लेखक- दीनानाथ मिश्र
पश्चिम बंगाल के माक्र्सवादी मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टचार्य ने कहा है कि ''मैं अंध-अमेरिका विरोध में विश्वास नहीं करता। समय के साथ हम बदलते हैं। हम अपनी सोच भी बदलते हैं। और अगर परिवर्तन करना लोगों के हित में है तो हम भी क्यों न बदलें?'' दिग्गज माक्र्सवादी नेता बुध्ददेव भट्टाचार्य के ये विचार बहुत महत्वपूर्ण हो जाते, जबकि पार्टी के महासचिव प्रकाश कारत अमेरिका के प्रति धर्मान्ध विरोध पर अड़े हुए हैं।
यद्यपि बुध्ददेव का यह बयान अमेरिका से आणविक ईंधन से सम्बंधित समझौते के संदर्भ में नहीं है। मगर राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोग जानते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियां और वाममोर्चा कठमुल्लों की तरह अमेरिका विरोधी विचार रखते रहे हैं। यह केवल परमाणु करार 123 से सम्बंधित हाल में आए घोर अमेरिका विरोधी बयान की बात नहीं है। शीत युध्द के दिनों में जब विश्व अमेरिका और रूस के दो ध्रुवों में टकराव देख रहा था तब से वामपंथियों के विचार सोवियत समर्थक और अमेरिका विरोधी रहे हैं। वह अमेरिका के लिए पूंजीवादी, साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, नव उपनिवेशवादी जैसे शब्दों का प्रयोग करते रहे हैं। और इस समय जब माक्र्सवादी पार्टी के महासचिव प्रकाश कारत ने अपनी पुरानी लाइन पर अड़े रहने वाले बयानों की झड़ी लगा रखी हो ऐसे में बुध्ददेव भट्टाचार्य का उक्त बयान कारत और पार्टी को चुनौती देने वाला भाषित होता है। इसलिए भी यह बयान बहुत महत्वपूर्ण है।
पिछले दो-तीन महीनों से माक्र्सवादी पार्टी के अंदर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार को परमाणु करार के सवाल पर गिराने या नहीं गिराने को लेकर बहस चल रही है। और कम्युनिस्ट पार्टियां इस सवाल पर सरकार को गिराने की गरम-नरम धमकियां देते रहे हैं। संयुक्त प्रगतिशील की जान अटकी हुई है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कब तक बर्दाश्त करते। उन्होंने भी एक अवसर पर कह दिया कि समर्थन वापस लेना हो तो ले लें। देश में राजनैतिक अस्थिरता का माहौल बन गया है। बाजार प्रभावित होने लगे। साथी दल चुनाव की तैयारी में लग गए। इससे समझा जा सकता है कि देश में राजनैतिक अस्थिरता किस धरातल पर पहुंच गई है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का बेड़ा राजनैतिक हिलोरों में अब डूबा, तब डूबा की हालत में पहुंच गया। ऐसे में बुध्ददेव भट्टाचार्य का यह बयान बहुत अहम अर्थ वाला हैं और यह पार्टी के भीतर उथल पुथल का भी द्योतक है।
पश्चिम बंगाल के ही पूर्व मुख्यमंत्री ज्योतिबसु सीधे-सीधे तो बुध्ददेव जैसी लाइन नहीं ली लेकिन वह इतना जरूर कहते रहे हैं कि मध्यावधि चुनाव नहीं होंगे। हमारी पार्टी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के साथ बातचीत करती रहेगी और कोई न कोई रास्ता निकलेगा। बुध्ददेव भट्टाचार्य का उक्त बयान अपने में एक गाली समेटे हुए है। अमेरिका विरोधवाद का, जिसको और कड़ी भाषा में कहा जाए तो कठमुल्लापन कह सकते हैं। जहां तक माक्र्सवादी पार्टी के वर्तमान नेतृत्व का सवाल है, प्रकाश कारत घनघोर और कट्टर विचारधारा के नेता माने जाते हैं। दूसरा संयोग यह है कि माक्र्सवादी पार्टी पर आज केरल का गु्रप हॉवी है। इसे समझने के लिए माक्र्सवादी पार्टी के नीति नियामक निकायों को समझना होगा। सर्वोच्च निकाय 17 सदस्यी पोलित ब्यूरो है। और दूसरी निकाय केन्द्रीय समिति है। इसमें 79 सदस्य होते हैं। पोलित ब्यूरो में 17 में से 5 सदस्य पश्चिम बंगाल के थे। उसमें पश्चिम बंगाल के राज्य सचिव अनिल विश्वास और सीटू के महासचिव चित्रव्रत मजुमदार का निधन हो गया। पश्चिम बंगाल के प्रभावी सदस्यता 5 से घटकर तीन हो गई है। इसीलिए प्रकाश कारत पोलित ब्यूरो में अपना दबदबा बनाए हुए हैं। केरल का गु्रप हॉवी है। पोलित ब्यूरो में प्रकाश कारत की पत्नी बृंदा कारत भी हैं। अलबत्ता केन्द्रीय समिति में पश्चिम बंगाल के पन्द्रह-सोलह सदस्य हैं। मगर पोलित ब्यूरो सभी बड़े निर्णयों में निर्णायक होता है। इसी फैसले के कारण ज्योति बसु प्रधानतंत्री बनते-बनते रह गए थे। जिसे उन्होंने ऐतिहासिक भूल बताया था। इसी निकाय की भूल के कारण संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में माक्र्सवादी पार्टी और वाममोर्चा सरकार में सम्मिलित नहीं हुए थे।
पार्टी के महासचिव प्रकाश कारत ने जिस दिन केन्द्रीय सरकार को भारत-अमेरिका समझौते के 6 महीने के लिए टालने का सुझाव दिया, उसके दूसरे दिन ही ज्योति बसु की यह नसीहत आना कि अंध अमेरिका विरोधवाद के वह कायल नहीं हैं। भले ही वह अपने बारे में कह रहे थे। लेकिन वह न केवल एक महत्वपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री हैं बल्कि पोलित ब्यूरो के सदस्य भी हैं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उसका विषय अमेरिका के प्रति रूख ही है जो अमेरिका पार्टी की निगाह में शत्रु रहा है। इस अमेरिका विरोधी नीति पद से पार्टी अपने पूरे इतिहास में कभी विचलित नहीं हुई। बुध्ददेव भट्टाचार्य के इस बयान के गर्भ में गम्भीर परिवर्तन के संकेत हैं अमेरिका के साथ परमाणु करार के प्रबल विरोध का एक कारण तो अमेरिका के प्रति पार्टी का परम्परागत रवैया रहा है।
मगर दूसरा उतना ही महत्वपूर्ण कारण चीन परस्ती भी रहा है। कम्युनिस्ट पार्टियां हमेशा राष्ट्रहित के बजाए अन्तर्राष्ट्रीय नजरिए से सोचती नहीं हैं। उनके लिए राष्ट्रयी हित गौण है। और अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिज्म मे हित प्रमुख हैं। आज कम्युनिस्ट विश्व का नेता निसंदेह चीन है। और जहां तक माक्र्सवादी पार्टी का सवाल है उसका चीन से जुड़ाव जन्मजात है। इसी सवाल पर पार्टी टूटी थी। सोवियत संघ के समर्थक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अलग हो गई है और चीन समर्थित माक्र्सवादी पार्टी अलग हो गई। चीन ने भारत पर हमला किया था तो माक्र्सवादी नताओं के प्रभाव में ही पार्टी ने चीन को हमलावर मानने से इनकार किया और भारत को ही हमलावर बताया। पिछले महीने से चीन के अरूणाचल पर दावे की चर्चा चलती रही है। चीनी सरकार के प्रतिनिधि भारत आकर खुलकर यह सवाल खड़ा करते रहे हैं। अभी कुछ महीने पहले ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में माक्र्सवादी पार्टी के छात्र संगठन ने प्रकारांतर से अरूणाचल पर चीनी दावे को सही बताया। आज जब परमाणु करार पर टकराव की स्थिति पैदा हुई है तो उसकी पृष्ठभूमि में भी पार्टी की चीनपरस्ती ही बोल रही है। अब जरा हम बुध्ददेव भट्टाचार्य के बयान को फिर से एक बार देखें। वह कहते हैं- समय बदलता है, सोच बदलती है, नीतियां बदलती हैं, तो हम क्याें न बदलें? उन्होंने यह भी कहा कि हमें अमेरिकी निवेश की शिक्षा आईटी आदि क्षेत्रों में जरूरत है।
यह स्मरणीय है कि पश्चिम बंगाल के उद्योग सचिव पश्चिम बंगाल में निवेश के लिए अमेरिकी यात्रा कर रहे थे। उन्होंने तर्क देते हुए यहां तक कह दिया कि आज वियतनाम जैसा कम्युनिस्ट देश भी अमेरिकी मदद ले रहा है। हालांकि तर्क पश्चिम बंगाल के आर्थिक हित का दिया गया। लेकिन स्थानीय हित को अन्तर्राष्ट्रीय हित के ऊपर महत्व दिया गया है। यह रास्ता प्रदेश से राष्ट्रीय हित की ओर जाता है। और इसीलिए मैं कहता हूं कि माक्र्सवादी पार्टी में गम्भीर मतभेद पनप रहे हैं। मैं उस तरह के मतभेदों की बात नहीं कर रहा जिससे माक्र्सवादी पार्टी की केरल इकाई गृहकलह में उलझी हुई है। एक तरफ मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंद हैं और दूसरी तरफ पिनरई विजयन हैं। दोनों का संघर्ष कार्यकर्ताओं के स्तर पर भी हिंसक संघर्ष की नौबत आ जाना माक्र्सवादी पार्टी के लिए तो सोचनीय है ही। पार्टी महासचिव प्रकाश कारत ने दोनों पोलित ब्यूरो सदस्यों को अनुशासनहीनता के सवाल पर निलंवित कर दिया। भले ही केरल की इकाई के इन झगड़ों को नरमपंथी गरमपंथी या कोई और नाम क्यों न दिया जाए या कोई वैचारिक मुलम्मा क्यों न चढ़ाया जाए।
मूल में यह व्यक्तिवादी झगड़े हैं लेकिन बुध्ददेव भट्टाचार्य का बयान जिस बदलाव का संकेत दे रहा है यह माक्र्सवादी पार्टी की आधारभूत सोच को बदलने की दिशा में संकेत देता है। भले ही महासचिव बनकर प्रकाश कारत पार्टी के वैचारिक अधिष्ठान की कितनी ही कड़ाई से पहरेदारी करें, लेकिन पार्टी में एक गम्भीर विभाजन प्रवृति साफ साफ नजर आ रही है। क्योंकि बुध्ददेव भट्टाचार्य ने इस तरह के बयान पहली बार नहीं दिए हैं। पार्टी तो बीसियों साल तक सड़कों पर पूंजीवाद हाय-हाय, टाटा बिरला मुर्दाबाद, का नारा भी लगाया करती थी। लेकिन बुध्ददेव भट्टाचार्य उन्हीं टाटा, बिरला के लिऐ पलक पांवड़े बिछा दिए। आर्थिक सुधारों के लिए भी तरफदारी की। जिसका केन्द्रीय स्तर पर आज भी पार्टी जमकर विरोध कर रही है। या तो नन्दीग्राम और सिंगूर की घटनाओं के कारण बुध्ददेव भट्टाचार्य उस दिशा में सरपट नहीं दौड़ सके। लेकिन आज भी वह जुटे हुए जरूर हैं। पार्टी अपनी लकीर के फकीर की नीति के कारण चीन-परस्ती की लाइन लेकर भारत अमेरिकी करार पर तरह तरह के तर्कजाल बुन रही है।
विश्व पटल पर अगर हम देखें चाहे बड़ी शक्ति हो या छोटी शक्ति, सब अपने राष्ट्रीय हित की तरफ बढ़ रहे हैं। अबने वर्चस्व की लड़ाई भी लड़ रहे हैं। वर्चस्व की लड़ाई में अमेरिका सबसे आगे है। चीन भी अमेरिका की तरह एक ध्रुव बन कर उभरना चाहता है। भारत के चारों तरफ नाकेबंदी को मजबूत करता रहा है। यहां तक कि रूस सोवियत संघ के ध्वस्त होने के बावजूद झटके से उबरने की कोशिश कर रहा है। बदलते परिदृश्य में भारत के राष्ट्रीय हितों की मांग है कि हित रक्षा करते हुए चीन के बढ़ते खतरों से सचेत रहें और इसीलिए माक्र्सवादी पार्टी की तरह राष्ट्रवादी खेमे में अंध-अमेरिकी विरोध वाला रास्ता नहीं अपनाया। बल्कि सावधानी रखते हुए अमेरिका की तरफ भी हाथ बढ़ाया। कदाचित बुध्ददेव भट्टाचार्य की भी यही मंशा हो। लेकिन उनकी इकलौती मंशा से क्या होता है? अभी तो प्रकाश कारत जैसे कठमुल्लों का पार्टी में बोलबाला है।
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