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Tuesday, 11 September 2007

हिन्दी भाषियों की हत्या, अंग्रेजी की गुलामी!

हिन्दी दिवस (14 सितम्बर) पर देश का हाल यह है- डा. नताशा अरोड़ा

सावन-भादों के इस मौसम में, जब कजरियों की मधुर लहरियां मधुर रस घोलती हैं, एक ऐसा दिवस आता है जो हमारी पहचान से जुड़ा है। अनेकानेक आयोजनों की तैयारी चल रही है, पत्र-पत्रिकाएं विशिष्ट सामग्री चयन में जुट गई हैं। दूसरी ओर इसी शस्य श्यामला भूमि पर अपनी अस्मिता की प्रतीक राष्ट्र भाषा हिन्दी बोलने वालों की हत्या की जा रही है। ऐसा तो उस क्रूर बर्तानवी शासन ने भी नहीं किया था। ऐसा क्यों हो रहा है? जन-जन की भाषा कहलाने वाली हिन्दी को सहेजने में हम कहां राह भटक गए हैं? उत्तर तो खोजने ही होंगे।

इतिहास सदैव मार्गदर्शन करता है। हर देश की अपनी अनेक बोलियां होती हैं। अपने यहां कहावत भी है, 'कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बदले बानी'। फिर भी प्रत्येक देश की अपनी एक भाषा ऐसी होती है जो उसे एक सूत्र में पिरोए रखती है, जो उसका गौरव, मान-सम्मान होती है। बोलियों की माला के रंग-बिरंगे मनके उसके सौंदर्य में चार चांद तभी लगा पाते हैं जब एक भाषा का सूत्र उसे एक साथ पिरो देता है। हिन्दी भाषा वही सूत्र है जिसने राष्ट्र भाषा पद पर आसीन होने में एक लम्बी यात्रा तय की है। आज समय है कि हम यात्रा की चंद भूली-बिसरी यादों को ताजा करें।

किसी भी देश के लिए अपनी ऐसी भाषा की अनिवार्यता होती ही है जो अधिकांश जन बोलते-समझते हों। जो उस देश की संस्कृति की सूचक हो, उसका अंश हो अर्थात् जिसने उसी भूमि पर जन्म लिया हो। अतीत में हमारी ऐसी ही भाषा संस्कृत थी, जिसकी देवनागरी लिपि इस विशाल भूमि की लगभग सभी स्थानीय भाषाओं-बोलियों में स्वीकृत थी, भले ही उसके स्वरूप स्थानीय रंग लिए हुए थे। बीते युग में संस्कृत भाषा की ऐसी स्वीकृति निर्विवाद ही रही, यहां तक कि आज भी सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति की प्राण वायु संस्कृत साहित्य का विपुल भण्डार ही है। सदियों से देश की राजनीतिक उथल-पुथल के विस्तार में जाना हमारा अभीष्ट नहीं है। मात्र इतनी चर्चा पर्याप्त है कि इस उथल-पुथल के लम्बे कालखण्ड में संस्कृत भाषा शनै: शनै: बोलचाल से दूर होकर केवल ग्रंथों व विशिष्ट वर्ग तक सीमित हो गई। इसी संस्कृत से उपजी-इतिहास से खेलती, नए-नए रूप धारण करती हिन्दी भाषा चलन में आ गई। सदियों के मुस्लिम शासन ने भी इसके रूप-रंग को प्रभावित किया-स्वयं वह भी प्रभावित हुआ एवं उसने यह जाना कि इस भूमि पर बने रहने के लिए भाषाई आधार तो पाना ही होगा और इस तरह हिन्दी-उर्दू दो बहनों की तरह पलने-बढ़ने लगीं। इसका लाभ इस्लामी मतांतरणवादी प्रवृत्तियों को भी मिला। यह भारत का दुर्भाग्य ही था कि धीरे-धीरे अशिक्षा का अंधकार गहराता गया, जिसकी काली चादर के नीचे परम्परा के नाम पर कुप्रथाओं व कुरीतियों की विद्रूपताएं पैर पसारती चली गईं। परिणामत: मतांतरण फलता-फूलता रहा।

फिर समय आया एक नए ऐतिहासिक मोड़ का, जब पश्चिम दिशा से ईसाई मिशनरियों ने पूर्व की ओर रुख किया। यूरोप में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप आए राजनीतिक व आर्थिक बदलाव भी इन मिशनरियों के लिए वरदान साबित हुए। अपने पंथ के प्रचार हेतु सर्वप्रथम उन्हें एक ऐसी भाषा की आवश्यकता पड़ी जिसके माध्यम से एक प्राचीन स्थापित संस्कृति में घुसपैठ की जा सकती थी। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप छापेखाने खुल चुके थे। तब भारत में इतनी विभिन्नताओं के बीच भी सर्वाधिक बड़े भू-भाग में जानी-समझी जाने वाली जो भाषा उन्हें मिली, वह हिन्दी थी।

हिन्दी भाषा की इसी शक्ति का प्रभाव अन्य क्षेत्रों में भी दिखता है। उन्नीसवीं सदी भारत में समाज सुधार आन्दोलनों की सदी भी रही। यह काल सामाजिक पुनर्जागरण का काल था जब राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे समाज सुधारकों ने कुरीतियों, अशिक्षा व अंधविश्वासों की दलदल को दलना आरम्भ किया। ये सभी हिन्दीभाषी नहीं थे किन्तु इतना जानते थे कि किसी भी राष्ट्र का चिंतन, किसी भी राष्ट्र का जीवनदर्शन या जीवन जीने की कला व उसकी अपनी विशिष्ट संस्कृति, उसकी अपनी भाषा से ही पुष्पित-पल्लवित होती है। वह जान रहे थे कि समाज सुधार की बातों व भावों को जन सामान्य के हृदय में उतारने के लिए देश की सर्वमान्य भाषा ही सक्षम है, आक्रान्ताओं की भाषा नहीं। भाषा की सरलता, बोधगम्यता व विशाल भू-भाग पर बोलने--समझने वाली भाषा की शक्ति हिन्दी के ही पास है। तब उनके नेतृत्व में अनेक संस्थाओं द्वारा हिन्दी भाषा के माध्यम से वैचारिक आन्दोलनों की नई प्राणवायु भारतीय समाज को प्राप्त हुई। अन्य अहिन्दीभाषी विद्वज्जन यथा-केशव चन्द्र, महादेव गोविन्द रानाडे, बाल गंगाधर तिलक, महर्षि अरविंद, कस्तूरी रंगायंगर, सुब्रह्मण्यम अय्यर आदि भी पीछे न रहे और इन्होंने अपने सद्प्रयासों से हिन्दी का सम्मान स्थापित किया, उसे प्रतिष्ठा दिलवाई।

उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी देश के स्वतंत्रता आन्दोलन का चरमकाल थी। हिन्दी ने एक ओर जहां मिशनरियों को प्रभावित किया, सुधार आन्दोलनों की शक्ति बनी, वहीं उस शक्ति ने स्वतंत्रता आन्दोलन को उसके लक्ष्य तक पहुंचा कर स्वाधीन भारत की नींव भी रखी। इस काल में क्रांतिकारी गतिविधियां तीव्रता पकड़ रही थीं, जिनमें अनेक प्रमुख देशप्रेमी अहिन्दीभाषी क्षेत्रों के भी थे। विशेषकर विनायक दामोदर सावरकर, बाल गंगाधर तिलक, रास बिहारी बोस, विपिन चंद्र पाल, मानवेन्द्र नाथ राय, लाल लाजपत राय, सरदार भगत सिंह, खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चन्द्र चाकी, चिदम्बरम् पिल्लै और अब्दुल गनी।

कौन नहीं जानता कि महात्मा गांधी, जो गुजरात में जन्मे थे, हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के सबसे बड़े हिमायती थे। ऐसा नहीं था कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा पद पर आसीन करने का निर्णय यूं ही ले लिया गया था। भारत की तत्कालीन बौध्दिक मनीषा ने अनेकानेक वैचारिक मंथन प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद भली प्रकार विचार करके देश के समग्र हित में हिन्दी को राष्ट्र भाषा पद पर प्रतिष्ठित किया। यही वह सूत्र था जिसने देश को एकता में बांधा, यही वह माध्यम था जिसने अपूर्व प्रेरणा व जागृति उत्पन्न की। इस भाषाई यात्रा में अनेक अहिन्दीभाषी मनीषी सहयोगी बने-सुनीति कुमार, खान अब्दुल गफ्फार खां (सीमांत गांधी), मौलाना आजाद, विनोबा भावे, राजगोपालाचारी, सुचेता कृपलानी, सरोजिनी नायडु, पुलिन बनर्जी, पूर्णिमा बनर्जी, मशरूवाला, डा. जाकिर हुसैन, डा.राधाकृष्णन, न्यायमूर्ति कृष्णास्वामी, न्यायमूर्ति शारदा चरण मित्र आदि। हिन्दी की इस यात्रा के सूत्रधार भली प्रकार जानते थे कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की इन पंक्तियों, 'निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल' में कितनी सच्चाई है।

आज हम अपनी स्वतंत्रता की साठवीं वर्षगांठ मना रहे हैं। देश ने इन वर्षों में प्रगति न की हो ऐसा भी नहीं है। किन्तु शर्मनाक बात यह भी है कि स्वतंत्र भारत में भी अंग्रेजी की गुलामी हम नहीं छोड़ पाए हैं। आज भारत का शिक्षित वर्ग अपनी गरिमा को खोकर जिस प्रकार अंग्रेजी के पीछे दौड़ रहा है, वह देखकर पीड़ा होती है। त्रासदी तो यह भी है कि स्वयं हिन्दी भाषी भी हिन्दी का अपमान कर रहे हैं। साठ वर्षों से राष्ट्र भाषा के प्रचार-प्रसार पर करोड़ों रुपए का व्यय तो हो रहा है, वांछित फल नहीं प्राप्त हो रहा, क्योंकि सब कुछ सतही है। (पांचजन्य)

1 comment:

हरिराम said...

सही सामयिक चिन्तनपूर्ण आलेख। यह काण्ड भी अन्ततः हिन्दी के प्रचार प्रसार को बढ़ाएगा। क्योंकि कभी कभी विरोध ज्यादा प्रतिबल प्रदान करता है। अन्य कारणों के साथ तकनीकी कारण से भी हिन्दी पिछड़ी है, जिनका समाधान आवश्यक है।