लेखक-हरिकृष्ण निगम
हाल की राष्ट्रसंघ की एक गोपनीय रिपोर्ट के अनुसार भारत की देश के अंदर फैले आतंकवाद से लड़ने की क्षमता आज न्यूनतम है क्योंकि देश की सरकार की इस विकट समस्या से जूझने की न तो कोई सुनियोजित रणनीति है और न ही मनोबल।
यह खुलासा राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद द्वारा गठित आतंकवाद विरोधी समिति की एक गोपनीय रिपोर्ट के प्रारूप द्वारा हाल में किया गया है, जो किसी को भी चौंका सकता है। हमारे देश में आतंकवादियों द्वारा पिछले लगभग 15 वर्षों में लाखों जानें ली जा चुकी हैं पर ऐसा लगता है कि भारतीयों के जीवन का कोई मूल्य नहीं है। न तो सरकार में दृढ़ता है और न ही न्यायिक प्रक्रिया त्वरित निर्णय लेने के अनुरूप है और न ही अधिकांश राजनीतिक दलों के नेता इस विषय को गंभीरता से ले सके हैं। यह भी आरोप लगाया गया है कि हमारा सरकारी ढांचा या शासनतंत्र देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए कोई प्रभावी व दूरगामी नीति नहीं बना सका है। औरतों और देश के मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी हर आतंकवादी हादसे के बाद इन अपराधों के शिकार हुए लोगों या उनके परिवार से सहानुभूमि दिखाने के स्थान पर आतंकवादियों के मानवाधिकार का मुखर समर्थन ही नहीं उन्हें महिमामण्डित भी करता है। साफ है कि आतंकवाद की जड़ों की तलाश के बहाने आतंकवादियों का खुलकर पक्ष लिया जाता है।
स्पष्ट है कि आज हमारी सरकार की आतंकवाद से लड़ने की नाकामी ने हमें 'सॉफ्ट स्टेट' या पूरी व्यवस्था को 'पिलपिला और अक्षम' बना दिया है। मज़े की बात है कि उपर्युक्त रिपोर्ट इसी जुलाई 2007 में भारत सरकार को सौंपी जा चुकी है।
यदि देश में आतंकवादी हमलों में मरने वालों की संख्या पर ही जाएं तो विश्व के रंगमंच पर भारत ही ऐसा देश है जो आतंकवाद का पहले नंबर का सबसे बड़ा क्षेत्र है। एक अनुमान के अनुसार जम्मू कश्मीर सहित देश में पिछले कुछ वर्षों में 70,000 लोग मारे जा चुके हैं और इतने ही हताहत हो चुके हैं। हम भूल रहे हैं कि जब मुंबई में 1992 में बम विस्फोटों की श्रृंखला को अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के साथ-साथ दुनिया भर के विख्यात जोखिम प्रबंधन के विश्लेषकों ने इसे तब तक का 'सर्वाधिक भयावह-निर्मित शहरी आतंकवादी हादसे की संज्ञा दी थी।'
आज राष्ट्रसंघ की 'काऊंटर टेरिरिज्म कमेटी' 9/11 के विमानों द्वारा आत्मघाती बमबारों द्वारा न्यूयार्क के विश्वव्यापार केन्द्र को ध्वस्त करने के बाद से हर तिमाही दुनिया की स्थिति की पुनर्वीक्षा करती है। हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि चाहे राष्ट्रप्रेमी बुध्दिजीवी हों, सुरक्षा विशेषज्ञ हों या सुरक्षा एजेंसियाँ उनका मनोबल तोड़ने के लिए उन्हें कथित सेकुलरवादी 'दक्षिणपंथी' या 'अल्पसंख्यक विरोधी' कहकर हतोत्साहित करने की कोशिश करते हैं। हमारी सरकार व मीडिया के एक बड़े वर्ग की यह आपराधिक नादानी लगती है।
हमारे कानूनों की प्रक्रिया भी ऐसी है कि आतंकवादी हादसों के आरोपियों को सजा दिलवाने में 15-20 वर्ष भी लग जाते हैं। हमारी आज स्थिति है कि राष्ट्रसंघ की समितियाँ कई बार कह चुकी हैं कि आतंकवादियों को घर व अन्य संसाधन मुहैया कराने वालों को नियंत्रित करने में भारत के कानून सक्षम नहीं है। राष्ट्रसंघ का एक चर्चित संकल्प क्र. 1373 जो 9/11 के हादसे के बाद आतंकवाद पर अंकुश लगाने के लिए पारित हुआ था और सभी सदस्य देशों पर लागू है हमारे देश में अनदेखा कर दिया गया। राष्ट्रसंघ की समिति ने दो टूक शब्दों में कहा है-भारत में आतंकवादियों को अनेक अनौपचारिक श्रोतों से धन मिल रहा है, जो चाहे 'हवाला' की चैनल हों, जाली भारतीय करेंसी नोटों का बड़े स्तर पर लाना हो या नशीले पदार्थों की तस्करी हो। पर यह चिंता का विषय है कि भारत सरकार के पास इस पर रोक लगाने की कोई प्रभावी नीति नहीं है।
हमारे देश में वर्तमान कानूनों को लागू कराने की भी कोई सन्नध्दता या तैयारी नहीं है क्योंकि अधिकांश राजनेता भ्रष्ट भी हैं और उनमें आतंकवाद से न तो लड़ने का इरादा है और न ही साहस। सिर्फ ऊपरी दिखावे के लिए वे घड़ियाली आंसू बहाते हैं और अपने वोट बैंक को संवारने के लिए सेकुलरवादी ढोंग रचते हैं। यद्यपि यह भी सच है कि हम पश्चिमी देशों व अमेरिका की तरह हिंसा, अपराध, मादक व द्रव्यों की तस्करी व आतंकवाद के कारण से जांच के घेरे में आए लोगों का जातीय या धार्मिक वर्गीकरण नहीं कर सकते, पर निष्पक्ष व असंप्रक्त होकर ऐसे तत्वों का 'डेटाबेस ' तैयार करना भी विषाक्त राजनीतिक माहौल या तुष्टीकरण की नीति के कारण संभव नहीं है। राष्ट्रसंघ ने यह भी स्पष्ट कहा है कि समिति की रिपोर्ट के अनुसार केन्द्र की खुफिया एजेंसियों या सुरक्षा संगठनाें के काम में राज्य सरकारों या पूर्वाग्रह युक्त मंत्रियों द्वारा अनपेक्षित हस्तक्षेप करना आम बात है। यदि राज्य सरकार के प्रभावशाली नेताओं में ही अपने वोट बैंक के कारण दुराग्रही दृष्टि होगी तो आंतरिक सुरक्षा-होमलैण्ड सिक्यूरिटी की बात भी एक मखौल बन सकती है। इसी रिपोर्ट के अनुसार चाहे नेपाल हो या बंगलादेश बाहरी नागरिकों का देश में अवैध प्रवेश या मानव तस्करी भारत में आम बात है और उनको यदा कदा राजनीतिक संरक्षण भी मिलता है जो देश के लिए घातक सिध्द हो सकता है। आज भी देश में प्रवेश करने वाले लोगों की गुमशुदगी, चोरी गए अथवा खोए हुए पासपोर्टों की वर्तमान उपलब्ध सूचनाएं 'इंटरपोल' तक पहुंचाने का कोई प्रावधान नहीं है। देश में कोई ऐसा कानून नहीं है जिससे 'इलेक्ट्रॉनिक सर्विलेंस' को गुप्त रखा जा सके और किसी भी कार्यक्रम जो सुरक्षा एजेंसियां चलाती हैं उसकी गोपनीयता बरकरार रखी जा सके। आतंकवाद संबंधी समस्या अधिनियम बहुत पुराने हैं और उनमें कोई दम नहीं है। समग्र व प्रभावी तात्कालिक रणनीति के अभाव में देश की 15,100 किमी लंबी जमीनी सीमा और 7500 किलोमीटर की समुद्र तटीय क्षेत्र हमारी लापरवाही के कारण असुरक्षित हैं। आज के 76 सीमावर्ती क्षेत्रों की चौकियों में मात्र 33 ऐसी हैं जहाँ कम्प्यूटरों का प्रयोग होता है और यह स्थिति आतंकवादियों के लिए खुला आमंत्रण है।
चाहे नक्सलवादी हिंसा हो या आतंकवादियों की घुसपैठ यदि हमारी स्वयं की दृष्टि व प्रकृति शुतुर्मुगी हो तब इस देश की रक्षा करना मुश्किल है। बिहार में तो अब तक माओ कम्युनिस्ट सेंटर जैसी देशद्रोही सत्तारूढ़ राजद सरकार की सहयोगी पार्टी थी। आंध्र में कई बार स्वयं राज्य सरकार युध्द विराम के नाम पर स्थानीय अवैधानिक तत्वों से वार्ता करती थी। उसके ऊपर सशक्त पर दिशाहीन अंग्रेजी मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा आतंकवादियों के लिए मानवाधिकार के नाम पर अपने पृष्ठ खोल देना आज सुरक्षा को ध्वस्त करने वाला घातक कदम सिध्द हो सकता है। कश्मीर से हिन्दुओं का पलायन, उत्तरपूर्व में क्षत-विक्षत होते हुए मानचित्र के बावजूद तावांग को देने का समर्थन, हर आतंकवादी हादसे में, घर में छिपे दुश्मनों को पहचानने की जगह मात्र मिनटों में पाकिस्तान को दोष देने की घोषणाएं यह सब हमारे कथित बुध्दिजीवियों की धोखाधड़ी को कई बार सिध्द कर चुका है।
आज विश्वस्तर पर अनेक देश जो कर रहे हैं वह हमें भी करना होगा। चाहे, बाली हो या मेड्रिड, लंदन हो या जर्मनी व डेनमार्क के कुछ शहर, वहां भी आतंकवादी हादसों के बाद जो कदम लिए गए वैसा ही हमें करना होगा। क्या अमेरिका, इंग्लैण्ड' आस्ट्रेलिया, स्पेन और फ्रांस परिपक्व प्रजातंत्र नहीं है? अपने लोकतंत्र की रक्षा व नागरिकों की सुरक्षा के लिए यदि वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं, तो हम क्यों नहीं? इन सभी देशों से अधिक मरने वालों की संख्या भारत में रही हैं, पर हमारे राजनीतिज्ञ हमें सुलाये रखने की कला में माहिर हैं? जो इनके विरूध्द आवाज उठाता है उसे वे 'साम्प्रदायिक' या 'दक्षिणपंथी' कहकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। आज हमें अपनी प्राथमिकताएं बदलकर ऐसे देशविरोधियों का पर्दाफाश करना जरूरी है जो एक 'वृंदवादन' के रूप में नकली सेकुलरिज्म की आड़ में देश को तोड़ने वालों की साजिश में जाने-अनजाने मोहरे बने हुए हैं।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)
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