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Monday, 3 September 2007

अलगाववाद को बढावा देता अनुच्छेद 370- अरूण जेटली


अनुच्छेद 370 को जम्मू-कश्मीर और भारतीय संघ के बीच एक संवैधानिक अवरोध की संज्ञा दे रहे है भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव व जाने-माने अधिवक्ता श्री अरूण जेटली। श्री जेटली का यह लेख आज के ( 3 सितम्बर, 2007 ) दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ है।

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 का प्रावधान एक दुर्भाग्य है। लोगों को तटस्थता से पुनर्विचार करना चाहिए कि क्या इससे राष्ट्र का भला हुआ है और क्या यह भारत की अखंडता को मजबूती प्रदान करने में सहायक हुआ है? या फिर इसने समस्याओं में इजाफा किया है? पिछले 57 सालों का अनुभव बताता है कि अनुच्छेद 370 की यात्रा अलग दर्जे के बजाय अलगाव की ओर ले जा रही है। अनुच्छेद 370 एक राज्य और भारतीय संघ के बीच एक संवैधानिक अवरोध था और इस रूप में यह बराबर काम करता रहा। उद्यमियों को निवेश से रोककर इसने राज्य के आर्थिक विकास को बाधित कर दिया। 1947-48 में पाकिस्तान ने हमला कर जम्मू-कश्मीर के एक-तिहाई हिस्से पर कब्जा कर लिया था। तब से दो बार 1965 तथा 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो चुके हैं। जब पाकिस्तान को जंच गया कि परंपरागत युद्ध में भारत को हराकर वह पूरे जम्मू-कश्मीर पर कब्जा नहींकर सकता तो आठवें दशक के अंत तक पाकिस्तान ने भारत में आतंकवाद के रूप में छद्म युद्ध शुरू कर दिया, जो अब तक लगातार जारी है। इस प्रयास में वह भारत के और भूभाग पर तो कब्जा नहीं कर पाया, पर अपने एक भाग से हाथ जरूर धो बैठा। अनुच्छेद 370 से आशय निकलता है कि जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि उसके हमारे देश के साथ बस विशेष संबंध हैं। इससे पाकिस्तान और आतंकवादियों, दोनों को यह संदेश मिला कि इसकी पूर्ण अखंडता को रोका जा सकता है। आतंकवाद के माध्यम से अलग दर्जे की ग्रंथि को स्वतंत्र राष्ट्र की मांग के रूप में स्थापित कर दिया। जिन समस्याओं के समाधान के लिए अनुच्छेद 370 लागू किया गया था उनमें से कोई भी हल नहींहुई। अनुच्छेद लागू करने के बाद के ऐतिहासिक घटनाक्रम से यह बात साफ हो जाती है कि इसके प्रावधान समाधान के बजाय खुद ही समस्या हैं। सुरक्षा, विकास, क्षेत्रीय असंतुलन तथा कश्मीरी पंडितों को फिर से जम्मू-कश्मीर में बसाना कश्मीर की बड़ी समस्याएं हैं। इनके अलावा पश्चिम पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करना और उन्हें मुआवजा देना भी उतना ही अहम है। अब सवाल यह उठता है कि क्या अनुच्छेद 370 इन मूल समस्याओं के निराकरण में सहायक है? क्या और अधिक स्वायत्तता देने के लिए अनुच्छेद में परिवर्तन कर राज्य और राष्ट्र के संबंधों को और कमजोर करने से इन समस्याओं का समाधान संभव होगा? इन सब सवालों का एक ही जवाब है-नहीं। भारतीय संविधान का चरित्र संघीय है। केंद्रीय सूची की सातवींअनुसूची में वर्णित शक्तियां केंद्र और संघीय विधायिका के अधीन आती हैं, जबकि राज्य सूची में वर्णित शक्तियां राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में हैं। अनुवर्ती सूची में वर्णित शक्तियां राज्य और राष्ट्र, दोनों के अधिकार क्षेत्र में होती है। जम्मू-कश्मीर के परिप्रेक्ष्य में केंद्रीय सूची को छोटी कर दिया गया है तथा कुछ विशेष अधिकार ही केंद्र ने अपने पास रखे हैं। शेष अधिकार राज्य सूची में डाल दिए हैं। जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में अनुवर्ती सूची का भी अस्तित्व नहीं है। यही नहीं केंद्र द्वारा पारित किए गए कानून भी जम्मू-कश्मीर में स्वत: ही लागू नहीं किए जाते। इन्हें लागू कराने के लिए राज्य सरकार की अनुमति की जरूरत पड़ती है। क्या राज्य की समस्याएं हल करने में विधानमंडल की शक्तियों की कमी आड़े आती है? ऐसा नहीं है। अन्य राज्यों की तुलना में जम्मू-कश्मीर सरकार और विधानमंडल के पास अत्यधिक शक्तियां हैं। भारतीय संविधान का संघीय चरित्र केंद्र के पक्ष में झुका है, किंतु जम्मू-कश्मीर के संबंध में इसका उलटा है। अधिकांश शक्तियां राज्य के पास हैं। क्या इन एकतरफा शक्तियों के कारण देश और देश के बाहर लोगों के एक समूह में अलगाववादी ग्रंथि नहीं पनप रही है? जो लोग अनुच्छेद 370 के संबंध में यथास्थिति बनाए रखने या फिर इसमें और अधिक ढील दिए जाने की वकालत कर रहे हैं, उनकी मंशा राज्य की समस्याओं को दूर करना नहींहै, बल्कि लोगों की भावनाओं को भड़काकर अलग दर्जे के अलगाववाद की नई ग्रंथि विकसित करना है। इतिहास ऐसे लोगों को नहींबख्शेगा। हमें इतिहास के सबक भूलने नहीं चाहिए। अनुच्छेद 370 अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष प्रावधान से संबद्ध है। इस अनुच्छेद के चौतरफा विरोध के जवाब में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने संक्रमणकालीन पहलू पर जोर देते हुए कहा था कि यह घिसते-घिसते घिस जाएगा। आने वाली घटनाओं ने जवाहरलाल नेहरू का बयान को झुठला दिया है। ये प्रावधान खत्म नहीं किए गए। अब न केवल इनको स्थायी करने की मांग उठ रही है, बल्कि केंद्र और राज्य के संबंधों को और कमजोर करने की मांग भी उठ रही है। ये सब प्रस्ताव राज्य और राष्ट्र के संबंधों को प्रगाढ़ नहींकरते, बल्कि इसके विपरीत ये इन संबंधों को समग्र रूप में नष्ट कर देते हैं। भेदभाव जम्मू-कश्मीर व अन्य प्रदेशों के बीच ही नहीं, जम्मू-कश्मीर के विभिन्न इलाकों के बीच भी है। जम्मू-कश्मीर में जम्मू, कश्मीर और लद्दाख प्रमुख इलाके हैं। स्वतंत्रता के बाद से सरकार में जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों की भागीदारी सीमित रही है। कश्मीर घाटी के मुकाबले जम्मू की आबादी अधिक होने के बावजूद राज्य में तैनात 4.5 लाख सरकारी कर्मचारियों में से 3.3 लाख कश्मीर घाटी के हैं। विधानसभा में कश्मीर क्षेत्र से 46 सदस्य और जम्मू क्षेत्र से 37 सदस्य चुने जाते हैं। लद्दाख से चुने जाने वाले सदस्यों की संख्या कुल चार है। जहां तक विकास कार्यों की बात है, इसमें भी जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों के साथ भेदभाव किया जाता है। भेदभाव समाप्त करने के लिए जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों के लिए विकेंद्रित शासन पद्धति अपनाई जानी चाहिए। इसका एक विकल्प इन दोनों क्षेत्रों में प्रोविंशियल काउंसिलों का गठन हो सकता है। विकास कार्यों के मद्देनजर इन काउंसिलों के हाथ में वित्त और न्यायिक शक्तियां होनी चाहिए।

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