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Thursday, 20 September 2007

अतीत भंजक कांग्रेस

लेखक राजनाथ्‍ा सिंह सूर्य

राम के अस्तित्व को नकारने वाले शपथपत्र पर तीखी आलोचना झेलने के बाद कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार उसे वापस लेने के अपने निर्णय को भले ही क्षतिपूर्ति के रूप में देखे, लेकिन इस प्रकरण से उसे राम की शक्ति और पैठ का अहसास जरूर हो गया होगा। यह हास्यास्पद है कि कांग्रेस ने अपने सहयोगियों सहित न केवल रामधुन छेड़ दी है, बल्कि प्रबंधन पाठ्यक्रम में राम के विचार शामिल करने का निश्चय किया है। संप्रग सरकार हिंदू भावनाओं को आघात पहुंचाने वाले इस घटनाक्रम से यह कहकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती कि पुरातत्व विभाग के कुछ अधिकारियों की गलती से यह घटना हुई। यह इस बात का द्योतक है कि देश के मान बिंदुओं, आस्था केंद्रों और प्राणवायु के समान जीवनदाता महापुरुषों के बारे में कथित सेकुलर सरकार की सोच कितनी सतही है।

यदि सेकुलर सोच और संदर्भ में सरकार की आदत की समीक्षा की जाए तो यही कहा जा सकता है कि भारतीय अतीत के प्रति पाश्चात्य शोधकर्ताओं ने जो कुत्सित विचार प्रकट किए हैं उनका इस सरकार पर पूरा प्रभाव है, अन्यथा कोई कारण नहीं था कि शपथपत्र में राम के अस्तित्व को नकारने वाला अंश शामिल किया जाता। यह अंश शामिल करना उस सोच का ही विस्तार है जिसे इसी महीने के प्रारंभ में लखनऊ में बिना प्रसंग के वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने यह कहकर प्रगट किया था कि जिन पुस्तकों में लिखा है कि भारत कभी सोने की चिड़िया था या यहां दूध-दही की नदियां बहती थीं उन्हे फाड़कर फेंक देना चाहिए। हिंदू हित विरोधी सेकुलर सोच के और भी बहुत से प्रसंग हैं। जो शपथपत्र सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल किया गया उसे सांस्कृतिक मंत्रालय के अधीन पुरातत्व विभाग ने तैयार किया था और न्यायालय में कोई भी शपथपत्र बिना कानून मंत्रालय की समीक्षा के दाखिल नहीं किया जाता। दोनों ही मंत्रालयों के मंत्री कांग्रेसी है और उनकी पहचान सोनिया गांधी के करीबी लोगों के रूप में है। विचित्र है कि शपथपत्र मामले में अब कांग्रेस के मंत्रियों में ही घमासान आरंभ हो गया है। वास्तव में राम के अस्तित्व को नकारने से हिंदू समाज में जो नाराजगी पैदा हुई उसने आम कांग्रेसियों के मन में आगामी चुनाव में 1977 की हार की पुनरावृत्ति होने का भय भर दिया है। शपथपत्र दाखिल करने के दूसरे ही दिन एक लेख में डा. कर्ण सिंह ने इस ओर इशारा भी कियाब्‍ रामसेतु आम आदमी की आस्था के सम्मान के लिए कांग्रेस को विवश करने का कारण बना है, लेकिन इस कदम को एडवांटेज सोनिया गांधी के रूप व्याख्यायित करने का प्रयास क्या कांग्रेस को वांछित सफलता दिला सकेगा।

यदि शपथपत्र की वापसी एडवांटेज सोनिया गांधी है तो फिर नुकसान में कौन है। क्या संप्रग सरकार जिसकी ओर से यह शपथपत्र दाखिल किया गया था या फिर एक ब्यूरोक्रेट की तरह आचरण कर रहे प्रधानमंत्री, जो हर ऐसे विवाद के बाद मौन हो जाते है। राम हमारे रोम-रोम में बसे है। यह बात अमेरिका यूरोप या रोम वाले भले न समझें, लेकिन प्रत्येक भारतीय समझता है। यही कारण है कि महात्मा गांधी ने रामराज्य को आदर्श और रामधुन को प्रेरणा का स्त्रोत माना था। कांग्रेस गांधी के रामराज्य और रामधुन के महत्व को वर्षो पहले भुला चुकी है। इसीलिए इस प्रकरण में चारों खाने चित्त हो जाने के उपरांत उसने शपथपत्र वापसी के लिए सोनिया गांधी को श्रेय देने का राग छेड़ दिया। यह प्रचारित किया जा रहा है कि राम के अस्तित्व को नकारने वाला शपथपत्र अदालत में प्रस्तुत होने से सोनिया गांधी बहुत नाराज है और उन्होंने तुरंत गलती सुधारने के निर्देश दिए। कुछ कांग्रेसी इस प्रचार में जुट गए हैं कि शपथपत्र वापस लेकर कांग्रेस ने भाजपा से पहल छीन ली है। देश की किसी समस्या का आकलन क्या इस प्रकार पहल छीन लेने के आधार पर किया जाना सम्यक सोच कही जा सकती है। जो सरकार स्वतंत्रता संग्राम के महारथी वीर सावरकर के गौरव को अंडमान के सेलुलर जेल से उखाड़ फेंक चुकी है,जो पाठ्य पुस्तकों को मैकाले की इस अवधारणा के आधार पर तैयार कर चुकी है कि वेद चरवाहों के गीत भर हैं जो भगवान राम का मखौल उड़ाने वाली संस्थाओं को अयोध्या में प्रदर्शनी लगाने के लिए अनुदान देती है, जिसने देश की 85 प्रतिशत आबादी की परवाह किए बिना देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का बता दिया है, जिसने आजादी के बाद भारत विभाजन करने वाली मुस्लिम लीग को अपने मंत्रिमंडल में जगह दी वह सेतु समुद्रम परियोजना का उद्घाटन करने के बाद यदि पीछे हटी है तो उसका कारण राम की शक्ति है। भारत के अतीत के प्रति उस कांग्रेस से आस्थावान होने की कैसे अपेक्षा की जा सकती है जो खुद अपने ही निकट के अतीत के प्रति आस्थावान नहीं रही है।

कांग्रेस किसी आदर्श का प्रतीक नहीं रह गई है। उसे तो कांग्रेस में भी विश्वास नहीं रहा। राजीव गांधी हत्याकांड की जांच के लिए गठित जैन आयोग ने इस मामले में द्रमुक की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगाया था। उस समय कांग्रेस के समर्थन से इंद्रकुमार गुजराल सरकार केंद्र में थी, जिसमें द्रमुक के मंत्री भी शामिल थे। कांग्रेस ने उनको निकाल देने का फरमान जारी किया और न मानने पर गुजराल सरकार गिरा दी। आज वही द्रमुक न केवल केंद्र में कांग्रेस के साथ है, बल्कि अपने मनमाफिक विभाग पर कब्जा भी किए हुए है। जहाजरानी विभाग भी उसमें एक है, क्योंकि सेतु समुद्रम परियोजना इसी विभाग की देखरेख में पूरी की जानी है। द्रमुक के टीआर बालू गुजराल सरकार में भी इसी विभाग के मंत्री थे और आज भी है। सेतु समुद्रम डीएमके की साख से जुड़ी परियोजना है, इसीलिए अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में भी इसका परीक्षण कराया गया था। समीक्षा समिति ने छह मार्ग सुझाए थे जिनमें वे मार्ग भी शामिल थे जिनसे रामसेतु को कोई हानि नहीं पहुंचती। किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पूर्व सरकार चली गई।

सेतु समुद्रम परियोजना के संदर्भ में भाजपा क्या जवाब देगी या दे रही है, यह भाजपा को सोचना है, लेकिन देश की जनता को सोचने का मुद्दा तो शपथपत्र से मिल ही गया। जनता की जरा सी नाराजगी से संप्रग सरकार यदि बैकफुट पर आ गई है तो उसकी हुंकार मात्र का क्या परिणाम हो सकता है, यह समझने की आवश्यकता है। कांग्रेस वोट बैंक खिसकने के डर से चिंतित है। इसी के वशीभूत होकर इंदिरा गांधी ने 1983 में रामजन्मभूमि का ताला खोलने की पहल की थी। आश्चर्य नहीं होगा यदि तीन महीने बाद सर्वोच्च न्यायालय में जो शपथ पत्र दाखिल किया जाए उसमें सेतु समुद्रम परियोजना को कुछ और समय के लिए लंबित कर दिया जाए, क्योंकि तब भी लोकसभा के चुनाव शेष रहेंगे। नि:संदेह इस घटना ने जनता को उसकी शक्ति का संज्ञान कराने का काम किया है। आजादी के बाद से सेकुलरिज्म के नाम पर उन आस्थाओं पर निरंतर प्रहार हो रहा है जिनके सहारे हमारे समाज ने कभी अपनी हस्ती पर आंच नहीं आने दी। सहिष्णुता के नाम पर आघात पर आघात सहते रहने के अभ्यास को अब विराम देने का समय आ गया है।

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