7 अक्टूबर, 1950 को साम्यवादी चीन ने विश्व के सर्वाधिक शान्तिपूर्ण, धार्मिक एवं प्राय: निहत्थे राष्ट्र तिबबत को अपनी प्रसार-वादी, साम्राज्यवादी, दमनकारी सत्तालोलुपता का शिकार बनाया। चीन की लाल सेनाओं ने निहत्थे, निरीह तिबबत को कुचल डाला और अपने इस अमानवीय कृत्य को तिब्बत की मुक्ति का नाम दिया। साम्यवादी सोच- समझ और नैतिकता का घृणित चेहरा पूरे विश्व ने देखा। 20 अकटूबर, 1962 को चीन ने अचानक भारत पर धावा बोल दिया। पंचशील की कसमें खाने वाला और 'हिन्दी चीनी भाई-भाई' के नारे लगाने वाला चीन एकाएक अपना उदार मुखैटा हटा कर अपने असली खुंखार साम्यवादी चेहरे के साथ भातीय सीमाओं पर आ खड़ा हुआ। अनपेक्षित हमले से आहत एवं विश्वासघात से मर्माहत पंडित नेहरू हतप्रभ रह गए। स्वाधीनता के पश्चात् चीन के हाथों शर्मनाक पराजय प्रत्येक भारतीय के लिए दु:स्वप्न की तरह है।
( आचार्य येशी फुन्छोक)
तिब्बत के लोग एक लम्बे अरसे से अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे है। एक प्रकार से यह लड़ाई 1949 में ही शुरू हो गई थी जब चीन में 'गृह युध्द' के फलस्वरूप साम्यवादी सेनाओं ने सफलता प्राप्त कर ली थी। साम्यवादी धर्म विरोधी थे और तिब्ब्त धर्म परायण। दोनों देश पड़ोसी थे। अत: दोंनों का मानसिक युध्द तो उसी दिन से शुरू हो गया था। दस साल तक आते 1959 में तो चीन ने तिब्बत के भाग्य पटल पर बन्दूक की नाल से गुलामी की रेखाएं खींच दी। तिब्बत के लोग अब इन्हीं रेखाओं को अपने खून से मिटाने का प्रयास कर रहे हैं। तिब्बतियों का बलिदान एक दिन अवश्य रंग लाएगा। तिब्बत आजाद होगा। तब भारत भी कह सकेगा कि शान्तिपूर्ण एवं लोकतांत्रिक ढंग से तिब्बत की आजादी की लड़ाई भारत में ही लड़ी गई थी। लेकिन इस समय ज्यादा चिन्ता की बात इस बात की है कि चीन तिब्बत का सांस्कृतिक नाश कर रहा है। इस अमानवीय कृत्य पर विश्व मौन है। तिब्बत के मन्दिर तोड़ दिए गए। पुस्तकालय जला दिए गए और मठों में से साधुओं को बाहर निकाल दिया गया। यदि तिब्बत की संस्कृति ही नहीं बची तो दुनियां की छत कहा जाने वाला पठार, निर्जीव पठार मात्र ही होगा, तिब्बत नहीं। तिब्बत की विलक्षणता उसकी संस्कृति में है। यही संस्कृति उसे चीन से अलग करती है। इसीलिए चीन उस संस्कृति को ही नष्ट करने पर तुला हुआ है। तिब्बत की संस्कृति कहीं न कहीं, भारत की मुख्य धारा से जुड़ती है। इसीलिए तिब्बत और तिब्बत की संस्कृति की रक्षा करना भारत का धर्म है।
( ईश्वर दास धीमान)
( आचार्य येशी फुन्छोक)
तिब्बत के लोग एक लम्बे अरसे से अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे है। एक प्रकार से यह लड़ाई 1949 में ही शुरू हो गई थी जब चीन में 'गृह युध्द' के फलस्वरूप साम्यवादी सेनाओं ने सफलता प्राप्त कर ली थी। साम्यवादी धर्म विरोधी थे और तिब्ब्त धर्म परायण। दोनों देश पड़ोसी थे। अत: दोंनों का मानसिक युध्द तो उसी दिन से शुरू हो गया था। दस साल तक आते 1959 में तो चीन ने तिब्बत के भाग्य पटल पर बन्दूक की नाल से गुलामी की रेखाएं खींच दी। तिब्बत के लोग अब इन्हीं रेखाओं को अपने खून से मिटाने का प्रयास कर रहे हैं। तिब्बतियों का बलिदान एक दिन अवश्य रंग लाएगा। तिब्बत आजाद होगा। तब भारत भी कह सकेगा कि शान्तिपूर्ण एवं लोकतांत्रिक ढंग से तिब्बत की आजादी की लड़ाई भारत में ही लड़ी गई थी। लेकिन इस समय ज्यादा चिन्ता की बात इस बात की है कि चीन तिब्बत का सांस्कृतिक नाश कर रहा है। इस अमानवीय कृत्य पर विश्व मौन है। तिब्बत के मन्दिर तोड़ दिए गए। पुस्तकालय जला दिए गए और मठों में से साधुओं को बाहर निकाल दिया गया। यदि तिब्बत की संस्कृति ही नहीं बची तो दुनियां की छत कहा जाने वाला पठार, निर्जीव पठार मात्र ही होगा, तिब्बत नहीं। तिब्बत की विलक्षणता उसकी संस्कृति में है। यही संस्कृति उसे चीन से अलग करती है। इसीलिए चीन उस संस्कृति को ही नष्ट करने पर तुला हुआ है। तिब्बत की संस्कृति कहीं न कहीं, भारत की मुख्य धारा से जुड़ती है। इसीलिए तिब्बत और तिब्बत की संस्कृति की रक्षा करना भारत का धर्म है।
( ईश्वर दास धीमान)
2 comments:
संजीव जी
नमस्कार
तिब्बति बंधुओं की पीड़ा को हम सबके सामने लाकर आपने एक अच्छी पहल की है। तिब्बतियों का बलिदान एक दिन अवश्य रंग लाएगा।
देखिए इस बात का रोना रोकर कुछ नहीं होगा कि चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया।
Survival of the fittest के सिद्धांत अनुसार यही होना था। अब तिब्बत को आजादी चाहिए तो मुझे नहीं लगता कि ये बिना सशस्त्र संघर्ष मिल सकेगी।
शास्त्रों ने कहा है - वीर भोग्या वसुन्धरा
बुद्ध ने अहिंसा का संदेश प्राणिमात्र पर दया के लिए दिया था दुष्टों का अन्याय सहने के लिए नहीं।
इसलिए हे तिब्बतियों उठो और अन्यायी चीन से अपनी आजादी छीन लो। आजादी मांगने से नहीं छीनने से मिलती है। भारतवासियों ने सारी दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेजों से आजादी छीनी, क्या तिब्बती एक अकेले देश चीन से नहीं ले सकते। हाँ इसमें सालों लग सकते हैं परंतु आजादी के लिए बलिदान तो देना ही पड़ता है।
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