पहले हम उस पैसे को उसकी खुशहाली में लगा देते, तो शायद यह कर्ज नहीं होता। इसे अब भी कर सकते हैं। किसान के बारे में सोचने की आवश्यकता है। जहां तक रोजगार और श्रम की बात है, निश्चित रूप से श्रम की स्थितियां हमारे देश में कमजोर होती चली जा रही हैं और रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं। मंदी का वातावरण है, ऐसा कहा जा रहा है। हमारा देश तो कभी पूंजीवादी देश नहीं रहा, हम तो कौशल के वैश्वीकरण के प्रमुख देश रहे हैं। आज पूंजी का वैश्वीकरण हो रहा है। हम स्किल ग्लोबलाइजेशन के माध्‍यम से, स्किल को ज्यादा प्रोत्साहन करके, अनुकूल परिस्थितियां पैदा करें। जो गरीब आदमी गांव के अंदर काम करता था, यदि फैक्ट्रियां उस काम को करना शुरू कर दें, तो उसके रोजगार के अवसर जाते रहेंगे, इसलिए उसको रोजगार के विकल्प के लिए प्रशिक्षण का कार्यक्रम होना चाहिए। यदि हम प्रशिक्षण देकर अन्य रोजगारों के बारे में उनको तैयार कर सकें, तो निश्चित रूप से यह सब के लिए ठीक होगा।

इफ्रास्ट्रक्चर के संबंध में आपने देखा होगा कि पिछले कुछ समय में सीमेंट और स्टील के दाम ज्यादा बढ़ गए थे। इस कारण इफ्रास्ट्रक्चर को खड़ा करने के लिए स्वर्णिम चतुर्भज योजना, उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम कोरीडोर की बात आयी। इन सारी बातों को लागू करने का काम हो सकता था। बिजली की हमारे यहां कमी है, यह बहुत बड़ी मुश्किल है। बिजली की कमी की योजनाओं को किस तरह से हम पूरा कर सकें, अगर बिजली की कमी रहेगी, तो हमारा देश आगे नहीं बढ़ सकता है, क्योंकि उस पर उद्योग, कृषि और बहुत सारी चीजें निर्भर रहती हैं।

पानी के संबंध में कहना चाहूंगा कि पानी को किस तरह से हम बचा सकते हैं, पानी को किस तरह से हम रोक सकते हैं? सड़कों को जोड़ने की बात चल रही है, प्रधानमंत्री सड़क योजना से गांव को जोड़ने के लिए, स्‍वर्णिम चतुर्भुज और बाकी की योजनाओं से शहर की सड़कों को जोड़ने के लिए, उसी प्रकार से यदि नदी के पानी को हम एकसाथ मिलाने का काम करें, तो निश्चित रूप से बाढ़ और सूखे के संकट से सारा देश बार-बार गरीब होता जाता है, वह संकट दूर हो जाएगा। मुझे उम्मीद है कि हम सारी बातों को करने में समर्थ होंगे। इसलिए हमारा सबसे बड़ा ध्‍यान गांव, गरीब और किसान की ओर जाना चाहिए, उस भूखे इंसान की ओर जाना चाहिए, जो रोजी-रोटी की तलाश कर रहा है। मुझे विश्वास है कि बाकी सब बातों से बात नहीं बनेगी, क्योंकि

बुलंद वादों की बस्तियां लेकर हम क्या करेंगे,
हमें हमारी जमीन दे दो, आसमां लेकर क्या करेंगे?

संप्रग शासन में आशा की किरण नहीं दिखी


केंद्रीय वित्त मंत्री का कार्यभार संभाल रहे श्री प्रणव मुखर्जी ने 16 फरवरी को संसद में संप्रग सरकार का अंतरिम बजट(2009-10) प्रस्‍तुत किया। संसद के दोनों सदनों में अंतरिम बजट पर हुई चर्चा में भाग लेते हुए भाजपा सांसदों ने अपने आक्रामक भाषणों में संप्रग सरकार के उपलब्धियों के दावे की पोल खोल दी। भाजपा सांसदों ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने अपने कार्यकाल में आम आदमी की सुध नहीं ली।

श्री अनंत कुमार द्वारा लोकसभा में अंग्रेजी में दिये गये भाषण का सारांश (हिन्दी)

वर्ष 2004 में जब उन्हें एनडीए से सशक्त अर्थव्यवस्था प्राप्त हुई, उस समय अर्थव्यवस्था की वृध्दिदर 8.52 प्रतिशत थी। सकल घरेलू उत्पाद में पिछले पांच वर्षों में अर्थात् 1998-2004 तक 40 प्रतिशत से अधिक की वृध्दि हुई थी।

वर्ष 2004 में जनता को 16 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से चावल मिल रहा था। आज यह मूल्य 36 रुपए प्रति किलोग्राम है। उस समय दाल 30 रुपए प्रति किलोग्राम बिक रही थी जो आज 52 रुपए प्रति किलोग्राम है। आज सरकार कह रही है कि महंगाई कर दर कम होकर 4 प्रतिशत तक आ गयी है। खाद्य पदार्थों के मूल्य के बारे में महंगाई की स्थिति क्या है? यहां महंगाई की दर अभी भी 11.7 प्रतिशत के आस-पास है। आम आदमी का क्या हो रहा है। आज देश में भारी कृषि संकट उत्पन्न हो गया है। पिछले 12 वर्षों में देश में 1,90,753 किसानों ने आत्महत्या की है। वर्ष 2004 के बाद वर्ष-प्रतिवर्ष 18,241; 17,131; 17,060 किसानों ने आत्महत्या की। इस सरकार ने पिछले वित्तीय वर्ष ऋण माफी पैकेज दिया लेकिन इससे कुछ नहीं बदला। हम केन्द्रीय सरकार से आग्रह कर रहे हैं कि कृषि ऋण पर ब्याज की दर को घटाकर 4 प्रतिशत तक कर दिया जाए। यह सिफारिश डादृ स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट में की गयी है। आज मंदी के समय में बढ़ती बेरोजगारी की स्थिति क्या है? मोटे तौर पर अनुमान के अनुसार पिछले तीन महीनों में पांच मिलियन रोजगार खत्म हो गए हैं और अभी दो करोड़ लोगों के बेरोजगार होने की संभावना बनी हुई है। अकेले कपड़ा क्षेत्र में सात लाख रोजगार समाप्त हो गए हैं। अंतरिम बजट में इसका क्या समाधान है? विगत में भारतीय अर्थव्यवस्था में अचानक उछाल आने लगा था। इसके तीन महत्वपूर्ण कारण थे-अवसंरचना में निवेश-प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना, स्वर्णिम चतुर्भुज और आवास, 70 लाख से अधिक आवासीय इकाइयों का निर्माण चल रहा था, संचार क्रांति और सर्व शिक्षा अभियान। यह उपयोगी निवेश था। इस व्यय से समाज के साथ-साथ उद्योग को भी अच्छा प्रतिफल प्राप्त हुआ। लेकिन पिछले पांच वर्षों में सरकार का व्यय 30 प्रतिशत बढ़ गया है जोकि अनुत्पादक व्यय है और राजस्व में 10 प्रतिशत की गिरावट आयी है। जहां तक एनआरईजीपी के लिए केन्द्रीय आवंटन का संबंध है प्रति जिला आवंटन में लगातार कमी आयी है। 2006-2007 के संशोधित अनुमान के अनुसार केन्द्रीय आवंटन 11,300 करोड़ रुपए का था जिसमें 200 जिलों को लिया जाना था और प्रति जिला आवंटन 56.5 करोड़ रुपए था। 2008-2009 के संशोधित अनुमान के अनुसार केन्द्रीय आवंटन 16,000 करोड़ रुपए था और प्रति जिला आवंटन 26.8 करोड़ रुपए था। 2006-2007 में ''एस.जी.एस.वाई.'' के लिए संशोधित अनुमान के अंतर्गत आवंटन 1200 करोड़ रुपए था तथा 31 दिसम्बर, 2006 की स्थिति के अनुसर अव्ययित शेष 558 करोड़ रुपए था। एस.जी.आर.वाई. के लिए 2006-2007 के दौरान संशोधिात प्राक्कलन का आवंटन 3000 करोड़ रुपए था और 31 दिसम्बर, 2006 की स्थिति के अनुसार अव्ययित शेष राशि 1352 करोड़ रुपए, आई.ए.वाई. के लिए 2006-2007 के दौरान आवंटन 2920 करोड़ रुपए था और अव्ययित शेष राशि 1334 करोड़ रुपए दर्शायी गयी है। एन.आर.जी.ई.ए. के लिए 11300 करोड़ रुपए आवंटित किए गए और अव्ययित शेष राशि 4479 करोड़ रुपए दर्शायी गयी। पी.एम.जी.एस.वाई. के लिए 2006-2007 का संशोधिात प्राक्कलन का आवंटन 5476 करोड़ रुपए था और अव्ययित शेष राशि 2556 करोड़ रुपए थी। इस प्रकार 23896 करोड़ रुपए के कुल आवंटन में से 10278 करोड़ रुपए का राशि अव्ययित रही। जहां तक स्वास्थ्य का संबंध है, 4 प्रतिशत का प्रावधान, जैसा कि उन्होंने अनुमान लगाया था, करने की बजाय सरकार ने जी.डीपी. का 0.26 प्रतिशत का प्रावधान किया है। कितनी निराशाजनक स्थिति है। यही स्थिति शिक्षा के बारे में भी है। यहां भी उन्होंने कुल जी.डी.पी. का दो प्रतिशत से अधिक राशि का प्रावधान नहीं किया है। वित्त मंत्रालय के प्रभारी माननीय मंत्री जी ने अपने अंतरिम बजट में मंदी और मुद्रास्फीति के कारण वित्तीय घाटे का अनुमान 6 प्रतिशत लगाया। कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री की आर्थिक परिषद ने वेब पर वित्तीय घाटा 8 प्रतिशत बताया। यदि केन्द्रीय सरकार का वित्तीय घाटा 8 प्रतिशत होगा तो राज्य सरकारों का वित्तीय घाटा 3.5 से 4 प्रतिशत तक होगा। इस प्रकार वित्तीय घाटा बहुत बड़ी समस्या बनने जा रहा है। जब संयुक्त मोर्चा सरकार ने 1998 में हमें सत्ता सौंपी, तो हमारा विदेशी मुद्रा भंडार केवल 30 बिलियन यू.एस. डालर था। हमारी मेहनत के कारण यह 280 बिलियन यू.एस. डालर तक पहुंच गया। इस समय अप्रवासी भारतीयों द्वारा भेजी जा रही धनराशि में कमी आ गई है। व्यापार घाटा भी बढ़ रहा है। इसके कारण हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में प्रतिदिन 1 बिलियन डालर की कमी आ रही है। यह हालात यूपीए सरकार के कार्यकाल में उत्पन्न हुए हैं।

जहां तक कर राजस्व की बात है। माननीय मंत्री ने कहा है कि इस वर्ष कर राजस्व में 60,000 करोड़ रुपये की कमी होगी। किन्तु मुझे भय है कि यह कमी 1,00,000 करोड़ रुपये की होगी। माननीय मंत्री ने कहा है कि अगले वर्ष का वित्तीय घाटा 5.5 प्रतिशत होगा। मुझे नहीं पता कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा। इस समय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7 प्रतिशत है और अगले वर्ष यह दर 5 प्रतिशत तक आ जाएगी। ऐसे में वित्तीय घाटा 5.5 प्रतिशत नहीं रहेगा। इस प्रकार हमारा देश बहुत बड़े संकट की ओर बढ़ रहा है।

सत्यम कारपोरेट घोटाला एक बहुत ही गम्भीर मुद्दा बन गया है। इसके बारे में कई बातें सामने आई हैं। आंधा्र प्रदेश सरकार ने मैसर्स मेटास इन्फ्रास्ट्रक्चर को 121 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत वाले एक कार्य का आबंटन बिना कोई निविदा आमंत्रित किए केवल नामांकन आधार पर ही कर दिया। इसी प्रकार विशेषज्ञों की राय के विपरीत कुडप्पा में निर्माण कार्य को नामांकन आधार पर ही दे दिया। इस कंपनी ने गंडीकोटा में कार्य किया है। वहां इस परियोजना के समापन से पूर्व ही 30 कि.मी. लंबी सड़क डूब जाएगी। इसलिए मैं सभा के माननीय नेता से आग्रह करूंगा कि वे वाद-विवाद का उत्तर देते समय देश को आश्वासन दें कि इस पूरे घोटाले की जांच के लिए वे संयुक्त संसदीय समिति की नियुक्ति करेंगे।

वर्तमान संकट को हल करने के लिए सरकार ने उच्च ब्याज दरों के रास्ता को अपनाया है। जब हमारा दल सत्ता में था, तो बाजार में ऋण 6 प्रतिशत पर उपलब्धा था। इस सरकार ने ब्याज दरों को बहुत बढ़ा दिया है। मुझे लगता है कि यूपीए सरकार के आर्थिक कुशासन में भारत के लिए आशा की कोई किरण मौजूद नहीं है।

देश की मजबूत अर्थव्यवस्था बनी मजबूर अर्थव्यवस्था


केंद्रीय वित्त मंत्री का कार्यभार संभाल रहे श्री प्रणव मुखर्जी ने 16 फरवरी को संसद में संप्रग सरकार का अंतरिम बजट(2009-10) प्रस्‍तुत किया। संसद के दोनों सदनों में अंतरिम बजट पर हुई चर्चा में भाग लेते हुए भाजपा सांसदों ने अपने आक्रामक भाषणों में संप्रग सरकार के उपलब्धियों के दावे की पोल खोल दी। भाजपा सांसदों ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने अपने कार्यकाल में आम आदमी की सुध नहीं ली।

श्री प्रकाश जावडेकर द्वारा राज्‍यसभा में दिये गये भाषण का संपादित अंश

उपसभापति महोदय, मैं तीन-चार बातों की ओर वित्त मंत्री का ध्‍यान आकर्षित करना चाहूंगा। यूपीए की सरकार आम आदमी के नाम पर बनी है, लेकिन वास्तविकता यह है कि उसके साथ सबसे बड़ा विश्वासघात हुआ है।
अभी वित्त मंत्री बता रहे थे कि महंगाई का सूचकांक कम हो रहा है, लेकिन वास्तविकता क्या है? जहां कमॉडिटी प्राइसिज कम होने के कारण, थोक मूल्य सूचकांक (W.P.I.) कम हो रहा है, वहीं प्राइस इंडेक्स बढ़ रहा है। मैं एक ही आंकड़ा बताऊंगा । जो हमारा फूड प्राइस इंडेक्स है, अगस्त 2008 में 6 प्रतिशत था, वह अभी फरवरी में 13.25 प्रतिशत बढ़ा है। लोगों को रोजमर्रा की जिन चीजों की आवश्यकता होती है, हमने उसका एक चार्ट बनाया है जैसे गेहूं, चावल, शक्कर, चाय, तेल, मूंग दाल, आलू, प्याज, टमाटर, मिट्टी का तेल, रसोई गैस इत्यादि। अगर हम 2004 के मूल्यों की तुलना आज के मूल्यों से करते हैं, जब हमने इनको सत्ता सौंपी थी, तो आज कम से कम इन मूल्यों में डेढ़ गुना, दो गुना और कहीं-कहीं तीन गुना तक वृध्दि हुई है, इस तरह दामों में इतनी अधिाक बढ़ोतरी हुई है। यह मैं फरवरी 2009 की बात कर रहा हूं। असली बात यह है कि जो महंगाई लोगों को खा रही है, वह कम नहीं हुई है। मेरा यह मानना है कि महंगाई से जूझती आम जनता के साथ इस सरकार ने विश्वासघात किया है और उनको कोई राहत नहीं दी है।

सर, बड़ा मुद्दा यह है कि नौकरियां जा रही हैं। इस सरकार ने प्रोमिस किया था कि एक करोड़ नौजवानों को रोजगार देंगे। लेकिन, 5 साल के बाद जब यह जा रहे हैं, तब इन्होंने डेढ़ करोड़ नौजवानों को बेरोजगार करने का पूरा नक्शा तैयार किया है। जो लोग बेरोजगार हो रहे हैं, उनमें केवल एक क्षेत्र, एक्सपोर्ट में, एक करोड़ लोग बेरोजगार हो रहे हैं। टेक्सटाइल, डायमंड, आई.टी. तथा अन्य क्षेत्र जो एक्सपोर्ट से जुड़े क्षेत्र हैं और जो नॉन-एक्सपोर्ट सेक्टर्स हैं, जैसे - ऑटो इंडस्ट्री या कंस्ट्रक्शन या अन्य काम हैं, उनमें भी बड़े पैमाने पर मजदूरों से लेकर अन्य प्रकार के काम करने वाले बहुत-से लोग बेरोजगार हो रहे हैं।

उपसभापति महोदय, इन बेरोजगार लोगों को कोई संरक्षण नहीं है। आज वित्त मंत्री लोगों को सलाह दे रहे हैं कि हो सके तो आप वेतन कम करो, लेकिन नौकरियां मत छांटो। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि क्या वह केवल सलाह ही देंगे या खुद कुछ कर के दिखाएंगे? आज जिनकी नौकरियां जा रहीं हैं, वे लाखों युवक आज बड़ी परेशानी में हैं। एक सप्ताह पहले मुंबई में एक इंजीनियर का बेटा और उसकी मां ने नौकरी जाने के कारण आत्महत्या की। इसी तरह से डायमंड के मजदूर भी आत्महत्या कर रहे हैं। आंधा्र प्रदेश में वीवर्स लोग आत्महत्या कर रहे हैं। इन सब लोगों का रोजगार यूपीए सरकार ने छीना है, इसलिए कि उसने समय पर मंदी का सामना नहीं किया। मैं मानता हूं कि 'नरेगा' में भी योजना है कि अगर 15 दिनों में जॉब नहीं मिले तो उसको इकोनॉमिक डोल दिया जाता है, लेकिन ये जो नौजवान बेरोजगार हो रहे हैं, उनको यह सरकार कौन-सा डोल दे रही है? ऐसी कोई योजना नहीं है। कहते हैं कि ESI में एक प्रावधान है, जिसके तहत उनको छ: महीने के लिए आधी तनख्वाह दी जाएगी, लेकिन एक भी बेरोजगार हुए नौजवान को ऐसा कोई भत्ता नहीं मिला है। यह मैं आपके माध्‍यम से इनका ध्‍यान दिलाना चाहता हूं और इसीलिए मैं यह मांग भी करना चाहता हूं कि जिन लोगों की नौकरियां जा रही हैं, उनको एक साल तक आधी तनख्वाह मिले, ऐसा सरवाइवल भत्ता उनको मिलना चाहिए। अगर यह उनको नहीं मिलता है तो यह नौजवानों के साथ विश्वासघात होगा। पहला विश्वासघात आम इंसान के साथ, अब दूसरा विश्वासघात नौजवानों के साथ तथा तीसरा विश्वासघात इस सरकार ने जवानों के साथ किया है। अगर आज सेना के सेवानिवृत अधिाकारी भी अपने मैडल लौटाने पर तुले हैं, तो इसका मतलब यह है कि इस सरकार ने उनके अभिमान को और आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाई है। उसके लिए छोटा वित्तीय प्रबंधन चाहिए। लेकिन उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंची है और उसकी भरपाई आज तक नहीं हुई है। इस सरकार ने बहुत ढिंढोरा पीटा कि हमने infrastructure में पहल की है। लेकिन, सर, मैं बताना चाहता हूं कि इसमें उन्होंने टारगेट से आधी भी सफलता नहीं पाई है। वह चाहे रूरल रोड्स हों या इरिगेशन हो या पावर जेनरेशन हो या Golden Quadrilateral का काम पूरा करने की बात हो या North-South Corridor की बात हो अथवा East-West Corridor की बात, infrastructure के हर क्षेत्र में यह सरकार आधा टारगेट भी पूरा नहीं कर पाई है। अभी नए एग्जाम सिटम में 50 फीसदी से पास नहीं किया जाता और इस सरकार को 50 फीसदी भी सफलता नहीं मिली है, इसलिए यह सरकार पूरी तरह से फेल हुई है।

सर, मैं केवल 2 चीजों का उल्लेख करूंगा कि 4-laneing करना था, उसमें 30 प्रतिशत मुकाम भी हासिल नहीं हुआ है। National Highways connecting importan cities का जो काम था, वह काम भी अधर में लटक गया, पोर्ट्स का भी काम अधर में लटक गया। इसलिए इंफ्रास्ट्रक्चर में, और खासकर बिजली में, बहुत बड़ा घोटाला है।

एक विद्वान ने बहुत अच्छी तरह से कहा था कि --"Between 2003-08, we did enjoy very good economic growth. But it was not linked all that much to policies during the UPA regime; it was much more due to reforms undertaken during the earlier periods and an exceptional boom in the global economy. Our private sector responded very well to this economic climate."
यह उन्होंने कहा। इस प्रकार बात यह है कि इस सरकार के पास अब संसाधनों की भी कमी है और इसलिए मैं एक मांग करना चाहता हूं। महोदय, आपने पढ़ा होगा कि स्विट्जरलैंड में जो बैंक होते हैं, उसमें सारी दुनिया का सिक्रेट फंड या सिक्रेट धन लोग रखते हैं। उनके सीक्रेट अकाउंट्स हैं, जिनकी किसी को जानकारी नहीं मिलती, लेकिन स्विट्जरलैंड में अब कानून बदला है।

अब जो देश उससे मांग करेगा, वह उनको सारी जानकारी कि किस सिटिजन का कितना पैसा जमा है, यह बताने के लिए तैयार है। हमारे यहां से कुछ भारतीय लोगों ने 14 लाख करोड़ से भी ज्यादा रकम ऐसी अपनी दूसरे नंबर की कमाई से वहां छुपाई है। आज जब वह मौका आया है, अवसर आया है कि वह संपत्ति भारत को मिल जाए, तो इसके लिए भारत को स्विटजरलैंड के पास अपनी एप्लीकेशन देनी चाहिए कि वह इसकी जानकारी हमें दे दे। अमरीका ने किया है। जर्मनी ने किया है। बाकी देश भी उसका फॉलो-अप कर रहे हैं, लेकिन भारत क्यों चुप है? वित्त मंत्री जी, अपने देश की संपत्ति जो लूट कर अपने लोगों ने बाहर ले जाकर रखी है, उसको वापस लाने का यही एक सुनहरा मौका है और वह वापस लाने के लिए जो आपको प्रयास करना चाहिए, वह आपने नहीं किया है।

उपसभापति महोदय, अंत में मैं एक ही बात कहूंगा कि मैं दूसरे सदन में वित मंत्री जी का भाषण सुन रहा था, जब बजट पर उन्होंने अपना जवाब दिया था। उन्होंने एनडीए और यूपीए सरकार की तुलना की और एनडीए और यूपीए की तुलना करते समय उन्होंने बहुत सारे आंकड़े दिए। मैं केवल वास्तविकता के आधार पर तुलना करना चाहूंगा। हमने, एनडीए ने एक मजबूत अर्थ-व्यवस्था यूपीए को सौंपी थी, आज उन्होंने उसको एक मजबूर अर्थ-व्यवस्था में परिवर्तित किया है। हमने एक करोड़ रोजगार का सृजन किया था, इस सरकार ने डेढ़ करोड़ युवाओं को बेरोजगार करके रखा है। हम हर रोज 11 किलोमीटर की सड़कें बनाते थे, इनकी औसतन एक किलोमीटर की भी नई सड़क नहीं बन रही है। हमने सस्ते दाम दिए थे, महंगाई को रोका था, इन्होंने महंगाई को आसमान तक छूने दिया। हमने कर्जा सस्ता किया था, इन्होंने कर्जा महंगा किया, जिसके कारण इंडस्ट्रीज को आज यह दिन देखने पड़ रहे हैं। हमने किसान का कल्याण किया, अब इन्होंने किसानों को आत्महत्या पर मजबूर किया, जो आज हजारों किसान मर रहे हैं। 35 किलो राशन हम गरीब को दे रहे थे, लेकिन यह 15 किलो राशन भी मुहैया नहीं करा रहे हैं। हमने कनेक्टिविटि की रेवॉल्युशन लाई थी, इन्होंने स्कैम की श्रृंखला चलाई है। कनेक्टिविटि के क्षेत्र में भी स्कैम लाए हैं। हमने परमाणु बम बनाकर दिखाया था, लेकिन इन्होंने परमाणु समझौता करके पोखरन-3 होने की संभावना को खारिज कर दिया है। हमने डब्लूटीओ में किसानों के हितों की रक्षा की थी, इन्होंने यूएस के साथ नॉलेज इनीसेटिव के नाम पर क्या छुपा कर लाए हैं, यह देश से छुपा कर रखा है, जो बताते नहीं। सर, सूखे और बाढ़ को रोकने के लिए हमने नदी जोड़ योजना बनाई थी, आपने वह बंद कर दी। हमने फार्म इनकम गारंटी योजना किसानों के लिए बनाई थी।उपसभापति महोदय, हमने छोटे और सीमांत किसानों को सुरक्षित करने के लिए Farm Income Guarantee Insurance Scheme शुरू की थी और पहले बजट में इन्होंने उसका appreciation किया था, लेकिन वह योजना भी इन्होंने बंद कर दी। हमने एक निर्णायक सरकार दी थी और यह एक लचर सरकार छोड़कर जा रहे हैं। क्या यह चित्र देश के सामने आएगा? अगर आप बजट में एनडीए और यूपीए की तुलना करना चाहते हैं तो हम भी उसके लिए तैयार हैं, लेकिन आप सुनाएंगे और लोग सुनेंगे, ऐसा नहीं होगा। हम भी सुनाएंगे, आपको सुनना होगा। इतना कहकर मैं अपनी बात समाप्त करता हूं।

संप्रग सरकार ने अपनी विफलताओं को छिपाने के लिए वैश्विक आर्थिक मंदी का सहारा लिया


केंद्रीय वित्त मंत्री का कार्यभार संभाल रहे श्री प्रणव मुखर्जी ने 16 फरवरी को संसद में संप्रग सरकार का अंतरिम बजट(2009-10) प्रस्‍तुत किया। संसद के दोनों सदनों में अंतरिम बजट पर हुई चर्चा में भाग लेते हुए भाजपा सांसदों ने अपने आक्रामक भाषणों में संप्रग सरकार के उपलब्धियों के दावे की पोल खोल दी। भाजपा सांसदों ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने अपने कार्यकाल में आम आदमी की सुध नहीं ली।

श्री अरूण शौरी द्वारा राज्‍य सभा में अंग्रेजी में दिये गये भाषण का सारांश(हिन्दी)

इस सरकार ने अपने सभी बजटों में बार-बार जिन वायदों को दोहराया है, उन्हें बिल्कुल ही पूरा नहीं किया है। इस पूरी अवधि और विशेषकर गत छ: महीनों के दौरान इस बात से पूरी तरह इनकार करते रहने कि देश मंदी की ओर बढ़ रहा है, के बाद अब यह अपने कुप्रबंधन के परिणामों को छिपाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मंदी का सहारा ले रही है। श्री मुखर्जी अपने भाषण के पृष्ठ 5, पैरा 20 में कहते हैं, 'असाधारण परिस्थितियों में असाधारण उपाय करने होते हैं। ऐसे उपाय करने का समय आ गया है।' और जैसा कि प्रत्येक व्यक्ति इस तथ्य को जानता है कि अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देने के लिए कोई भी उपाय नहीं किया गया है। एक कहानी यह गढ़ी गई कि चूंकि यह अंतरिम बजट है, इसलिए सरकार परम्परा का पालन कर रही है। बजट नहीं प्रस्तुत करने का कारण यह रहा है कि चार वर्षों के दौरान आर्थिक कुप्रबंधनों के परिणामस्वरूप अब स्थिति इतनी संकटपूर्ण हो चुकी है कि काफी बड़े उपाय किए जाने जरूरी हो गये हैं इस सरकार में ऐसे उपाय करने का साहस नहीं है।

श्री चिदम्बरम ने पिछले वर्ष के बजट भाषण में कहा था, 'इस तथ्य को व्यापक तौर पर स्वीकारोक्ति मिली है कि देश की वित्तीय स्थिति में काफी सुधार हुआ है' और इस क्रम में उन्होंने गलत आंकड़े प्रस्तुत किए। विभिन्न बजट दस्तावेजों में पूरी तरह से भ्रामक आंकड़े दिये गये हैं।

वर्ष, 2005, 2006, 2007 और 2008 के बजटों में प्रधानमंत्री कई बार कह चुके हैं, 'आवंटन महत्वपूर्ण नहीं है। आवंटन ही पर्याप्त नहीं होते। लोग परिणाम देखते हैं।' प्रधानमंत्री ने आगे कहा था, सरकार के सामने सबसे बड़ा कार्य यही है और उसका जोर उसके द्वारा की गई घोषणाओं के अनुरूप परिणाम प्राप्त करने पर रहेगा।' हम लोग वस्तुत: यह देख सकते हैं कि प्रत्येक मद में प्राप्त किए गए परिणामों को पूरी तरह से छिपाया गया है और आवंटनों के आधार पर ही केवल दावे किये जा रहे हैं।

प्रधानमंत्री ने बड़े जोर-शोर से यह घोषणा की थी कि सरकार मुम्बई को वित्तीय केन्द्र बनाने के लिए 1000 करोड़ रूपये का एक विशेष पैकेज प्रदान करेगी। बाद में यह सामने आया कि इन 1000 करोड़ रूपयों में से केवल 16।16 करोड़ रूपये ही प्रदान किए गए। 26 जुलाई, 2005 को मुम्बई के बाढ़ में घिर जाने के बाद प्रधानमंत्री और 'सप्रंग' की अध्‍यक्ष ने मीठी नदी का पुनरूध्दार करने के लिए 1,260 करोड़ रूपये के एक विशेष पैकेज की घोषणा की थी। कल तक इस वायदे के अनुरूप एक भी पैसा नहीं दिया गया था। उसी तरह से एक बड़ी योजना की घोषणा की गई थी कि धारावी का पूरी तरह से पुनर्निर्माण किया जायेगा। धारावी के पुनर्निर्माण की दिशा में कल तक एक भी शैड का निर्माण नहीं किया जा सका था। महाराष्ट्र को यह भरोसा दिलाया गया था कि केन्द्र मुम्बई से बार-बार अनुरोध मिलने के बाद यह कह दिया गया कि केन्द्र इस बारे में कुछ नहीं करेगा और मुम्बई को निजी भागीदारों की सहायता से ही इस कार्य को पूरा करना होगा। इसके परिणामस्वरूप इसके पहले चरण में ही कार्य धीमा पड़ गया है। दूसरे चरण के लिए बोलियां आमंत्रित की गई। अंतिम तिथि को तीन बार बढ़ाना पड़ा है और एक भी बोलीदाता आगे नहीं आया है जबकि शहरी अवसंरचना के मामले में सरकार द्वारा बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं।

राष्ट्रीय राजमार्ग कार्यक्रम के संबंध में परियोजना पूरी होने की दर जोकि वर्ष 2005-06 में 70 प्रतिशत थी, वर्ष 2007-08 में घटकर 17 प्रतिशत रह गई है। लेकिन इस मामले में चमत्कार यह देखने को मिल रहा है जैसा कि श्री मुखर्जी के बजट दस्तावेजों से स्पष्ट है कि भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने आवंटित धनराशि को पूरी तरह से खर्च कर दिया गया है। लेकिन, परियोजनाएं पूरी नहीं की जा रही हैं। स्थिति यह है।

श्री मुखर्जी को याद होगा जब यह सरकार बनी थी उस समय उन लोगों ने एक निर्णय की घोषणा की थी कि भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के अध्‍यक्ष का कार्यकाल न्यूनतम दो वर्षों का रहेगा। लेकिन, गत दो वर्षों के दौरान पांच अध्‍यक्ष बदले जा चुके हैं। उसी तरह से पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए 'राजग' सरकार ने यह निर्णय लिया था कि कार्यक्रम तो सरकार द्वारा तय किए जाएंगे लेकिन ठेके प्राधिकरण द्वारा दिये जाएंगे। लेकिन उस निर्णय को बदल दिया गया तथा यह कहा गया, 'प्राधिकरण द्वारा ठेके नहीं दिये जाएंगे, बल्कि ठेके सरकार द्वारा ही दिये जायेंगे।' मुझे पूरा विश्वास है कि इसके पीछे कुछ अच्छे कारण रहे होंगे। लेकिन इसके परिणामस्वरूप प्राधिकरण की 60 परियोजनाओं के लिए बोलियां आमंत्रित की गई थी। इन परियोजनाओं में से 43 परियोजनाओं के लिए एक भी बोलीदाता आगे नहीं आया। और अन्य 17 मामलों में से 6 मामलों में केवल एक-एक ही बोलीदाता आगे आया है। अन्य मामलों में, चिंताजनक स्थिति यह है कि बोलीदाताओं ने मूल रूप से तय किए गए अनुदानों की तुलना में 35 प्रतिशत तक अधिक अनुदान दिये जाने की मांग की है।

राजीव गांधी पेयजल मिशन के मामले में वर्ष 2008 के 'सी।ए.जी.' (संख्या 12) में कहा गया है, 'सभी परियोजनाएं ऐसे स्थानों पर लगायी गयी हैं जो संपोषित नहीं हैं। पानी की गुणवत्त की जांच करने हेतु प्रयोगशालाएं स्थापित नहीं की गई हैं जोकि मिशन के अधीन किया जाना अनिवार्य हैं। जल आपूर्ति से जनस्वास्थ्य को खतरा हो सकता है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जोकि एक लैगशिप योजना है, के बारे में 'सीएजी' निष्पादन अंकेक्षण प्रतिवेदन (संख्या 32) मे कहा गया है, 'इस योजना के अधीन पंजीकृत 3.81 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से केवल 22 लाख परिवारों जोकि महज छ: प्रतिशत है, को अनिवार्य और कानूनी रूप से 100 दिनों का रोजगार मिल पाया है। योजना के संबंध में और भी बड़ी त्रुटियां दर्शायी गई हैं।

जब कभी किसी मामले मे कोई कमी, रूकावट और चूक होती है तो केन्द्र यह कहना शुरू कर देता है कि कार्यान्वयन राज्य का विषय है और जब किसी योजना का श्रेय लेना होता है तो केन्द्र स्वयं ही सारा श्रेय ले जाता है। इस संबंध में नियंत्रक, महालेखा परीक्षक को यह बताने के लिए बाध्‍य होना पड़ा कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना एक केन्द्रीय विधान है और इस अधिनियम के समन्वय, निगरानी, कार्यान्वयन और प्रशासन की संपूर्ण जिम्मेदारी अंतत: मंत्रालय पर है जो कि इस अधिनियिम के लिए नोडल एजेंसी है।'

'यूएसओ' निधि का सृजन अप्रैल, 2002 में किया गया था यह व्ययगत न होने वाली निधि है। पिछले वर्ष तक इस निधि में 20 हजार करोड़ रूपए थे और खर्च सिर्फ 63 हजार करोड़ रूपए है। इसका मतलब है लगभग 14 हजार करोड़ रूपए इकट्ठे हुए थे। परंतु यह पता चला है कि सरकार के खातों को इस तरह से व्यवस्थित किया गया था कि 14 हजार करोड़ रूपए की शेष राशि, जो कि खर्च न की गई है, इसको शून्य दर्शाया गया था।

दिशा निर्देश जारी किए गए थे। ट्राई ने लिखा है कि सरकार ने न्यायालय में एक झूठा शपथ पत्र दिया है कि उन्होंने ट्राई की सिफारिशों को माना है। ऐसी स्थिति है। अत: कृपया इसकी जांच की जाए। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कमियों की वजह से बदलाव करना पड़ा और संशोधन किया गया।

कार्यकारी समूह और समितियों ने उर्वरक और पेट्रोलियम राज सहायता के प्रश्न पर गौर किया और हाल ही में डा. सी. रंगराजन समिति द्वारा किया जा रहा है। उर्वरक और पेट्रोलियम राजसहायता के बारे में कुछ अधिाक नहीं किया गया। कार्यान्वयन के निर्णय पर भी कुछ नहीं किया गया। 1991 में ब्रेक डॉन हुआ और उसका एक कारण 1986 से 1991 तक का राजकोषीय कुप्रबंधन था। वर्ष 2003 में एफआरबीएम अधिनियम पारित हुआ था और इसमें कहा गया था कि देश के लिए यह आवश्यक है कि सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में सकल राजकोषीय घाटे को 2002 में 6.2 प्रतिशत तथा 2008 में 3 प्रतिशत तक नीचे जाया जाना चाहिए। दूसरी बात यह है कि राजकोषीय घाटा 31 मार्च, 2008 तक समाप्त हो जाना चाहिए और वास्तव में एक अच्छा अधिशेष राजस्व तैयार होना चाहिए।

वित्तीय सावधानी और देश के कार्यकलापों के प्रभावी प्रबंधन के लिए यह आवश्यक है। घाटा काफी अधिक होगा और सकल घरेलू उत्पाद में वृध्दि कम होगी जिसका आपने समानता में अनुमान लगाया है। संप्रग सरकार ने स्वयं वायदा किया है कि 2009 तक राजकोषीय घाटा समाप्त हो जाएगा। यह आवंटन सामाजिक और वास्तविक अवसंरचना के अधिक संसाधनों के लिए है। दूसरी बात घाटे के बारे में है। हर कोई जानता है कि वेतन आयोग की सिफारिशें आयी है। रेल बजट में पांच हजार करोड़ रूपए प्रदान किए गए हैं। परंतु वास्तव में यह 13 हजार करोड़ रूपए हैं। केंद्रीय बजट में सरकार ने शून्य दिया है, ऋण से छूट लेने वालों की संख्या शून्य है और सभी ऊर्वरक पेट्रोलियम राजसहायता बजट में नदारद हैं। तीसरी बात कुप्रबंधन के बारे में है।

परियोजनाओं के शीघ्र कार्यान्वयन के लिए कुछ भी नहीं किया गया है। जब तक उनको राहत प्रदान नहीं की जाएगी तो आप देखेंगे कि नौकरी खोने वाले और अन्य लोगों की स्थिति काफी दयनीय हो जाएगी। बाहरी वाणिज्यिक ऋण उपलब्ध नहीं है। बैंकों में पहले ही भारी कमी है। इससे छोटे और लघु उपक्रमों को नुकसान होगा। 2008-09 में ऊर्वरक राजसहायता 1,02,000 करोड़ रूपए थी। परंतु वास्तव में इसे 75,847 करोड़ रूपए दर्शाया है। सरकार का कोई भी कार्यक्रम तैयार नहीं हुआ है। श्री मुखर्जी ने अपने संशोधित आंकड़ों में कुल राजकोषीय घाटे की तुलना बजट अनुमानों से की गयी है। राजस्व प्राप्तियों में यह 93 प्रतिशत है और पूंजी प्राप्ति 229 प्रतिशत है।

गैर योजना खर्च 22 प्रतिशत से अधिक है। राजकोषीय घाटा 438 प्रतिशत ज्यादा है। राजकोष 245 प्रतिशत और बाजार ऋण 262 प्रतिशत तथा अल्पावधि ऋण 463 प्रतिशत अधिक है। इन बातों में कोई संबंध नहीं है। राजसहायता 182 प्रतिशत अधिक है। इस बारे में सी।ए.जी. का प्रतिवेदन काफी ज्ञानप्रद है। मेरी अंतिम बात यह है कि राजकोषीय कार्यों के कुप्रबंधन का एक लक्षण सामान्य आर्थिक कुप्रबंधन है। विदेशी वित्तीय निवेश के कारण एक गुब्बारा सा बनाया जा रहा था। वास्तव में यह पैसा कहां से आ रहा था? उस समय विभिन्न विश्लेषकों ने यह उल्लेख किया था कि उभरते बाजार के कारण भारत को जाग जाना चाहिए। यहां पर 83 प्रतिशत विदेशी संस्थागत निवेशक थे न कि प्रत्यक्ष निवेशक। स्टॉक मार्केट 10 हजार से 20 हजार बिंदु तक जा रहा है। एक अमरीकी निवेशक, एक आतंकवादी या मारिशस से कोई भी व्यक्ति पैसा ला सकता है और शत प्रतिशत लाभ प्राप्त कर सकता है और यह लाभ ले जा सकता है। गुब्बारा फूटेगा। हर कोई यह कह रहा था कि उचित प्रबंधन के लिए यह एक अच्छा समय है। परंतु कुछ भी नहीं किया गया। योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए कोई त्वरित प्रक्रिया नहीं अपनायी गयी।

हम सभी ने चेतावनी दी थी भारत में यह सूनामी आएगी। परंतु हमारे प्रधानमंत्री ने कहा, 'नहीं', 'नहीं', हमारे मूलभूत सिध्दांत मजबूत हैं।' मजबूत मूलभूत सिध्दांत होने के बावजूद, विश्व की अर्थव्यवस्था मंदी की शिकार हुई। तब, उन्होंने कहा, हमारा उससे कोई संबंध नहीं है। हमारे सकल घरेलू उत्पाद का 20 प्रतिशत निर्यात से संबंधित है। हमारी भेजी गई रकम 45 मिलियन डॉलर है। क्या मंदी का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। तीसरी बात पूरी तरह पद त्याग के संबंध में है। जब मंदी आरंभ हुई तो पूरी तरह अस्पष्ट कदम उठाये गये। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने कहा था कि धनराशि गुमनाम ढंग से नहीं आनी चाहिए। इस दबाव के अधीन 'पार्टीसिपेटरी नोट्स' की आवक पर रोक लगा दी गई। अक्टूबर, नवम्बर में कोई भी मूर्ख व्यक्ति भारत में धन नहीं ला रहा था, परंतु पुन: 'पार्टीस्पेटरी नोट्स' की अनुमति दे दी गई। कोई कार्यवाही नहीं की गई। 'नेकड शॉर्ट सैलिंग' जारी रखने की अनुमति दे दी गई। यह सब कैसे घटित हुआ इस संबंध में जांच की जानी चाहिए। उस समय जब महंगाई बढ़नी शुरू हुई तो आपने कोई कार्यवाही नहीं की। यह स्पष्ट नहीं था कि क्या भारत गेहूं का आयात करेगा या नहीं करेगा। इससे अटकलों का बाजार गर्म हुआ। धीमी प्रगति का वित्तीय मंदी से कोई संबंध नहीं था। कपड़ा क्षेत्र में समाप्त हुई 25 लाख नौकरियों के संबंध में कुछ नहीं किया गया। आप अपने पीछे धीमे विकास की विरासत छोड़ कर जा रहे हैं। 'सरकार' शब्द पर विश्वास नहीं किया जाता है। निविदा के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है। ग्यारहवीं योजना के अंत में विद्युत की स्थिति खराब होने जा रही है। राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण कार्यक्रम के अंतर्गत, स्थिति बहुत खराब है। 'सभी के लिए विद्युत' के स्थान पर 'विद्युत तक पहुंच' शब्दों को ले लिया गया है। 7.8 करोड़ के बजाए, उन्होंने कहा कि गरीबी रेखा से नीचे के 2.43 करोड़ परिवारों को बिजली प्रदान की जाएगी। 2,35,000 गांवों के बजाए, आपने 54,000 गांवों को बिजली प्रदान की है, परंतु महान श्रेय का दावा किया जा रहा है।

Friday, 27 February 2009

यूपीए सरकार की असफलताएं (भाग-10) / भारत निर्माण का ढकोसला

इंफ्रास्ट्रक्चर विकास की उपेक्षा

इंफ्रास्ट्रक्चर विकास धीमी गति से हो रहा है। राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम एकदम पीछे जा पड़ा है। यही बात राष्ट्रीय रेल विकास योजना पर भी लागू होती है, जिसे राजग सरकार ने शुरू किया था। पिछले साढ़े चार वर्षों में कोई विशेष इंफ्रास्ट्रक्चर योजना शुरू नहीं हुई है।

प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना की उपेक्षा

वाजपेयी सरकार द्वारा शुरू की गई प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना स्वतंत्रता के बाद की सबसे बड़ी योजना थी। यूपीए सरकार ने इसको पर्याप्त रूप में धीमा कर दिया है। एनडीए के शासनकाल में सरकार ने 2801 किलोमीटर सड़कों के निर्माण की प्रक्रिया को तेजी से बढ़ाया था।

नदियों को जोड़ने की योजना का परित्याग

नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना भी एनडीए सरकार द्वारा चलाई गई अन्य मूल्यवान योजनाओं की तरह इस सरकार ने सौतेला व्यवहार किया है और केवल राजनैतिक कारणों से इन पर ध्‍यान नहीं दिया जा रहा है।

बिजली क्षेत्र के सुधारों का अंधकारमय भविष्य

देश में बिजली की आपूर्ति की स्थिति निरंतर बिगड़ती चली जा रही है जबकि यह सरकार बिजली अधिनियम में संशोधान पर बहस कर रही है।

कनेक्टिविटी

यह मानते हुए कि भारत के चहुमंखी और तेज विकास के लिए कनेक्टिविटी बहुत महत्वपूर्ण है। इसलिए एनडीए सरकार ने राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण के लिए समयबद्ध कार्यक्रम चलाया था जिसमें ग्रामीण सड़कों का कार्यक्रम- पीएनजीएसवाई भी शामिल था। अधिकांश स्थलों पर यह कार्य धीमा पड़ गया है। नीतिगत भ्रमों के कारण बंदरगाहों और हवाई अड्डों का निर्माण कार्यक्रम भी पीछे रह गया है इससे आने वाले वर्षों में राष्ट्रीय विकास बुरी तरह प्रभावित होगा।

जल संसाधन

न्यूनतम साझा कार्यक्रम में वायदा किया गया था कि प्राथमिकता के आधार पर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल उपलब्ध कराया जाएगा। दुर्भाग्य से सच यह है कि देश में, हर जगह पानी का अकाल पड़ा हुआ है। भारतीयों द्वारा देशभर में जिन नदियों की पूजा की जाती रही है, वे आज यूपीए सरकार के कुशासन के कारण जहरीले पानी का भंडार बन रही हैं। इसके कारण जल में प्रदूषण की मात्रा बढ़ने से हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक बन गया है।

ऊर्जा क्षेत्र

यूपीए सरकार ने पूरे देश को अंधकार का क्षेत्र बना दिया है। एनडीए सरकार ने विद्युत क्षेत्र में जो सुधार किए थे उन्हें यूपीए सरकार ने रोक दिया है और हर व्यक्ति पर इसका असर दिखाई पड़ता है। इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में यूपीए सरकार का प्रदर्शन बहुत असंतोषजनक है जिसे हाल की योजना आयोग के आंकड़ों ने भी बताया है। बिजली का उत्पादन बढ़ती मांग के सामने स्थिर बना है। तेल और गैस के उत्पादन की कहानी भी ऐसी ही बद्तर है और तेल आयात पर हमारी निर्भरता बढ़ गयी है। ऊर्जा क्षेत्र में हमारा प्रदर्शन आर्थिक विकास, रोजगार और जीवन के स्तर को प्रभावित करेगा।

स्वास्थ्य सेवाओं की उपेक्षा

न्यूनतम राष्ट्रीय साझा कार्यक्रम में 3 प्रतिशत खर्च करने का फैसला लिया गया था। अभी तक कुछ नहीं हुआ है। वहीं एनडीए सरकार के दौरान राज्यस्तर पर 6 एम्स खोलने की योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।

Thursday, 26 February 2009

सीपीआई (एम) में 'एम' यानी मियां-बीवी

गत 2 फरवरी को चण्डीगढ़ में आयोजित पत्रकार वार्ता में एक महिला कार्यकर्ता के देहशोषण के आरोपों में पार्टी से निष्कासित किए गए सीपीआई (एम) पंजाब इकाई के सचिव व पूर्व विधायक प्रोफेसर बलवंत सिंह ने आरोप लगाया है कि पार्टी में आजकल प्रकाश करात व वृंदा करात की तानाशाही के चलते मार्क्सवाद का स्थान मियां-बीवीवाद ने ले लिया है। उन्होंने बताया कि मियां-बीवी की तानाशाही के चलते पार्टी में लोकतांत्रिक मूल्यों को बुरी तरह से कुचला जा रहा है।

उल्लेखनीय है कि प्रोफेसर बलवंत सिंह को हाल ही में पार्टी से निष्कासित किया गया है। उनके बयान से सीपीआई (एम) में मची घमासान व अनुशासनहीनता खुल कर सामने आ गयी है। और लोकसभा चुनाव से पहले हुआ इस तरह का भांडाफोड़ पार्टी के लिए वज्रपात से कम नहीं समझा जा रहा है। पत्रकारों को संबोधित करते हुए उन्होंने बताया कि उन पर लगे देहशोषण के आरोपों के संदर्भ में करात कुनबे ने पोलित ब्यूरो को पूरी तरह से गुमराह किया है। प्रोफेसर सिंह ने बताया कि करात ने झूठ कहा है कि इन आरोपों के बारे में उन्होंने उनसे बात की है। उन्होंने कहा मैंने अपने निष्कासन को लेकर पार्टी को पत्र लिखा परन्तु पार्टी संविधान के अनुसार इस तरह के पत्र का जवाब देने की बाध्यता होने के बावजूद इस पर कोई गौर नहीं किया गया। आरोपों की जांच के लिए पोलित ब्यूरो ने दो सदस्यीय जांच कमेटी का गठन किया परन्तु उनके बयान लेने के लिए तीन सदस्य पहुंच गए जो पार्टी के संविधान का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है। जांच कमेटी के सामने न तो शिकायतकर्ता उपस्थित हुई और न ही उसे शिकायत की प्रति उपलब्ध करवाने के बारे सीताराम येचुरी से बात की गई तो उन्होंने इसे जरूरी बताया परन्तु करात कुनबे ने पार्टी नियमों की कोई परवाह नहीं की।

निष्कासित कम्युनिस्ट नेता ने बताया कि अपने खिलाफ होने वाली कार्रवाई की जानकारी उन्हें सिर्फ मीडिया से मिली है और उनके जवाब की जांच करना तो दूर पोलित ब्यूरो में उस पर विचार तक नहीं किया गया और करात कुनबे के इशारे पर उन पर कार्रवाई की गाज गिरा दी गई। केवल इतना ही नहीं पंजाब के 150 कम्युनिस्ट नेताओं ने पार्टी हाईकमान को अपनी कार्रवाई पर पुनर्विचार करने के संबंध में पत्र भी लिखे पर करात कुनबे ने किसी को जवाब देना उचित नहीं समझा। दाराकेश सैन

Wednesday, 25 February 2009

यूपीए की असफलताएं (भाग-9) / अल्‍पसंख्‍यक तुष्टिकरण

सच्चर समिति : मजहबी आरक्षण की वकालत
केन्द्र सरकार ने मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति की जानकारी के लिए जस्टिस राजेन्द्र सच्चर के नेतृत्व में समिति का गठन किया। राजेन्द्र सच्चर समिति की सिफारिशें 'मजहबी आधार पर आरक्षण' प्रदान करने वाली है जिन्हें देखकर 1906 में मुस्लिम लीग की याद आ जाती है, जिसके कारण देश का विभाजन हुआ। सच्चर समिति की रिपोर्ट विभाजनकारी है और पूरी तरह से पूर्वाग्रहों से भरी पड़ी है। यह विकृत दृष्टिकोण को प्रकट करती है। समिति की सारी कवायद केवल यह साबित करने की रही कि मुस्लिम समाज हर क्षेत्र में बहुत पिछड़ा है। यदि मुस्लिम समुदाय की आज आजादी के 59 वर्ष बाद ये स्थिति है तो इसके लिए क्या वे ही लोग जिम्मेदार नहीं है जिन्होंने इन 59 में से 54 वर्षों तक देश में शासन किया।

मदानी की रिहाई- क्या ये सचमुच सेक्युलर है?
कांग्रेस, यूपीए के सहयोगी दल और वामपंथी पार्टियां अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के मामले में एक दूसरे से होड़ लगाने में जुटी हैं। यह बात फिर केरल की कांग्रेसनीत गठबंधन सरकार और वामपंथियों वाले गठबंधन से सिद्ध हो जाती हैं। केरल में कांग्रेसनीत यूडीएफ ने 16 मार्च 2006 को विधानसभा में एक प्रस्ताव पेश किया जिसमें खौफनाक आतंकवादी अब्दुल नासर मदानी की रिहाई का प्रस्ताव किया गया है जबकि उस पर बम विस्फोट अभियुक्तों को शरण देने के गम्भीर आरोप रहे हैं।

आपको याद होगा कि फरवरी 1998 में एक चुनाव रैली में कोयम्बटूर में ओमा बाबू उर्फ मजीद तथा अन्य अभियुक्तों ने बम विस्फोट किए थे, जिसमें 59 लोगों की मृत्यु हो गई थी और 200 निर्दोष लोग विकलांग हो गए थे। ऐसे लोगों को पनाह देने वाले मदानी थे। इसके अलावा भी उनका सम्पर्क पाकिस्तान के आईएसआई एजेण्टों से था जो अल उम्मा कार्यकर्ता को प्रशिक्षण देते थे। किन्तु विधानसभा चुनावों को नजर में रखते हुए सत्तारुढ़ कांग्रेस पार्टी और विपक्षी वामपंथियों ने मुस्लिम मतदाताओं की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए एक दूसरे से होड़ लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गया। आतंकवाद से लड़ने वाले इन यूपीए और वामपंथियों के सेकुलरिज्म की ईमानदारी के क्या कहने? क्या इसे ही सेक्युलरिज्म कहा जाता है?

मजहब आधारित आरक्षण
केवल वोट बैंक राजनीति के कारण आंध्र प्रदेश में कांग्रेस सरकार ने राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करते हुए मजहब के आधार पर केवल मुस्लिमों के लिए सरकारी नौकरियों में 5 प्रतिशत सीटों का आरक्षण कर दिया। भाजपा ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। उच्च न्यायालय ने मजहब आधारित आरक्षण को 'असंवैधानिक' करार दे दिया, फिर भी कांग्रेस संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ उपाए ढूंढने में लगी हुई है। कांग्रेस फिर अपनी युगों पुरानी अल्पसंख्यक वोट बैंक राजनीति पर लौट आई है। बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक विभाजन करके सरकार सामाजिक कट्टरवाद को जन्म दे रही है।

तमिलनाडु सरकार द्वारा मुस्लिमों और ईसाइयों को आरक्षण
तमिलनाडु सरकार ने शिक्षा संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में मुस्लिम और ईसाई समुदाय को आरक्षण देने की घोषणा की, जो समाज को धार्मिक आधार पर बांटने की कोशिश है। यह कार्य न केवल गैरसंवैधानिक है, बल्कि धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ भी है। संविधान सभा में बहस के दौरान यह निर्णय लिया गया था कि धार्मिक आधार पर कोई आरक्षण नहीं दिया जाएगा। दुर्भाग्य की बात है कि यह सब कुछ वोट बैंक को ध्‍यान में रखकर किया जा रहा है, जो देश की एकता और अखंडता के लिए घातक है। सच तो यह है कि धार्मिक आधार पर आरक्षण धर्मान्तरण को बढ़ावा देता है।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में साम्प्रदायिक आरक्षण
सेक्युलेरिज्म की आड़ में यूपीए के मानव संसाधन विकास मंत्री श्री अर्जुन सिंह ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में 50 प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण का आदेश दिया। उच्च न्यायालय ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय न मानते हुए इसे असंवैधानिक करार दे दिया। फिर भी, सरकार उच्चतम न्यायालय पहुंच गई है। हालांकि यह मामला न्यायाधीन है, फिर भी श्री अर्जुन सिंह ने कहना जारी रखा है कि वह न्यायालय के आदेश के बाद भी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा दिलाने के लिए कृतबद्ध हैं।

कांग्रेस का 'तथाकथित सेक्युलर' चेहरा
हम यहां दो उदाहरण दे रहे हैं जिनमें कांग्रेस का वह सेक्युलर चेहरा सामने आ जाता है, जिसे कांग्रेस ने भारत को जाति और धर्म के आधार पर बांटा:
1. अक्तूबर 2005 में बिहार विधानसभा चुनाव के पूर्व कांग्रेस ने धर्म और जाति के आधार पर अपने उम्मीदवारों की सूची जारी की। यह सूची इण्डियन एक्सप्रेस सहित सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई। इस पर कांग्रेस की प्रवक्ता श्रीमती अम्बिका सोनी के हस्ताक्षर थे।
2. यूपीए द्वारा गठित जस्टिस राजेन्द्र सच्चर समिति ने हमारी हथियारबंद सेना से रक्षा सेवाओं में सभी मुस्लिमों की संख्या व सूची देने के लिए कहा।

Monday, 23 February 2009

नैनो-नंदीग्राम की चक्की में पिसा बंगाल

निवेशक कर रहे हैं पश्चिम बंगाल में निवेश से तौबा।
नंदीग्राम और सिंगुर घटनाक्रमों के बाद वर्ष 2008 में पश्चिम बंगाल देश के प्रमुख निवेश केंद्रित राज्यों की सूची में 13वें स्थान पर आ गया है जबकि इससे एक साल पहले उसे चौथा स्थान हासिल था। यह खुलासा एसोचैम की ओर से पेश की गई एक रिपोर्ट में हुआ है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक राज्य साल 2007 में राज्य के लिए 2,43,489 करोड़ रुपये की निवेश घोषणाएं की गई थीं, जबकि 2008 में ये घटकर महज 90,095 करोड़ रुपये रह गईं।

एसोचैम के महासचिव डी एस रावत ने बताया कि नंदीग्राम और सिंगुर की घटनाओं ने राज्य में निवेश की कमर तोड़ दी है। उन्होंने कहा कि इन दोनों मामलों के बाद से कारोबारी राज्य में निवेश से कतराने लगे हैं।

जनवरी से दिसंबर 2008 के बीच पश्चिम बंगाल के लिए देश के कारोबार जगत ने 90,095 करोड़ रुपये के निवेश की घोषणाएं की थीं, जो कि पिछले साल की समान अवधि से 63 फीसदी कम हैं। पिछले वर्ष इसी अवधि में 2,43,489 करोड़ रुपये के निवेश की घोषणाएं की गई थीं।

हालांकि राज्य में निवेश घटने की एक वजह आर्थिक मंदी भी रही है। नकदी की किल्लत के कारण बुनियादी क्षेत्रों का विकास प्रभावित हुआ और इस कारण निवेश सूची में पश्चिम बंगाल नीचे खिसक आया है।

कैलेंडर वर्ष 2007 और 2008 में राज्य के लिए निवेश के मामले में स्टील क्षेत्र सबसे आगे रहा है। वर्ष 2007 में स्टील क्षेत्र की घरेलू कंपनियों ने जहां राज्य में 85,200 करोड़ रुपये की निवेश घोषणाएं की, वहीं 2008 में यह निवेश घटकर महज 23,000 करोड़ रुपये रह गया। इस तरह अकेले स्टील क्षेत्र की ओर से निवेश में इस दौरान 72.6 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई।

साल 2007 में राज्य में दूसरा सबसे अधिक निवेश करने वाला क्षेत्र रियल एस्टेट रहा, जहां से 52,929 करोड़ रुपये की निवेश घोषणाएं की गईं। हालांकि 2008 में रियल एस्टेट की जगह मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र ने ले ली और इस क्षेत्र से 20,000 करोड़ रुपये के निवेश की घोषणा की गई।

राज्य में निवेश के लिहाज से 2007 और 2008 दोनों ही सालों में तेल एवं गैस क्षेत्र तीसरे स्थान पर रहा। इस क्षेत्र ने 2007 में जहां 42,750 करोड़ रुपये की निवेश घोषणाएं की थीं, वहीं 2008 में यह 77 फीसदी घटकर केवल 20,000 करोड़ रुपये रह गईं।

अगर कंपनियों के लिहाज से राज्य में निवेश की हालत देखें तो 2007 में जेएसडब्लू स्टील 35,000 करोड़ रुपये के निवेश के साथ सबसे आगे रहा। कंपनी ने इस निवेश की घोषणा खड़गपुर के निकट सालबोनी में 10 मिलियन टन के स्टील संयंत्र को लगाने के लिए किया था।

डांकुनी में टाउनशिप परियोजना के विकास के लिए 33,000 करोड़ रुपये की निवेश घोषणा के साथ डीएलएफ दूसरे स्थान पर रही।

हल्दिया में क्षमता विस्तार के लिए 29,750 करोड़ रुपये के निवेश के साथ इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन तीसरे पायदान पर रही। जबकि वीडियोकॉन समूह ने चौथे और रिलायंस इंडस्ट्रीज ने पांचवे स्थान पर कब्जा जमाया। (प्रदीप्ता मुखर्जी)

चिकनी है डगर

निवेश के लिए पसंदीदा राज्यों की सूची में पहुंचा 13वें नंबर पर

नंदीग्राम और सिंगुर बने निवेशकों की बेरुखी की वजह

एक ही साल में घट गया लगभग 63 फीसदी निवेश

स्रोत

Friday, 20 February 2009

यूपीए की असफलताएं (भाग-9)/ मजहबी आधार पर देश के विभाजन का प्रयास

यूपीए सरकार ने ब्रिटिश राज्य की तर्ज पर 'फूट डालो और राज करो' की नीति अपनाते हुए अनेक ऐसे निर्णय लेने शुरू किए जो उनके राजनैतिक हितों के अनुकूल रहें चाहे उसके प्रभाव देश के लिए घातक ही क्यों न हों। 'वन्देमातरम्' का विरोध करना और प्रधानमंत्री का यह कहना कि देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक है, क्या राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा नहीं बन सकते? अगर भारत में भाईचारे का संबंध नहीं होता और हमारी धर्म-निरपेक्षता की भावना प्रबल नहीं होती तो वातावरण बहुत दूषित हो जाता। संप्रग सरकार इतने पर ही नहीं रूकी। वह शायद तय कर चुकी है कि उनके निर्णयों की प्रतिक्रिया हो। गरीबी को साम्प्रदायिकता का रंग देना कहां तक वाजिब है? अल्पसंख्यक समुदाय दृष्टि से तो खतरनाक है ही, परन्तु आर्थिक दृष्टि से भी बिल्कुल निराधार है। विकास और गरीबी से लड़ाई में साम्प्रदायिक दृष्टि का सर्वथा त्याग करना चाहिए, परन्तु हमें यूपीए की केन्द्र सरकार ने ऐसे भी जिले चयनित किए हैं, जहां पर अल्पसंख्यकों की जनसंख्या अधिक है। इन जिलों के विशेष विकास पर केन्द्र सरकार का विशेष ध्‍यान रहेगा और इसके लिए बजट भी विशेष रूप से रखा गया है।

अल्पसंख्यक तुष्टिकरण
यूपीए सरकार के द्वारा साढ़े चार वर्षों में किये गये चिंताजनक कार्यों में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण प्रमुख है। सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में साम्प्रदायिक आरक्षण के अपने प्रयासों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नकार दिये जाने के बाद केन्द्र सरकार ने बैंकों के ऋण और विकास योजनाओं में साम्प्रदायिक आधार पर अलग कोटा निर्धारित करने का प्रयास किया। देश के संसाधनों पर मुस्लिम समुदाय का पहला हक होने का प्रधाानमंत्री का बयान अचंभित करने वाला रहा। समाज के सभी वर्गों का विकास होना चाहिए। विकास को साम्प्रदायिक रंग में रंगने का कोई भी प्रयास निन्दनीय है।

भारत सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार अल्पसंख्यक समुदाय के विकास के लिए आवंटित धन को 400 करोड़ से बढ़ाकर 1400 करोड़ रूपए कर दिया गया है। दूसरी तरफ अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़े वर्ग के विकास के लिए आवंटित धन में 2प्रतिशत की कटौती की गई है। यह समाज के पिछड़े और अनुसूचित वर्ग के साथ अन्याय है। यदि वास्तविकता में समाज के किसी वर्ग तक सरकारी सहायता और विकास के वास्तविक स्वरूप को सुनिश्चित करने की आवश्यकता है तो वे है अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति। सरकार को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आवंटित धन में कटौती को समाप्त करना चाहिए और वह धन उचित ढंग से इन वर्गों के गरीब लोगों तक पहुंच सकें उस पर नजर रखने के लिए यदि आवश्यकता हो तो एक नोडल एजेंसी भी बनानी चाहिए।

अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक विभाजन
यूपीए ने देश की शिक्षा पध्दति में बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक विभाजन की दीवार को चौड़ा करने का गहन प्रयास किया है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मुस्लिमों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण का निर्णय एकदम साम्प्रदायिक निर्णय है। इसका उद्देश्य चुनावों में कांग्रेस के लिए अल्पसंख्यकों के वोट हासिल करना है। कांग्रेस नेतृत्व इस प्रकार की विभाजनकारी राजनीति के दीर्घकालीन परिणामों से पूरी तरह उदासीन है।

प्रधानमंत्री का साम्प्रदायिक बयान
कांग्रेस के अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति को हवा देते हुए प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय विकास परिषद में यहां तक कह दिया कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यक समुदायों और विशेषकर मुस्लिम समुदाय का है। यदि देश के संसाधनों पर किसी का पहला हक बनता है तो गरीबों का बनता है, अनुसूचित जनजाति के लोगों का बनता है, दलितों का बनता है। परन्तु केन्द्र सरकार की नजर में निर्धान, वनवासी और दलित से अधिक महत्व मुस्लिम समुदाय दिखाई पड़ता है। पूरे समुदाय को सांप्रदायिक आधार पर सुविधा, आरक्षण या पहला हक देने की बात करना असंवैधानिक है। ऐसे प्रयासों के द्वारा यू.पी.ए. सरकार मुस्लिम समुदाय को राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग-अलग रखने का प्रयास कर रही है।

राष्‍ट्रगीत वंदेमातरम् का अपमान
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने वंदेमातरम् राष्ट्रगीत शताब्दी वर्ष के अवसर पर राज्य सरकारों से 7 सितंबर, 2006 को स्कूलों में वंदेमातरम् गीत गाये जाने का निर्देश दिया। इसका देश के कुछ मुस्लिम समुदाय के नेताओं और सेकुलर बुद्धिजीवियों ने विरोध किया। तथाकथित मुस्लिम नेताओं एवं अल्पसंख्यक समुदाय की वोट बैंक की राजनीति को ध्‍यान में रखते हुए अर्जुन सिंह ने अपने आदेश से पलटते हुए कहा कि वंदेमातरम् को गाने के लिए किसी प्रकार की अनिवार्यता नहीं है। कांग्रेस एक बार फिर अपने ही जाल में फंस गई। उसके अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का एक और नायाब उदाहरण तब सामने आया जब कांग्रेस अध्‍यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राष्ट्रगीत वंदेमातरम् के सौ वर्ष पूरा होने के मौके पर गत 7 सितंबर को पार्टी द्वारा आयोजित कार्यक्रम में नहीं पहुंचे। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह वंदेमातरम् समारोह समिति के अध्‍यक्ष भी थे।

अल्पसंख्यकों के लिए पृथक ऋण व्यवस्था
अल्पसंख्यक वोट बैंक को मजबूत करने के चक्कर में संप्रग सरकार धार्म के नाम पर समाज में जहर घोलने का काम कर रही है। संप्रग राज में जल्द ही ऐसा समय आने वाला है जब बैंकों को किसी व्यक्ति को उधाार देने के लिए चैक लिखकर देना होगा तो उसे जानना होगा कि उसका धार्म क्या है? सरकार ने इण्डियन बैंक एसोसिएशन (आईबीए) से कहा है कि वह इस बात पर विचार करे कि वे जितना ऋण देती हैं, उसका कुछ हिस्सा अल्पसंख्यक समुदाय के लिए अलग से रख लिया जाए। यह हिस्सा बैंकिंग सेक्टर द्वारा दिए जाने वाले ऋण का लगभग 6 प्रतिशत की ऊंचाई तक जा पहुंचेगा। वित्ता मंत्रालय के बैंकिंग प्रभाग से अपने 9 जनवरी के पत्र में आईबीए से कहा है कि वह इस प्रस्ताव पर विचार करे कि क्या अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के लिए प्राथमिक सेक्टर में 15 प्रतिशत ऋण अलग से रखा जा सकता है?

Thursday, 19 February 2009

यूपीए सरकार की असफलताएं (भाग-8)

हमारी संसदीय शासन व्यवस्था में प्रधानमंत्री को सरकार का सर्वोपरि माना जाता है। जिसके पास राजनीतिक और प्रशासनिक दोनों अधिकार होते हैं। भारत का प्रधानमंत्री ऐसा नहीं होता है, जैसे कि वह किसी भारतीय कम्पनी का कोई प्रमुख निदेशक हो, वह अपनी राजनैतिक अधिकारों को किसी अन्य व्यक्ति को नहीं सौंप सकता है। आज देश पर एक ऐसी असंवैधानिक व्यवस्था लाद दी गई है कि प्रधानमंत्री के पास अपनी ही सरकार को नियंत्रण में रखने के अधिकार नहीं है और वह हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर संसद की बजाय अपने बॉस के प्रति अधिक उत्तरदायी बना रहता है।

डा. मनमोहन सिंह की एक और दुर्बलता है कि उसके मंत्रीगण किसी महत्वपूर्ण नीतिगत मामले की घोषणा करने से पहले उन्हें विश्वास में नहीं लेते हैं। बहुत से ऐसे अवसर आए हैं कि प्रधानमंत्री के लिए कोई नीति उनके पास एक खबर बनकर पहुंची है जो उन्हें समाचार पत्रों अथवा इलैक्ट्रोनिक मीडिया से मिलती है। इसी कारण उन्हें अपने मंत्रियों को लिखना पड़ा कि वे इस प्रकार की सभी नीतिगत घोषणाओं के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय से अपना सम्पर्क बनाए रखें।

कांग्रेस को जनता ने नकारा
यूपीए के प्रति जनता का आक्रोश पिछले वर्षों के दौरान दिखाई पडा। विगत दो वर्षों में 17 राज्‍यों के विधानसभा चुनाव संपन्‍न हुए, जिनमें से 11 राज्‍यों में यूपीए हारा और कांग्रेस को अपने बल पर केवल चार राज्‍यों में विजय हासिल हुई।

संप्रग सरकार का अधिनायकवादी रवैया
संप्रग सरकार अभी तक अधिनायकवादी रवैए से कार्य कर रही है। राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर वह आम सहमति बनाने का न तो प्रयास किया और न ही विपक्ष के साथ-साथ अपने सहयोगी दलों को विश्वास में लिया। मामला अमेरिका के साथ परमाणु समझौते का हो या अरूणाचल प्रदेश में चीनी घुसपैठ का। दोनों मसलों पर संप्रग सरकार अपनी बात रखने में सफल नहीं हुई। केंद्र सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद को प्रभावी ढंग से नहीं उठाया। आईएमडीटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बाद भी बंगलादेशी घुसपैठ के मामले में यूपीए सरकार पूरी तरह निष्क्रिय रही। संप्रग सरकार की कमजोर नीति के चलते नेपाल में राजनीतिक संकट गहराया।

महिला आरक्षण
यूपीए सरकार के चार वर्ष पूरे होने के पश्चात् भी महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित नहीं हो सका। वास्तव में महिला विरोधी यूपीए सरकार महिलाओं को आरक्षण का लाभ देना ही नहीं चाहती। चौथे वर्ष के बजट सत्र के दौरान यूपीए ने महिला आरक्षण को लोकसभा के स्थगित होने के पश्‍चात राज्यसभा के अंतिम कार्यदिवस में बड़े ही नाटकीय ढंग से प्रस्तुत किया। जिसका उसके ही सहयोगी दलों ने जमकर विरोध किया व बिल फाड़ कर फेंक दिया। यह दर्शाता है कि यूपीए सरकार इस बिल को लेकर महज खानापूर्ति कर रही है। वह महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए गंभीर नहीं है।

तेलंगाना के साथ धोखा
आंध्रप्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस और तेलंगाना राष्ट्रीय समिति ने तेलंगाना राज्य गठन के मुद्दे पर चुनावी गठबंधन किया था कि यदि वे विजयी होते हैं तो वे आंध्रप्रदेश के वर्तमान राज्य को बांट कर एक संपूर्ण तेलंगाना राज्य बना देंगे। दोनों पार्टियां विधानसभा चुनाव में विजयी रहे परंतु कांग्रेस ने लोगों के जनादेश के साथ विश्वासघात किया और कांग्रेस ने अपने इस वायदे को नहीं निभाया। आंध्र के लोगों को मूर्ख बनाने के लिए यूपीए ने रक्षा मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी की अधयक्षता में इस विषय पर एक समिति गठित कर दी है। समिति और यूपीए सरकार जैसे-तैसे समय काट रही हैं। हताश होकर तेलंगाना राष्ट्रीय समिति केंद्र और आंध्र सरकार की कैबिनेट दोनों से अपने इन बुनियादी नीतिगत मतभेदों के कारण बाहर निकल आयी।

Tuesday, 17 February 2009

श्रीगुरुजी और राष्ट्र-अवधारणा

अध्‍याय -1
राष्ट्र और राज्य


राष्ट्र, राष्ट्रीयता, हिन्दू राष्ट्र इन अवधारणाओं (concepts) के सम्बन्ध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक (1906 से 1973) श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरुजी ने जो विचार समय-समय पर व्यक्त किये, वे जितने मौलिक हैं, उतने ही कालोचित भी हैं। एक बड़ी भारी भ्रान्ति सर्वदूर विद्यमान है जिसके कारण, राज्य को ही राष्ट्र माना जाता है। 'नेशन-स्टेट' की अवधारणा प्रचलित होने के कारण यह भ्रान्ति निर्माण हुई और आज भी प्रचलित है। स्टेट (राज्य) और नेशन (राष्ट्र) इनका सम्बन्धा बहुत गहरा और अंतरतम है, इतना कि एक के अस्तित्व के बिना दूसरे के जीवमान अस्तित्व की कल्पना करना भी कठिन है। जैसे पानी के बिना मछली। फिर भी पानी अलग होता है और मछली अलग, वैसे ही राज्य अलग है, राष्ट्र अलग है। इस भेद को आंखों से ओझल करने के कारण ही, प्रथम विश्व युध्द के पश्चात्, विभिन्न देशों में सामंजस्य निर्माण करने हेतु जिस संस्था का निर्माण किया गया और जिसके उपुयक्तता का बहुत ढिंढोरा पीटा गया, उसका नाम 'लीग ऑफ नशन्स' था। वस्तुत: वह लीग ऑफ स्टेट्स, या लीग ऑफ गव्हर्नमेंट्स थी। मूलभूत धारणा ही गलत होने के कारण केवल दो दशकों के अन्दर वह अस्तित्वविहीन बन गया। द्वितीय विश्‍व युध्द के पश्‍चात् 'युनाइटेड नेशन्स' बनाया गया। वह भी युनाइटेड स्टेट्स ही है। इस युनाइटेड नेशन्स यानी राष्ट्रसंघ का एक प्रभावशाली सदस्य यूनियन ऑफ सोशलिस्ट सोवियत रिपब्लिक्स (यु.एस.एस.आर) है। वह उस समय भी एक राष्ट्र नहीं था। एक राज्य था। सेना की भौतिक शक्ति के कारण वह एक था। आज वह शक्ति क्षीण हो गई तो, उसके घटक अलग हो गये हैं। यही स्थिति युगोस्लाव्हाकिया की भी हो गयी। वह भी एक राष्ट्र नहीं था। एक राज्य था। तात्पर्य यह है कि युनाइटेड नेशन्स यह राष्ट्रसंघ नहीं, राज्यसंघ है।

'राज्य' की निर्मिति के सम्बन्ध में महाभारत के शान्तिपर्व में सार्थक चर्चा आयी है। महाराज युधिष्ठिर, शरशय्या पर पड़े भीष्म पितामह से पूछते हैं कि ''पितामह, यह तो बताइये कि राजा, राज्य कैसे निर्माण हुये।'' भीष्म पितामह का उत्तर प्रसिध्द है। उन्होंने कहा कि एक समय ऐसा था कि जब कोई राजा नहीं था, राज्य नहीं था, दण्ड नहीं था, दण्ड देने की कोई रचना भी नहीं थी। लोग 'धर्म' से चलते थे और परस्पर की रक्षा कर लेते थे।

महाभारत के शब्द हैं :-

''न वै राज्यं न राजाऽसीत्
न दण्डो न च दाण्डिक:।
धर्मेणैव प्रजा: सर्वा।
रक्षन्ति स्म परस्परम्॥''
स्वाभाविकतया युधिष्ठिर का पुन: प्रश्न आया कि, यह स्थिति क्यों बदली। भीष्माचार्य ने उत्तर दिया, ''धर्म क्षीण हो गया। बलवान् लोग दुर्बलों को पीड़ा देने लगे'' महाभारत का शब्द है- ''मास्यन्याय'' संचारित हुआ। याने बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने लगी। तब लोग ही ब्रह्माजी के पास गये और हमें राजा दो, ऐसी याचना की। तब मनु पहले राजा बने। राजा के साथ राज्य आया, उसके नियम आये, नियमों के भंग करनेवालों को दण्डित करने की व्यवस्था आयी। नियमों के पीछे राज्यशक्ति यानी दण्डशक्ति का बल खड़ा हुआ। अत: नियमों को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।

आज का राज्यशास्त्र भी इसी स्थिति को मानता है। राज्य यह एक राजनीतिक अवधारणा है, जो कानून के बलपर खड़ी रहती है, उसके बलपर चलती है और कानून को सार्थक रखने के लिए उसके पीछे राज्य की दण्डशक्ति (Sanction) खड़ी रहती है। राज्य के आधारभूत हर कानून के पीछे, उसको भंग करनेवालों को दबानेवाली (coercive) एक शक्ति खड़ी होती है। अर्नेस्ट बार्कर नाम के राज्यशास्त्र के ज्ञाता कहते हैं ''राज्य कानून के द्वारा और कानून में अवस्थित रहता है। हम यह भी कह सकते हैं कि राज्य यानी कानून ही होता हैं।''

"The state is a legal association: a juridically organized nation or a nation organized for actoin under legal rules. It exists for law: it exists in and through law: we may even say that it exists as law. If by law we mean, not only a sum of legal rules but also and in addition, an operative system of effective rules which are actually valid and regularly enforced. The essence of the State is a living body of effective rules: and in that sense the State is law.” (Ernest Barker - Priciples of Social and Political Theory - Page 89)

तात्पर्य यह है कि राज्य की आधारभूत षक्ति कानून का डर है। किन्तु राष्ट्र की आधारभूत शक्ति लोगों की भावना है। राष्ट्र लोगों की मानसिकता की निर्मिति होती है। हम यह भी कह सकते हैं कि राष्ट्र यानी लोग होते हैं। People are the Nation. अंग्रेजी में कई बार 'नेशन' के लिये 'पीपुल' शब्द का प्रयोग किया जाता है।

किन लोगों का राष्ट्र बनता है। मोटी-मोटी तीन षर्ते हैं। पहली शर्त है, जिस देश में लोग रहते हैं, उस भूमि के प्रति उन लोगों की भावना। दूसरी शर्त है, इतिहास में घटित घटनाओं के सम्बन्धा में समान भावनाएँ। फिर वे भावनाएँ आनन्द की हो या दु:ख की, हर्ष की हो या अमर्ष की। और तीसरी, और सबसे अधिक महत्व की शर्त है, समान संस्कृति की। श्री गुरुजी ने अपने अनेक भाषणों में इन्हीं तीन षर्तो का, भिन्न-भिन्न सन्दर्भ में विवेचन करके यह निस्संदिग्धा रीति से प्रतिपादित किया कि यह हिन्दू राष्ट्र है। यह भारतभूमि इस राष्ट्र का शरीर है। श्री गुरुजी के शब्द हैं ''यह भारत एक अखण्ड विराट् राष्ट्रपुरुष का शरीर है। उसके हम छोटे-छोटे अवयव हैं, अवयवों के समान हम परस्पर प्रेमभाव धारण कर राष्ट्र-शरीर एकसन्ध रखेंगे।''

संकलनकर्ता - मा.गो.वैद्य

Saturday, 14 February 2009

वेलेंटाइन डे में मैं विश्‍वास नहीं करता: राहुल गांधी


कांग्रेस के महा‍सचिव राहुल गांधी ने गुजरात में तीन दिन के अपने प्रवास (सौराष्‍ट्र) में 14 जनवरी को कहा कि मैं वेलेंटाइन डे में विश्‍वास नहीं करता हूं और मुझे उनके साथ कोई दिक्‍कत नहीं हैं जो इन्‍हें मनाते हैं। उन्‍होंने आगे कहा कि आप किसी का ख्‍याल रखते हैं, इसे जताने के लिए कोई एक दिन नहीं होना चाहिए।

पब कल्चर के बीच पिसता समाज व शालीनता

भारतीय संस्कृति के समुद्र में अनेक संस्कृतियां समाहित हैं। भारत की धरती पर अब एक नई संस्कृति उभर रही है पब कलचर। इस नई संस्कृति के उदगम में समाज नहीं वाणिज्य और बाज़ारभाव का योगदान अमूल्य है। पर मंगलौर में एक पब में जिस प्रकार से महिलाओं और लड़कियों पर हाथ उठाया गया वह तो कोई भी संस्कृति –और कम से कम भारतीय तो बिल्कुल ही नहीं– इसकी इजाज़त नहीं देती। इसकी व्यापक भर्त्सना स्वाभाविक और उचित है क्योंकि यह कुकर्म भारतीय संस्कृति के बिलकुल विपरीत है।

पब एक सार्वजनिक स्थान है जहां कोई भी व्यक्ति प्रविष्ट कर सकता है। यह ठीक है कि पब में जो भी जायेगा वह शराब पीने-पिलाने, अच्छा खाने-खिलाने और वहां उपस्थित व्यक्तियों के साथ नाचने-नचाने द्वारा मौज मस्ती करने की नीयत ही से जायेगा। पर साथ ही किसी ऐसे व्यक्ति के प्रवेश पर भी तो कोई पाबन्दी नहीं हो सकती जो ऐसा कुछ न किये बिना केवल ठण्डा-गर्म पीये और जो कुछ अन्य लोग कर रहे हों उसका तमाशा देखकर ही अपना मनोरंजन करना चाहे।

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और उच्छृंखलता में बहुत अन्तर होता है। जनतन्त्र में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की तो कोई भी सभ्य समाज रक्षा व सम्मान करेगापर उच्छृंखलता सहन करना किसी भी समाज के लिये न सहनीय होना चाहिये और न ही उसका सम्मान। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई के पीछे है हमारी गुलामी की मानसिकता जिसके अनुसार पश्चिमी तथा विदेशी संस्कृति में सब कुछ अच्छा है और भारतीय में बुरा। हम इस हीन भावना से अभी तक उबर नहीं पाये हैं। इसलिये हम उस सब की हिमायत करते हैं जो हमारे संस्कार व संस्कृति के विपरीत है और बाहरी संस्कृति में ग्राहय। इसलिये पब जैसे सार्वजनिक स्थान पर तो हर व्यक्ति को मर्यादा में ही रहना होगा और ऐसा सब कुछ करने से परहेज़ करना होगा जिससे वहां उपस्थित कोई व्यक्ति या समूह आहत हो। क्या स्वतन्त्रता और अधिकार केवल व्यक्ति के ही होते हैं समाज के नहीं? क्या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और अधिकार के नाम पर समाज की स्वतन्त्रता व अधिकारों का हनन हो जाना चाहिये? क्या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता (व उच्छृंखलता) सामाजिक स्वतन्त्रता से श्रेष्ठतम है?


व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई के पीछे है हमारी गुलामी की मानसिकता जिसके अनुसार पश्चिमी तथा विदेशी संस्कृति में सब कुछ अच्छा है और भारतीय में बुरा। हम इस हीन भावना से अभी तक उबर नहीं पाये हैं। इसलिये हम उस सब की हिमायत करते हैं जो हमारे संस्कार व संस्कृति के विपरीत है और बाहरी संस्कृति में ग्राहय।

एक सामाजिक प्राणी को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिये जो उसके परिवार, सम्बन्धियों, पड़ोसियों या समाज को अमान्य हो। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई देने का तो तात्पर्य है कि सौम्य स्वभाव व शालीनता व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व अधिकार के दुश्मन हैं।

जो व्यक्ति अपना घर छोड़कर कहीं अन्यत्र –बार, पब या किसी उद्यान जैसे स्थान पर — जाता है, वह केवल इसलिये कि जो कुछ वह बाहर कर करता है वह घर में नहीं करता या कर सकता। कोई व्यक्ति अपनी पत्नी से किसी सार्वजनिक स्थान पर प्रेमालाप के लिये नहीं जाता। जो जाता है उसके साथ वही साथी होगा जिसे वह अपने घर नहीं ले जा सकता। पब या कोठे पर वही व्यक्ति जायेगा जो वही काम अपने घर की चारदीवारी के अन्दर नहीं कर सकता।

व्यक्ति तो शराब घर में भी पी सकता है। डांस भी कर सकता है। पश्चिमी संगीत व फिल्म संगीत सुन व देख सकता है। बस एक ही मुश्किल है। जिन व्यक्तियों या महिलाओं के साथ वह पब या अन्यत्र शराब पीता है, डांस करता है, हुड़दंग मचाता है, उन्हें वह घर नहीं बुला सकता। यदि उस में कोई बुराई नहीं जो वह पब में करता हैं तो वही काम घर में भी कर लेना चाहिये। वह क्यों चोरी से रात के गहरे अन्धेरे में वह सब कुछ करना चाहता हैं जो वह दिन के उजाले में करने से कतराता हैं? कुछ लोग तर्क देंगे कि वह तो दिन में पढ़ता या अपना कारोबार करता हैं और अपना दिल बहलाने की फुर्सत तो उसें रात को ही मिल पाती है। जो लोग सारी-सारी रात पब में गुज़ारते हैं वह दिन के उजाले में क्या पढ़ते या कारोबार करते होंगे, वह तो ईश्वर ही जानता होगा। वस्तुत: कहीं न कहीं छिपा है उनके मन में चोर। उनकी इसी परेशानी का लाभ उठा कर पनपती है पब संस्कृति और कारोबार।

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई के पीछे है हमारी गुलामी की मानसिकता जिसके अनुसार पश्चिमी तथा विदेशी संस्कृति में सब कुछ अच्छा है और भारतीय में बुरा। हम इस हीन भावना से अभी तक उबर नहीं पाये हैं। इसलिये हम उस सब की हिमायत करते हैं जो हमारे संस्कार व संस्कृति के विपरीत है और बाहरी संस्कृति में ग्राहय।

इसके अन्य पहलू भी हैं। यदि हम पब कल्चर को श्रेयस्कर समझते हैं तो यह स्वाभाविक ही है कि जो व्यक्ति रात को –या यों कहिये कि पौ फटने पर– पब से निकलेगा वह तो सरूर में होगा ही और गाड़ी भी पी कर ही चलायेगा। कई निर्दोष इन महानुभावों की मनमौजी कल्चर व स्वतन्त्रता की बलि पर शहीद भी हो चुके हैं। तो यदि शराब पीने की स्वतन्त्रता है तो शराब पी कर गाड़ी चलाना –और नशे में गल्ती से अनायास ही निर्दोषों को कुचल देना– क्यों घोर अपराध है?

एक गैर सरकारी संस्‍थान द्वारा किए गए हालिया सर्वेक्षण ने तो और भी चौंका देने वाले तथ्‍यों को उजागर किया है। दिल्‍ली में सरकार ने शराब पीने के लिए न्‍यूनतम आयु 25 वर्ष निर्धारित की है। परन्‍तु इस सर्वेक्षण के अनुसार, दिल्‍ली के पबों में जाने वाले 80 प्रतिशत व्‍यक्ति नाबालिग हैं। इस सर्वेक्षण ने आगे कहा है कि दिल्‍ली में प्रतिवर्ष लगभग 2000 नाबालिग शराब पीकर गाडी चलाने के मामलों में संलिप्‍त पाये गये हैं। वह या तो शराब पीकर गाडी चलाने के दोषी हैं या फिर उसके शिकार।

हमारी ही सरकारों ने –जिनके नेता पब कल्चर का समर्थन कर रहे हैं– शराब पीकर गाड़ी चलाने को घोर अपराध घोषित कर दिया है और उन्हें कड़ी सज़ा दी जा रही है । हमारी अदालतों –कुछ विदेशों में भी– शराब पी कर गाड़ी चलाने वालों को आतंकवादियों से भी अधिक खतरनाक बताते है जो निर्दोष लोगों की जान ले लेते हैं।

पब कल्चर एक बाज़ारू धंधा है। इसे संस्कृति का नाम देना किसी भी संस्कृति का अपमान करना है। यही कारण है कि इसके विरूध्द प्रारम्भिक आवाज़ चाहे हिन्दुत्ववादियों ने ही उठाई हो पर उनके सुर में उन लोगों नें भी मिला दिया है जिन्हें भारत की संस्कृति से प्यार है।

केन्द्रिय स्वास्थ मन्त्री श्री अंबुमानी रामादोस ने पब कल्चर को भारतीय मानस के विरूध्द करार दिया है और एक राष्ट्रीय शराब नीति बनाकर इस पर अंकुश लगाने का अपना इरादा जताया है। उन्होंने कहा कि देश में 40 प्रतिशत सड़क दुर्घटनाओं का कारण शराब पीकर गाड़ी चलाना है और इसमें पब में शराब पीकर लौट रहे नौजवानों की संख्या बहुत हैं। उन्होंने आगे कहा कि एक विश्लेषण के अनुसार पिछले पांच-छ: वर्षों में युवाओं में शराब पीने की लत में 60 प्रतिशत की वृध्दि हुई है जिस कारण युवाओं द्वारा शराब पीकर गाड़ी चलाने और दुर्घनाओं में मरने वालों की संख्या में वृध्दि हुई है जिनमें बहुत सारे युवक होते हैं।

कर्नाटक के मुख्य मन्त्री श्री बी0 एस0 येदियुरप्पा, जहां यह घटनायें हुईं, ने अपने प्रदेश में पब कल्चर को न पनपने देने का अपना संकल्प दोहराया है।

उधर राजस्थान के कांग्रेसी मुख्य मन्त्री श्री अशोक गहलोत भी इस कल्चर को समाप्त करने में कटिबध्द हैं। इसे राजत्थान की संस्कृति के विरूध्द बताते हुये वह कहते हैं कि वह प्यार के सार्वजनिक प्रदर्शन के विरूध्द हैं। ”लड़के-लड़कियों के सार्वजनिक रूप में एक-दूसरे की बाहें थामें चलना तो शायद एक दर्शक को आनन्ददायक लगे पर वह राजस्थान की संस्कृति के विरूध्द है। श्री गहलोत ने भी इसे बाज़ारू संस्कृति की संज्ञा देते हुये कहा कि शराब बनाने वाली कम्पनियां इस कल्चर को बढ़ावा दे रही है जिन पर वह अंकुश लगायेंगे।

अब तो पब कल्चर ने ‘सब-चलता-है’ मनोवृति व व्यक्तिगत अधिकारों और राष्ट्रीय संस्कृति, संस्कारों और शालीनता के बीच एक लड़ाई ही छेड़ दी है। अब यह निर्णय देश की जनता को करना है कि विजय किसकी हो। ***

Friday, 13 February 2009

यूपीए की असफलताएं (भाग-6)/ गठबंधन नहीं, एक सर्कस

यूपीए गठबंधन के बारे में प्रारंभ में कहा जाता था कि यह एक अप्राकृतिक गठबंधन है। यूपीए गठबंधन का एकमात्र राजनीतिक उद्देश्य था 'भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में नहीं आने देना।' वामपंथी दलों ने इसी आधार पर चार सालों तक नूराकुश्ती के माध्‍यम से जनता को भ्रमित भी किया।

देश की जनता बहुत प्रबुद्ध है, अब वह इन चालों को अच्छी तरह समझ चुकी है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार में न तो कुछ प्रगति दिखाई पड़ रही है और न ही कुछ संयुक्त दिखाई पड़ रहा है। यह विभक्त और प्रगतिहीन गठबंधन का नमूना बन कर रह गया है। यूपीए गठबंधन को जनता का विश्वास तो मिला ही नहीं था, चुनाव के बाद गठबंधन के गुणाभाग से उन्होंने जो कृत्रिम विश्वास पाया भी था उसका भी मान रखने में यह सरकार सफल नहीं रही।

भारतीय जनता पार्टी ने 'गठबंधन का दायित्व' एनडीए की सरकार में जिस तरह निभाया है और वर्तमान में कई राज्यों में निभा रही है, वह भारतीय राजनीति के लिए आदर्श बन चुका है। केंद्र के साथ-साथ राज्य स्तर पर महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ दो दशकों से अधिक, पंजाब में अकाली दल, बिहार में जनता दल (यू) के साथ एक दशक से अधिक और उड़ीसा में बीजू जनता दल के साथ 10 वर्षों से भाजपा का गठबंधन सफलता के साथ चल रहा है। ये सभी गठबंधन भारतीय राजनीति के सबसे स्थायी गठबंधनों में से एक है।

पारस्परिक विश्वास के साथ सामंजस्य बनाते हुए गठबंधन चलाना आसान नहीं होता। भारतीय जनता पार्टी ने 'गठबंधन का दायित्व' एनडीए की सरकार में जिस तरह निभाया है और वर्तमान में कई राज्यों में निभा रही है, वह भारतीय राजनीति के लिए आदर्श बन चुका है। केंद्र के साथ-साथ राज्य स्तर पर महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ दो दशकों से अधिक, पंजाब में अकाली दल, बिहार में जनता दल (यू) के साथ एक दशक से अधिक और उड़ीसा में बीजू जनता दल के साथ 10 वर्षों से भाजपा का गठबंधन सफलता के साथ चल रहा है। ये सभी गठबंधन भारतीय राजनीति के सबसे स्थायी गठबंधनों में से एक है।

यदि यूपीए को संयुक्त मानकर चला जाए तो हमें इस 'संयुक्त' की परिभाषा ही पूरी तरह से बदल देनी होगी। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जिस ढंग से खुलेआम एक दूसरे के खिलाफ बोलते हैं, ऐसी स्थिति में किसी को भी यह शक हो सकता है कि ये यूपीए के भाग हैं अथवा एक दूसरे के विरोधी है। वैसे भी इस गठबंधन की नींव ही मौकापरस्ती पर आधारित है। हर दल अपने-अपने हितों को साधने में लगा है।

यूपीए के अनेक सहयोगी उससे अलग हो गए हैं। बहुजन समाज पार्टी और वामपंथी दल अब उनसे अलग चुके हैं। तेलंगाना ने समर्थन वापस ले लिया। श्री वाइको की पार्टी ने भी यूपीए का साथ छोड़ दिया। लोकदल ने भी पल्ला झाड़ लिया। अत: यह स्पष्ट है कि इन पौने पांच वर्षों में कांग्रेस ने देश की जनता और अपने सहयोगी दल दोनों का विश्वास खोया है।


कांग्रेसनीत यूपीए को देश की जनता पूरी तरह नकार चुकी है। यूपीए व्यावहारिक रूप से संसद में बहुमत खो चुकी है क्योंकि उसके अनेक सहयोगी उससे अलग हो गए हैं। बहुजन समाज पार्टी और वामपंथी दल अब उनसे अलग चुके हैं। तेलंगाना ने समर्थन वापस ले लिया। श्री वाइको की पार्टी ने भी यूपीए का साथ छोड़ दिया। लोकदल ने भी पल्ला झाड़ लिया। अत: यह स्पष्ट है कि इन पौने पांच वर्षों में कांग्रेस ने देश की जनता और अपने सहयोगी दल दोनों का विश्वास खोया है।

यूपीए गठबंधन राजनीति का विचित्र दर्शन पेश कर रहे हैं इसमें विचारों की और क्रियाओं की एकता की बजाय सिर्फ द्वंद और विरोधाभास है। हर दिन मीडिया में रिपोर्टें आती रहती हैं कि वामपंथियों का कोई न कोई घटक सरकार पर न्यूनतम साझा कार्यक्रम से अलग जाता दिखायी पड़ रहा है। यहां तो विचारों की मत-भिन्नता सहमति से कहीं अलग दिखाई पड़ती है।

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कुछ लोग मनमोहन सरकार को एक गठबंधन की सरकार नहीं कहते है बल्कि इसे सर्कस का नाम देते हैं जिसके बहुत से जोकर हैं बल्कि देखा जाये तो यूपीए सर्कस भी नहीं है क्योंकि सर्कस में भी बहुत से पात्र होते हैं जो कम से कम किसी एक के निर्देशन में तो चलते ही हैं। परन्तु यह बात यूपीए के मामले में सही नहीं उतरती है।

लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि होती है। यूपीए सरकार के खिलाफ लोग एकजुट हो रहे हैं। देश में इस गठबंधन एवं सरकार के विरूध्द वातावरण बन चुका है।